Saturday 30 June 2012

सेवा कर : मंहगाई की एक और सौगात

लोगों की खाल खींचने में कोई कोताही नहीं कर रही सरकार

मंहगाई से त्राहि त्राही कर रही जनता पर अभी मंहगाई की मार कहां पड़ी है, वित्त मंत्रालय से जाते जाते आम आदमी की ऐसी तैसी करने में प्रणव दादा का जहरीले बजट  कम नही था. अब भी लोगों की खाल खींचने में कोई कोताही नहीं कर रही सरकार.
बहरहाल महंगाई की असली चुभन अब महसूस होगी. पहली जुलाई रविवार से कोचिंग क्लासेस व प्रशिक्षण केंद्र से लेकर होटल में खाने-पीने और हवाई यात्रा तक सभी पर महंगाई टूट पड़ेगी. फिलहाल, रेल माल ढुलाई व यात्री किराए में रविवार से सेवाकर लगने को लेकर भ्रम की स्थिति बनी हुई है. रेलमंत्री मुकुल राय ने कहा है कि रेलवे एक जुलाई से माल भाड़ा और यात्री किराए पर सेवाकर नहीं लगाएगा. इस बाबत उन्होंने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिखा है, जिनके हाथों में ही इस समय वित्त मंत्रालय की कमान भी है. नई सेवा कर व्यवस्था के लागू होने के साथ ही आज  यानी एक जुलाई से कई सेवाएं महंगी हो जाएंगी और लोगों को इनके लिए 12 प्रतिशत की दर से सेवा कर चुकाना पड़ेगा.
हालांकि नकारात्मक सूची में शामिल 38 सेवाओं पर नई व्यवस्था का असर नहीं होगा. यह सूची भी एक जुलाई से ही प्रभावी मानी जाएगी. इस सूची में शामिल सेवाओं के अलावा अंतिम संस्कार से जुडी सेवाएं भी इसके दायरे में नहीं आएंगी. दूसरी ओर जिन सेवाओं को नई व्यवस्था के दायरे में लाया गया है उनमें कोचिंग और प्रशिक्षण संस्थान शामिल हैं. हालांकि स्कूलों, विश्वविद्यालय स्तर की शिक्षा तथा व्यावसायिक शिक्षा को इससे छूट दी गई है.
नई कर व्यवस्था की सबसे बडी़ खामी यह है कि इसमें रेल माल ढुलाई तथा रेल यात्री किरायों पर सेवा कर को लेकर असमंजस की स्थिति बनी हुई है. अभी तक ऐसी सेवाओं की कुल संख्या 119 है. इसके साथ ही एक नकारात्मक सूची भी तैयार की गई है, जिसमें वर्णित सेवाओं को सेवा कर के दायरे से बाहर रखा गया है. सेवाकर के दायरें को बढा़ने के पीछे सरकारी मंशा वस्तु एंव सेवा कर (जीएसटी) को लागू करने की दिशा में एक कदम और आगे बढ़ना है. सरकार ने इस साल के बजट में सेवाकर का दायरा बढ़ाते हुए सेवाकर की परिभाषा को व्यापक बनाया है. अब तक 119 सेवाएं ‘सकारात्मक सूची’ में शामिल थी और उन्हीं पर सेवाकर लगाया जाता रहा. सेवाकर के दायरे को व्यापक बनाने का सरकार का नया कदम वस्तु एवं सेवाकर (जीएसटी) की दिशा में एक कदम और आगे बढ़ने के तौर पर देखा जा रहा है.
सरकार व स्थानीय प्राधिकरणों को एयरक्राफ्ट की मरम्मत और रखरखाव के लिए दी जाने वाली सेवाओं को भी नकारात्मक सूची में रखा गया है. इसी तरह वकीलों द्वारा दूसरे वकीलों और दस लाख रुपये तक का टर्नओवर रखने वाले व्यावसायिक संस्थानों को भी सेवाकर के दायरे से मुक्त रखा गया है. सार्वजनिक शौचालय भी इसके दायरे में नहीं रहेंगे. जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय नवीकरण मिशन [जेएनएनयूआरएम] व राजीव आवास योजना जैसी स्कीमों को भी नकारात्मक सूची में रखा गया है. वित्त मंत्रालय ने चालू वित्त वर्ष में सेवाकर से 1.24 लाख करोड़ रुपये जुटाने का लक्ष्य रखा है.

Wednesday 27 June 2012

क्रूर पाकिस्तानी मजाक

पाकिस्तान की सरकार ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि वह विश्वास के योग्य नहीं है. कट्टरपंथियों, सेना और आतंकवादी गिरोहों के साथ-साथ अपनी कुख्यात गुप्तचर एजेंसी आईएसआई के गिरफ्त में वहां की सरकार भारत के लिए ही नहीं, पूरी दुनिया के लिए भी भरोसेमंद नहीं रही है. मौत की सजा का सामना कर रहे एक भारतीय कैदी की रिहाई की पाकिस्तान सरकार की घोषणा के कुछ घंटों बाद ही पहली घोषणा को पलटकर एक अन्य भारतीय कैदी की रिहाई की बात करना उसके लिए अंतरराष्ट्रीय शर्मिदगी जैसी बात है, लेकिन शायद उसके लिए इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. रक्षा विशेषज्ञों का अनुमान गलत नहीं है. उनका मानना है कि यह
पाकिस्तान में 1990 में बम विस्फोट की कई घटनाओं में संलिप्तता को लेकर जबरन दोषी ठहराए गए और मौत की सजा का सामना कर सरबजीत सिंह को कल ही पाकिस्तान सरकार द्वारा रिहा करने की खबर आने के कुछ ही घंटे बाद राष्ट्रपति के प्रवक्ता फरहतुल्ला बाबर ने बताया कि अधिकारी सुरजीत सिंह नाम के एक अन्य भारतीय कैदी को रिहा करने के लिए कदम उठा रहे हैं, जो जासूसी के मामले में जेल में बंद था.
पाकिस्तान का यह
सरबजीत सिंह की रिहाई पर सरकार का रुख पलटने के एक दिन बाद आज पाकिस्तान ने सफाई पेश करते हुए कहा कि उन्हें रिहा करने की कोई योजना नहीं थी और इस मुद्दे पर सेना के किसी भी दबाव से इनकार किया.
पाकिस्तान के गृह मंत्री रहमान मलिक ने संवाददाता सम्मेलन में यह पूछे जाने पर कि क्या सरबजीत को रिहा करने की योजना सेना के दबाव में टाली गई, कहा कि इस मुद्दे पर सरकार में कोई चर्चा भी नहीं की गई. मलिक ने कहा,
गौरतलब है कि कल सरबजीत सिंह को रिहा किए जाने की खबरों के कुछ ही घंटे बाद पाकिस्तान ने सफाई दी कि उसने एक अन्य भारतीय कैदी सुरजीत सिंह को रिहा करने के कदम उठाए हैं, जो तीन दशक से जेल में बंद है.
पाकिस्तानी मीडिया ने कल खबरें जारी की थीं कि राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी ने सरबजीत की मौत की सजा को उम्रकैद में तब्दील कर दिया है और सजा पूरी होने की स्थिति में उसे रिहा करने का आदेश दिया है, लेकिन बाद में मीडिया ने सरकार द्वारा कल मध्य रात्रि के बाद जारी किए गए स्पष्टीकरण को
घालमेलजानबूझकर हो सकता है. भारत में 26/11 के मुंबई हमले के प्रमुख अभियुक्तों में एक अबु जंदाल की गिरफ्तारी से पाकी सेना और आईएसआई सकते में हैं. माना जा रहा है कि दबाव बढ़ाने के लिए उन्होंने रिहाई रुकवाई होगी. यू टर्नसरबजीत और उसके परिजनों के साथ नहीं भारत के साथ भी यह एक क्रूर मजाकहै. हालांकि उसकी जगह छूटने वाला दूसरा कैदी पंजाब का फरीदकोट निवासी सुरजीत सिंह भी भारतीय है और वह भी पिछले 31 सालों से पाकिस्तानी कैद में झूठे आरोप में बंद है. सुरजीत को पूर्व सैन्य शासक जिया-उल-हक के कार्यकाल के दौरान जासूसी के आरोप में गिरफ्तार किया गया था. उसकी मौत की सजा तत्कालीन राष्ट्रपति गुलाम इश्हाक खान ने 1989 में आजीवन कारावास में तब्दील कर दी थी और उसने भी अपने कारावास की सजा पूरी कर ली है. उसे हर हाल में पाकिस्तान को छोड़ना ही था. लेकिन अपने आतंकवादी गिरोह के अबु जंदाल के भारत की गिरफ्त में आ जाने की खबर से पाकिस्तानी सेना और आईएसआई को सांप सूंघ गया और सौदेबाजी के लिए ही वहां की सरकार ने सरबजीत को रिहा करने की अपनी नीयत बदल ली.हमने तो अभी सरबजीत को माफी भी नहीं दी है-हर बात में सेना को न घसीटें. सेना की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है और बनी रहेगी. सेना ने कभी हस्तक्षेप नहीं किया. वह कभी रिहा नहीं किए गए.उन्होंने यह भी कहा कि सरकार ने अभी सरबजीत की माफी पर कोई कदम नहीं उठाया है.यू-टर्नकी संज्ञा दी.

Sunday 24 June 2012

मगरमच्छों, कछुओं की तरह अंडे देते थे डायनासोर

इंदौर : मध्यप्रदेश की नर्मदा घाटी में बिखरे जुरासिक खजानेको ढूंढ़ निकालने वाले एक खोजकर्ता समूह ने दावा किया है कि मगरमच्छों और कछुओं के अंडे देने का तरीका सरीसृप वर्ग के अपने पुरखोंयानी डायनासोरों से काफी हद तक मेल खाता है. मंगल पंचायतन परिषदके प्रमुख विशाल वर्मा ने आज कहा, नर्मदा घाटी में आज से कम से कम साढ़े छह करोड़ साल पहले पाए जाने वाले डायनासोर सरीसृप वर्ग के ठंडे रक्त वाले जीव थे. ये विशाल जानवर मगरमच्छ और कछुए जैसे सरीसृपों की तरह ही अंडे दिया करते थे.उन्होंने कहा कि जिस तरह मगरमच्छ और कछुए अपने जलीय आवासों से निकलकर जलाशयों और समुद्र के रेतीले किनारों पर अंडे देते हैं, उसी तरह डायनासोर भी अपनी रिहाइश की थलीय जगहों से अलग ऐसे ही तटों पर अंडे देने पहुंचते थे.
वर्मा ने कहा,
वर्मा ने बताया कि अंडे देते वक्त डायनासोर ऐसी जगह चुनते थे, जो परभक्षियों की पहुंच से दूर और मौसम की उथल-पुथल से महफूज होती थी.
डायनासोरों की कई प्रजातियों की मादाएं नदियों और सरोवरों के रेतीले तटों पर अंडे देने के लिए लंबी यात्रएं भी करती थीं.उन्होंने बताया कि डायनासोर आम तौर पर किसी बड़े जलाशय या नदी के किनारे रेतीली और रवेदार मिट्टी में अंडे देते थे. अंडा देने की जगह डायनासोर और उनके समूह के आकार के मुताबिक विस्तृत होती थी.
वर्मा के मुताबिक उन्हें इन घोंसलों में डायनासोर के सौ से ज्यादा अंडों के जीवाश्म मिले थे. इनमें सबसे दुर्लभ घोंसला वह है, जिसमें इस विलुप्त जीव के करीब 15 अंडों के जीवाश्म एक साथ मिले थे.
उन्होंने बताया कि वह अब तक डायनासोर के 150 से ज्यादा अंडांे के जीवाश्म ढूंढ़ चुके हैं. बहरहाल, आज यह यकीन करना बेहद मुश्किल है कि वर्तमान नर्मदा घाटी में कभी डायनासोर की सल्तनत थी.
उन्होंने बताया कि नर्मदा घाटी में इस विलुप्त प्राणी के जो जीवाश्मीकृत अंडे अब तक मिले हैं, उनमें से करीब 90 प्रतिशत अंडे सौरोपॉड परिवार के डायनासोराें के हैं.
वह बताते हैं कि इस परिवार के डायनासोर शाकाहारी थे और उनकी ऊंचाई 20 से 30 फुट होती थी. ये डायनासोर तत्कालीन रेतीले इलाकों में दूरस्थ इलाकों से अंडे देने आते थे.
वर्मा ने कहा,
वर्मा के मुताबिक भारतीय डायनासोर के जीवाश्मीकृत अंडे और घोंसले मिलने का क्षेत्र करीब 10,000 वर्ग किलोमीटर में फैला है. इन अंडों की आयु 6. 5 करोड़ वर्ष से 6- 8 करोड़ वर्ष आंकी गई है.
उन्होंने बताया कि डायनासोर के जीवाश्मीकृत अंडे और घोंसले खासकर उन जगहों पर पाए गए हैं, जहां सहस्त्रब्दियों पहले ज्वालामुखी विस्फोट हुआ करते थे.
मंगल पंचायतन परिषदने तब पहली बार दुनिया भर का ध्यान खींचा था, जब इस खोजकर्ता समूह ने वर्ष 2007 के दौरान नजदीकी धार जिले में डायनासोर के करीब 25 घोंसलों के रूप में बेशकीमती जुरासिक खजाने की चाबी ढूंढ़ निकाली थी.हमारे पास इस बात के पर्याप्त सबूत हैं कि चट्टानों की जिन परतों में डायनासोर के अंडों के जीवाश्म दबे मिले हैं, वे बार-बार बाढ़ से प्रभावित होती रही हैं. इन जीवाश्मीकृत अंडों के आस-पास छोटे एवं गोल पत्थरों और बजरी का मिलना यह साबित करता है कि डायनासोर के घांेसलों के पास बाढ़ का पानी घुस आया करता था.उन्होंने बताया कि डायनोसोर के अंडे, मिट्टी और गाद से ढंके होने के कारण शिकारियों एवं दूसरे दुश्मनों से छिपे रहते थे और इन पर बैक्टीरिया का भी असर नहीं हो पाता था.

कबीर-नानक की मिलनस्थली पर बन रहा दुनिया का अजूबा


अमरकंटक : अमरकंटक घने जंगलों, नदियों, मंदिरों और गुफाओं का पर्याय एक रमणीक स्थल मात्र नहीं, बल्कि अध्यात्म व साहित्य साधना की मिलनस्थली भी है, जहां कबीर व गुरु नानक के बीच संवाद हुआ. जहां घने जंगलों के दरख्तों से गिरे सूखे पत्ताें की खड़खड़ तथा नर्मदा, सोन नदी के उद्गम से निकलने वाले पानी की कलकल ध्वनि में आध्यात्मिक संगीत के सुर सुने जा सकते हैं. जहां घने जंगलों में हठयोगी बाहरी दुनिया से बेखबर जहां-तहां धूनी रमाए देखे जा सकते हैं. इसी पवित्र नगरी में दुनिया के एक अनूठे मंदिर का निर्माण हो रहा है.
जैन तपस्वी संत आचार्य विद्यासागर की प्रेरणा से अमरकंटक में अष्टधातु की दुनिया की सबसे बड़ी मूर्ति प्रतिष्ठित की जा रही है.
दुनिया में अपनी तरह की अनूठी तथा एक रिकार्ड कायम करने वाली मूर्ति के भव्य मंदिर का निर्माण इस समय जोर-शोर से चल रहा है. लगभग दस फुट ऊंची प्रथम जैन र्तीथकर भगवान आदिनाथ की यह मूर्ति 28,000 किलोग्राम वजनी है तथा इसे अष्टधातु के ही 24000 किलोग्राम वजनी कमल सिंहासन पर प्रतिष्ठित किया गया है. मंदिर को गुजरात के मशहूर अक्षरधाम मंदिर की स्थापत्य शैली के अनुरूप बनाया जा रहा है और इसके स्थापत्य की विशेषता है कि इसे बिना इस्पात तथा सीमेंट के बनाया जा रहा है, ताकि वक्त की थपेड़ें इसका क्षय नहीं कर सकें और यह सदियों तक अक्षय बना रहे. इस विशाल मंदिर की ऊंचाई 144 फुट, लंबाई 424 फुट तथा चौड़ाई का दायरा 111 फुट है
न्यासी प्रमोद जैन के अनुसार इस मंदिर के निर्माण पर लगभग 25-30 करोड़ रुपया व्यय होगा तथा संभवत: अगले वर्ष के मध्य तक (2013) इसकी प्राण प्रतिष्ठा हो जाएगी. ऐसी संभावना है कि प्राण प्रतिष्ठा समारोह आचार्य श्री और उनके संघ के सानिध्य में होगा.
एक जैन श्रद्धालु के अनुसार मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ के संधिस्थल पर बसे इस क्षेत्र में विहार करते वक्त आचार्य भी यहां र्जे-र्जे में बसी आध्यात्मिकता से इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने यहां मंदिर बनवाने का निश्चय कर लिया और अब दुनिया का एक अनूठा आध्यात्मिक व धार्मिक केंद्र यहां निर्मित हो रहा है और घने जंगलों में मंदिर के घंटों के स्वर यहां के अद्भुत माहौल को और भी अद्भुत बना देंगे.
गहराती शाम में निर्माणाधीन मंदिर से कुछ दूरी पर घने जंगलों में कबीर चबूतरे पर धूनी जमाए साधुओं द्वारा गाए जा रहे कबीर के भजन माहौल को और भी विस्मयकारी कर देते हैं. कबीर चौरा, चबूतरों पर कबीर व गुरुनानक के चित्र शायद उसी संवाद को जीते से लगते हैं.

Saturday 23 June 2012

धर्म का बढ़ता व्यापार

धर्म का व्यापार अथवा धर्म के नाम पर व्यापार कोई नई बात नहीं है. संचार माध्यमों और मीडिया प्रसारण के इस युग में धर्म को माध्यम बना कर ऐसे पाखंड प्रचारित किए जा रहे हैं कि भविष्य के प्रति आशंकित लोगों को अपने भविष्य सुधारने के लिए इन जालों में फंसते देर नहीं लगती.
धर्म का गुण है अनेक को अपनी छत्रछाया में लेना और सबको विकास की राह दिखाना. लेकिन धर्म के नाम पर आज हमें जो प्रयास नजर आते हैं, उनमें विभिन्न समुदाय-वर्गो को सामाजिक सरोकारों से जुड़ने की प्रेरणा देने के बजाय अपने व्यावसायिक हितों को साधने का साधन बनाने की कोशिशें ही कोशिशें दीख पड़ती हैं. ऐसे लोगों ने धर्म को व्यापार बना दिया है, वे भगवान को अपनी जेब में रखना चाहते हैं और अवसर मिलते ही उसे भुनाना भी चाहते हैं.
ऐसी चाहत आज बढ़ती ही जा रही है. यह धन कमाने का सर्वाधिक सरल और सुगम मार्ग बन गया है. इस सरलता और सुगमता का माध्यम लोगों की अंधी आस्था और आसानी से जीवन में सबकुछ हासिल कर लेने की लालच है.
टीवी चैनलों पर ऐसे दैवीय यंत्रों की भरमार दिखाई पड़ती है जो यह दावा करते हैं कि उनके उपयोग से जिंदगी में खुशहाली आ जाएगी. इनकी श्रेष्ठता और सत्यता साबित करने के लिए फिल्म और टेलीविजन के सितारों की भी मदद ली जाने लगी है. पिछले कुछ सालों में, कुछ हिंदी टेलीविजन चैनलों ने कुछ पाखंडी धर्म गुरुओं के गोरखधंधों का पर्दाफाश करने का दावा किया है, जबकि उनका यह प्रयास संदेह के घेरे से बाहर नहीं है.
अधिकांश मामलों में इन धर्म गुरुओं के बारे में यह आरोप लगाए गए हैं कि इन लोगों ने व्यक्तिगत लाभ और पैसा कमाने के लिए लोगों की धार्मिक भावनाओं से खिलवाड़ किया है. आर्थिक दोहन, यौन शोषण, संकुचित सोच और अंधविश्वास ने हर तरह के अपराधों को बढ़ावा दिया है फिर वह व्यक्तिगत हिंसाचार हो या फिर सामूहिक हत्या या आतंकवाद. इनकी पुनरावृत्ति पूरे देश में और हर धर्म में होती दिखाई पड़ती है. नि:संदेह, धर्म के मामले में यह पूरी तस्वीर नहीं है, लेकिन फिर भी हमारा ध्यान आकर्षित करने के लिए इसमें पर्याप्त महत्वपूर्ण पहलू तो हैं ही.
पूरे विश्व में, व्यक्तियों में धर्म की श्रेष्ठता के प्रति आस्था और उसका व्यक्तिगत जीवन पर असर बढ़ने के बजाय धार्मिक प्रथा-परंपराओं के स्वरूप में बदलाव आता जा रहा है. भारत में, आर्थिक सुधारों और उससे उत्पन्न हुई संपन्नता ने धार्मिक भावनाओं को कमजोर करने के बजाय और प्रबल किया है. उसके प्रमाण हमारे चारों ओर पसरे हुए हैं.
विभिन्न टेलीविजन चैनल गुरुओं को ब्रांडबनाने में लगे हुए हैं. धार्मिक उत्सवों को प्रमुखता से दिखाया जा रहा है. हमारे रोजमर्रा के जीवन में भी धार्मिक अनुष्ठानों का बड़ा महत्व नजर आने लगा है. मंदिरों में खूब भीड़भाड़ नजर आती है, खासतौर पर परीक्षा के दिनों में.
बात केवल ईश्वर से अपने सुख और कल्याण के लिए व्यक्तिगत प्रार्थना तक सीमित नहीं रह गई, बल्कि अब तो ऐसी कई कहानियां सुनने को मिल जाती हैं, जिनमें ईश्वर के प्रकोप से बचने और वरदान पाने के लिए कुछ भक्त विचित्र प्रायश्चित करते हैं. इनकी वजह से मनुष्य मात्र का नुकसान भी होता है.
प्रार्थना एक ऐसा अस्त्र माना जाता है जो असंभव को संभव कर सकता है. मानव मात्र अपने साथ घटने वाली अनपेक्षित, बुरी घटनाओं से इसी प्रार्थना के सहारे बचना चाहता है. प्रार्थना में ईश्वर से फरियाद के साथ-साथ बाध्यकारी मांग भी शामिल होती है. इसमें दासता का भाव भी निहित होता है और भावनाओं का अतिरेक भी.
परंपरागत तौर पर प्रार्थना या ईश्वर की आराधना में अपेक्षा की जाती है कि बिना किसी उम्मीद, सवाल-जवाब ऊपर वाले के समक्ष समर्पण. लेकिन अब लगातार इस बात को अनुभव किया जा रहा है कि भक्तों की मांगों ने आत्मसमर्पण को पिछवाड़े छोड़ दिया है. प्रार्थना, परिणाम पर निर्भर हो गई है.
तथाकथित धार्मिकता और असल धार्मिकता के बीच खाई बढ़ रही है. परिणामस्वरूप धर्म की सामाजिक उपयोगिता का ह्रास हो रहा है. धर्म, व्यक्तिगत विकास का माध्यम बनने के बजाय एक रिमोट कंट्रोल बन रहा है जिसे जो, जब, जहां चाहे अपने स्वार्थ के लिए घुमा लेता है.
जहां सच्ची धार्मिकता आत्मसुधार और बिना शर्त समर्पण के भाव पैदा करता है, वहीं आज धर्म से लोगों का रिश्ता अधिकाधिक मांगों भरा हो गया है, जिसमें स्वार्थ ही स्वार्थ है, समर्पण अथवा अर्पण का कहीं नामो निशान भी नजर नहीं आता.

Sunday 17 June 2012

नई भूमिका में प्रणब मुखर्जी

नई भूमिका में प्रणब मुखर्जी
चैन की सांस ले रहे उद्योग जगत एवं..

वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाए जाने से उद्योग जगत चैन की सांस लेता नजर आ रहा है. विलक्षण प्रतिभा, अद्वितीय स्मरण शक्ति और उत्कृष्ट कांग्रेसी के रूप में मशहूर श्री मुखर्जी संप्रग सरकार के संकटमोचक माने जाते रहे हैं. वर्ष 2008 की वैश्विक मंदी के समय देश की अर्थव्यवस्था को संभालने में बेहतर भूमिका निभाने वाले श्री मुखर्जी की दुनिया भर में प्रशंसा हो चुकी है. लेकिन आश्चर्य है कि न केवल उद्योग जगत ऐसे संतोष जता रहा है, मानो वित्त मंत्रलय को मुक्तिमिल रही हो, बल्कि कांग्रेस का एक वर्ग भी पार्टी को उनसे मिल रही मुक्ति से खुश है. पार्टी में ही नहीं अन्य दलों में भी प्रधानमंत्री पद के लिए सबसे सुयोग्य समङो जाने वाले श्री मुखर्जी के साथ विडंबना है कि कोई उन्हें इस पद पर देखना नहीं चाहता था. यहां तक कि कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी और उनके राजनीतिक सलाहकार भी इस पक्ष में कभी नहीं रहे कि उन्हें देश का प्रधानमंत्री बनाया जाए. अपनी इस महत्वाकांक्षा के कारण तो उन्हें कांग्रेस छोड़ने पर भी बाध्य होना पड़ा था.

इधर अब तो देश की अर्थव्यवस्था में आ रही गिरावट के लिए प्रधानमंत्री के नजदीकी सूत्र समेत सरकार के कुछ मंत्री भी श्री मुखर्जी को ही जिम्मेदार मानने का संकेत देने लगे थे. जून के प्रथम सप्ताह में देश के विभिन्न समाचारपत्रों में छपे देश के मूर्धन्य पत्रकार कुलदीप नैयर भी अपने स्तंभ (कॉलम) में बताने से नहीं चूके कि पिछले वार्षिक बजट में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के सुझाव तक को श्री मुखर्जी ने ठुकरा दिया था. यह भी संकेत दिए जाने लगे थे कि आर्थिक और वित्तीय मामलों में ही नहीं, अन्य मामलों में भी श्री मुखर्जी अन्य मंत्रियों की तरह प्रधानमंत्री के सुझावों को नजरंदाज करने से नहीं चूकते थे. उनका यह रुतबा पार्टी और सरकार दोनों के लिए बहुत ही भारी पड़ने लगा था. सूत्र बताते हैं कि राष्ट्रपति पद के लिए पार्टी के पास दूसरा कोई विकल्प न होने के कारण श्री मुखर्जी को रायसीना हिल्स का रास्ता दिखा कर पार्टी और सरकार दोनों ने अपना उद्धार करने की कोशिश की है.
कांग्रेस पार्टी और सरकार के लिए अपरिहार्य बन चुके श्री मुखर्जी के रुतबे का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि विभिन्न नीतिगत एवं प्रशासनिक विषयों पर विचार के लिए सरकार की ओर से गठित 37 मंत्रियों के समूह (जीओएम) में 24 की अध्यक्षता प्रणब ही कर रहे थे.
इधर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा वित्त मंत्रलय का कार्यभार अपने हाथों में लेने की चर्चा के बीच उद्योग जगत में भी नई उम्मीदें जगी हैं. कारोबारी जगत यह भी मानता है कि यदि प्रधानमंत्री स्वयं वित्त मंत्रलय को अपने हाथ में रखते हैं तो बाजार में इससे विश्वास बढ़ेगा. उनकी राय है कि फिलहाल देश में बहुब्रांड खुदरा कारोबार, बीमा क्षेत्र में सुधारों को मजबूती से आगे बढ़ाने और नए कंपनी विधेयक और वस्तु एवं सेवाकर यानी जीएसटी को भी जल्द से जल्द अमल में लाने की जरूरत है.
वे इस बात से चिंतित हैं कि अर्थव्यवस्था की सुस्ती, औद्योगिक उत्पादन में ठहराव, निर्यात के मोर्चे पर घटती वृद्धि, हिचकोले खाते शेयर बाजार और गिरते रुपए के साथ साथ जिद्दी महंगाई जैसी तमाम चुनौतियां देश के सामने हैं. भारतीय अर्थव्यवस्था की जीडीपी वृद्धि दर मार्च, 2012 को समाप्त हुई तिमाही में घटकर 5.3 प्रतिशत पर आ गई, जो बीते साल की इसी अवधि में 9.2 प्रतिशत थी. वर्तमान में यूरोक्षेत्र के संकट से दुनिया एक बार फिर मंदी का सामना कर रही है और भारत पर भी इसका असर दिखना शुरू हो गया है.
देश के शीर्ष वाणिज्य एवं उद्योग संगठनों में वाणिज्य एवं उद्योग मंडल
एसोचैमके महासचिव डी.एस. रावत के अनुसार, नए वित्त मंत्री के समक्ष कठिन चुनौतियां हैं, यूरोक्षेत्र सहित विभिन्न वैश्विक घटनाक्रमों का भारत पर असर नहीं पड़े, नए वित्त मंत्री को यह देखना होगा.शेयर बाजार विशेषज्ञ और दिल्ली शेयर बाजार के पूर्व अध्यक्ष अशोक अग्रवाल के अनुसार, प्रधानमंत्री खुद वित्त मंत्रलय का कार्यभार संभालें, इसको लेकर बाजार में सकारात्मक सोच है.पीएचडी वाणिज्य एवं उद्योग मंडल के अर्थशास्त्री एस.पी. शर्मा का मत है कि फिलहाल देश की अर्थव्यवस्था को उबारने की जरूरत है. उनके अनुसार, अर्थव्यवस्था में देशी-विदेशी निवेशकों के विश्वास को फिर से कायम करने की जरूरत है. निवेशकों का यह विश्वास आज बिल्कुल निचले स्तर पर पहुंच गया है.भारतीय कंपनी सचिव संस्थान (आईसीएसआई) के अध्यक्ष निसार अहमद ने कहा कि अर्थव्यवस्था में जान फूंकने के लिए इस समय दूसरी पीढ़ी के सुधारों को आगे बढ़ाने की नितांत आवश्यकता है. उन्होंने कहा कि सरकार को महत्वपूर्ण सुधारों से जुड़े कम से कम चार-पांच मुद्दों पर सभी दलों को विश्वास में लेकर आम सहमति बनाकर सुधारों को आगे बढ़ाना चाहिए. इससे पूरी दुनिया में निवेशकों के बीच सकारात्मक संकेत जाएगा.
नए वित्त मंत्री के बारे में अहमद का स्पष्ट मत है कि मौजूदा परिस्थितियों में वित्त मंत्री का पद काफी अहम् हो गया है. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह यदि खुद वित्त मंत्रलय का कामकाज देखते हैं तो इससे काफी मदद मिल सकती है. देश में आर्थिक सुधारों की शुरुआत भी उन्होंने ही की थी.
वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी को सभी काफी सुलझा व्यक्ति भी मानते हैं. वे यह भी मानते हैं कि वर्ष 2008 की वैश्विक मंदी के समय मुखर्जी ने देश की अर्थव्यवस्था को संभालने में बेहतर भूमिका निभाई. वे इस बात को भूले नहीं हैं कि मुखर्जी ने उस समय घरेलू उद्योगों को उत्पाद एवं अन्य करों में छूट देकर राहत पैकेज दिया था.
अब देखना है राष्ट्रपति भवन में सक्रिय राजनीति से दूर रह कर श्री मुखर्जी की भूमिका कितनी सार्थक हो सकती है.
कल्याण कुमार सिन्हा

Saturday 16 June 2012

तालीम बनी तिजारत
डोनेशन नहीं तो एडमिशन नहीं
पवित्र कुरआन में अल्लाह ने सबसे पहले जो हुक्म तमाम इन्सानों को दिया वो हुक्म है पढ़यानी तालीम हासिल कर, अल्लाह ने तमाम कामों का हुक्म बाद में दिया. रोज़ा, नमाज़, हज़ और जकात सारे हुक्म बाद में आए, लेकिन सब से पहले इल्म हासिल करने का हुक्म आया, क्योंकि जब तक इन्सान इल्म हासिल नहीं करेगा वो खुदा को भी नहीं पहचान सकता. उसकी कुदरत और ताकत को नहीं समझ सकता. इल्म हासिल करेगा तो खुदा की सारी खुदाई, उसके सारे निज़ाम को समङोगा. अच्छे और बुरे की तमीज़ होगी. हलाल और हराम पहचानेगा, जिंदगी गुजारने का ढंग आएगा. इसीलिए हज़रत मोहम्मद (स) ने फरमाया कि इल्म हासिल करना फर्ज है और इसी इल्म की दौलत से वे इलाके जो बहुत जाहिल, ज़ालिम, कत्ल व खून जिनकी रगों में शामिल था. दुनिया के तमाम इन्सानों के रहबर बन गये.
अरब और यूनान इल्म का गढ़ बन गए. जहालत खत्म हो गई. पूरा अरब ऐसा तरक्की कर गया कि दुनिया उनके कदमों में आ गई.. और ये सच है कि तालीम के बगैर कोई इनसान, कोई समाज, कोई इलाका और कोई भी मुल्क तरक्की नहीं कर सकता, मगर अफसोस कि जब तालीम की अहमियत हर गरीब, फकीर, देहाती के भी समझ में आ गई, गांव-खेड़े के लोग भी इल्म हासिल करने के लिए शहरों की तरफ आने लगे, मज़दूर और हमाल भी अपने बच्चों को पढ़ाने के ख्वाब देखने लगे तो शिक्षण माफिया, एजूकेशन माफिया ने ऐसा जुल्म ढाया, डोनेशन की ऐसी गोलियां और बारूद ईजाद किए कि गरीबों के सारे ख्वाब टूट गए, वो इल्म जो अंधों को आंखें और गूंगों को ज़बान दे देता है. इल्म जो दरिंदे को इन्सान, फकीर को अमीर, जाहिल को आलिम बना देता है, जिससे दुखों और मुसीबतों के बादल छंट जाते हैं, बरकत और रहमत की बारिशें बरसती हैं. अब इस इल्म पर सिर्फ अमीरों और मालदारों का कब्जा होने लगा, क्योंकि डोनेशन नहीं तो एडमिशन नहीं.
रिश्वत ने बड़े खूबसूरत अंदाज में डोनेशन का नाम ले लिया. बिल्डिंग फंड के नाम पर वो जायज़ हो गया. अब कोई भंगार जमा करने वाला बाप, कचरा चुनने वाली मां और रिक्शा चलाने वाला भाई, दूसरों के घर बरतन मांजने वाली बहन अगर अच्छी और ऊंची तालीम अपने बच्चों को, छोटों को दिलाना चाहते हैं तो नर्सरी के लिए 50 हजार, बहुत ही छोटा और नया स्कूल है तो पांच हजार, उर्दू इदारा है तो तीन हजार, वो कहां से लाएंगे. गरीब को मैनेजमेंट के किसी जिम्मेदार का सिफारिशी लेटर भी नहीं मिलता. मैनेजमेंट के कोटे में उनके आगे-पीछे घूमने वाले, उनकी हां में हां मिलाने वाले, उनके सियासी मफाद के लिये काम करने वाले, उनकी गाड़ियों का दरवाजा खोल कर उनका इस्तकबाल करने वाले, उनके खबरी या ऐसे मालदारों को जो पचासों गरीबों की फीस भर सकते हैं, उन्हें डोनेशन माफी का लेटर मिलता है.
ये तमाम क्वालिटी आप में है तो आपका एडमिशन बिना डोनेशन के हो सकता है, वरना गरीब का एडमिशन कहीं नहीं, अगर गरीब का बच्चा बड़ी मुसीबतों और हालात से गुजरते हुए दसवीं या बारहवीं पास कर लेता है तो फिर डोनेशन का बम उसकी ज़िंदगी को तबाह कर देता है.
डीएड 1 लाख, बीएड तकरीबन दो लाख, बीयूएमएस डोनेशन छह लाख, एमबीबीएस, बीडीएस सिर्फ डोनेशन 40-50 लाख.. अब ऐसी महंगी तालीम गरीब कहां हासिल कर सकता है, यानी गरीबी तम्हारा जुर्म है. तुम डॉक्टर, इंजीनियर, आईएएस/आईपीएस, एसपी और कलेक्टर नहीं बन सकते. तालीम को तिजारत (बिजनेस) बना लिया. अब सबसे अच्छी तिजारत, अच्छा बिजनेस यही है कि स्कूल या कॉलेज खोल लो. फकीर मालदार बन गये, लुटेरे इज्जतदार बन गये, मगर याद रखो तालीम को इन्सानों के लिए मुश्किल और तिजारत बनाओगे तो खुदा से भी दुश्मनी मोल लोगे और खुदा तुम्हारी ज़िन्दगियों का सुकून छीन लेगा.
आज हम अपनी आंखों से देख रहे हैं कि जिस मैनेजमेंट में डोनेशन खूब आ रहा है. वहां आपस की बांटा-बांटी में कोर्ट-कचहरी, यहां तक कि लड़ाई-झगड़े, कत्ल व खून तक पहुंच रहे हैं. अफसोस तो ये है कि सरकार की तरफ से सभी कॉलेज मैनेजमेंट को चेतावनी दी जाती है कि सिर्फ मेरिट की बुनियाद पर ही एडमिशन लें, अगर डोनेशन लेकर दाखिला दिया तो सख्त कानूनी कार्रवाई की जाएगी, मगर इसका असर किसी कॉलेज या मैनेजमेंट पर नहीं पड़ता. वो बड़ी ही डेयरिंग के साथ डोनेशन लेते हैं और अच्छे, ज़हीन मगर गरीब बच्चों को बाहर कर दिया जाता है. डोनेशन लाखों और करोड़ों में, कहीं इमारत के नाम पर, कहीं गरीबों के नाम पर जमा किया जा रहा है. आज तक सरकार कुछ नहीं कर पाई. सरकार के सरकुलर निकाल कर खामोश बैठ जाने से मसला हल नहीं होगा, बल्कि सख्त कार्रवाई करनी पड़ेगी.
खुफिया तरीके से ऐसे कॉलेजेस पर निगरानी करना होगी, तब जाकर डोनेशन की ये नहूसत और लानत से मुल्क पाक होगा. तालीम का मेयार बुलंद और अच्छा होगा. तभी ये मुल्क भी तरक्की करेगा.. तालीमयाफ्ता काबिल बच्चे अधिकारी बनेंगे तो इंशाअल्लाह बहुत ही जल्द ये मुल्क सुपर पावर और महासत्ता बन कर दुनिया के सामने आयेगा. आज जुमा की नमाज और दुआ में हम खुदा से ये मांगते हैं कि ऐ अल्लाह हमारे बच्चों को खूब इल्म से नवाज़ दे और हमारी गरीबी को, हमारे बच्चों और हमारे मुल्क की तरक्की में रुकावट न बना और डोनेशन की लानत से हमारे मुल्क को पाक फरमा (आमीन).
-जलगांव (महाराष्ट्र) की एक मस्जिद में जुमे (16.6.2012) का खुत्बा

Monday 4 June 2012

शासन और भ्रष्ट तंत्र का पोषण
भ्रष्टाचार और कुशासन सहोदरा हैं. भ्रष्टाचार को यदि प्रश्रय मिला तो शासक चाहे जितना भी योग्य क्यों न हो, देश और जनता को सुशासन नहीं दे सकता. उसके कुशल एवं योग्य शासक माने जाने पर हमेशा प्रश्न चिह्न् खड़ा हो ही जाता है. शासक की योग्यता और कुशलता का पैमाना यही है कि वह जनता को गतिमान एवं भ्रष्टाचार मुक्त शासन और प्रशासन उपलब्ध कराने में कितना सक्षम है. शासक अथवा सरकार की लोकप्रियता इसी मानदंड पर निर्भर है. अन्यथा वह शासक भ्रष्ट तंत्र का पोषक बन कर रह जाता है.
संप्रग-2 के शासनकाल का वर्तमान दौर में देश की जनता के समक्ष हर दिन एक न एक विवाद और भ्रष्टाचार में शासकवर्ग की संलिप्तता के किस्से सामने आते चले जा रहे हैं. यह स्थिति देश के लिए अत्यंत चिंता का विषय है. सत्तारूढ़ संप्रग की मुख्य घटक कांग्रेस पार्टी की भूमिका भी विचित्र ही है. वह हर भ्रष्टाचार के सभी सामने आने वाले मामलों की लीपा-पोती ही करती नजर आ रही है. अन्य घटक या तो तमाशबीन बने नजर आते हैं, अथवा वे भी सत्ता में बैठे अपने लोगों को भ्रष्टाचार के आरोपों से बचाने के लिए सरकार पर दवाब बनाते नजर आ रहे हैं. सरकार के मुखिया प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की योग्यता और ईमानदारी तार-तार हुई जा रही है. कल तक जिस प्रधानमंत्री पर देश की जनता नाज कर रही थी, आज वह हतप्रभ है और उनके खिलाफ उठ रही उंगलियों को देख-देख अब उससे सहमत भी होने को विवश हो रही है.
नई दिल्ली में संपन्न राष्ट्रमंडल खेलों में हुए घोटालों से शुरू हुए भ्रष्टाचार के यह वारदात कहीं ठहरने का नाम ही नहीं ले रहे. 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला से लेकर अब कोयला खदान ब्लाक आवंटन घोटालों से संबद्ध भ्रष्टाचार के सारे तार प्रधानमंत्री कार्यालय से जुड़े होने के प्रमाण स्वयं कैग (भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक) जैसी शीर्ष सरकारी जांच संस्था के माध्यम से ही उजागर हो रहे हैं. इसके बावजूद शीर्ष स्तर से इन सभी मामलों की लीपा-पोती की कोशिशें ही चल रही है. उनकी इन कोशिशों के कारण देश की आम जनता में असंतोष के बीज पड़ने शुरू हो चुके हैं.
भ्रष्टाचार से त्रस्त देश का जागृत वर्ग समाज सेवी अन्ना हजारे और उनकी सिविल सोसायटी की ‘‘राज्यों में लोकायुक्त और केंद्र में लोकपाल बहाल करने के लिए जन लोकपाल प्रस्ताव के आधार पर प्रभावी कानून बनाने की मांग’’ तथा योगगुरु बाबा रामदेव के ‘‘काले धन को विदेशों से वापस देश में लाने, काले धन के जनकों के नाम उजागर करने एवं इस काले धन को राष्ट्रीय संपत्ति घोषित करने’’ को लेकर किए जाने वाले आंदोलनों से जुड़ते चले जा रहे हैं अथवा इन आंदोलनों के प्रति (सत्तारूढ़ दल और सरकारी तंत्र के दुष्प्रचार के बावजूद) लोगों का समर्थन बढ़ता जा रहा है.विधि का शासन’ (रूल ऑफ लॉ) देश में स्थापित नहीं हो सका है. लोकतंत्र के नाम पर सत्तारूढ़ दल और विपक्षी पार्टियां भी देश में विधि का शासन चले, इसके लिए गंभीर नहीं हैं. तमाम संवैधानिक व्यवस्थाओं को अपने हित साधने के लिए तोड़ने-मरोड़ने से कोई बाज नहीं आता. देश का नौकरशाही भी अपने राजनीतिक आकाओं को खुश रखने में तमाम कानूनों और वैधानिकता की ऐसी की तैसी करने में जुटा हुआ है और उनके साथ मलाई खाने में ही लगा हुआ है. जनसेवा, देश सेवा, समाज सेवा के नाम पर ये सारे के सारे, अपना हित साधने और अपनी संपत्ति बनाने में लगे हुए हैं. देश का शासन कुशासन में बदलता जा रहा है.
देश के लिए दुर्भाग्य का विषय यह भी है कि आजादी के 64 वर्षो के बाद भी संविधान सम्मत
इसके साथ ही साथ सरकार की नीतियां जनविरोधी होती चली जा रही हैं. महंगाई बढ़ती जा रही है. भ्रष्ट नेता और अफसर एवं भ्रष्ट सरकारी कर्मचारियों के पौ तो बारह हैं, लेकिन देश के आम लोगों की हालत बिगड़ती जा रही है. गरीबी और अमीरी की खाई बढ़ती जा रही है.
आर्थिक नीतियां ऐसी भ्रष्ट और नीहित स्वार्थ से ओत-प्रोत हैं कि उसका लाभ सिर्फ भ्रष्ट लोगों को ही मिल रहा है. इसका मात्र छोटा सा उदाहरण है- बैंक लोन की व्यवस्था. कार लोन और बाइक लोन की ब्याज दरें देखिए और आम आदमी अपनी आजीविका के लिए, शिक्षा के लिए अथवा आवास के लिए यदि बैंक से लोन ले रहा हो तो उसकी ब्याज दरों पर नजर डालिए.
इसके अलावा देश में पेट्रोलियम पदार्थो की खपत की ओर देखिए. देश में इसकी बढ़ती मांग पूरी करने के लिए कच्च तेल, पेट्रोल और डीजल आयात करना पड़ रहा है. कहने को इस पर भारी सब्सिडी देकर इसे सस्ता बनाए रखने का ढोंग किया जाता है. दूसरी ओर कूकिंग गैस, पेट्रोल और डीजल पर करों का बोझ बढ़ाया जा रहा है. इससे इससे न केवल आवश्यक उपभोक्ता सामग्री महंगी होती जा रही है, बल्कि जन जीवन भी प्रभावित हो रहा है. सरकार के लिए जैसे शराब राजस्व उगाही का अच्छा साधन है और जैसे वह शराब बंदी का ढोंग करते हुए शराब की खपत बढ़ाने में लगी रहती है, उसी तरह इन पेट्रोलियम उत्पादों का खपत बढ़ाने का उपाय करती रहती है. कारों और बाइकों की जरूरत पब्लिक ट्रांसपोर्ट के बजाय आज दिखावा और लग्जरी के लिए अधिक हो गया है. कार बनाने वाली विदेशी कंपनियों को सस्ते दर पर भूमि एवं अन्य साधन सुविधा उपलब्ध कराने और उनकी उत्पादित कारों को बेचवाने के लिए हर तरह की सुविधा उपलब्ध कराई जा रही है. क्या देश को इन कारों की आज इतनी जरूरत है? इसके बदले पब्लिक ट्रांसपोर्ट सिस्टम को बढ़ाने के उपाय क्या नहीं होने चाहिए? देश में अधिकाधिक बसें, मिनी बसें, आवश्यक उपभोक्ता सामग्री को देश के एक कोने से दूसरे कोने तक आसानी से समय पर उपलब्ध कराने के लिए ट्रकों के उत्पादन को अधिकाधिक बढ़ावा देने की जरूरत नहीं हैं? कारें आम आदमी के उपभोग की वस्तु नहीं हैं. इन की खरीद के लिए कम ब्याज दरें क्यों?
आज देश में जो भी ट्रकें बन रहे हैं, उनकी भार वाहक क्षमता पहले से कहीं अधिक है. लेकिन उन्हें अपनी क्षमता के अनुरूप माल ढुलाई करने की छूट देश में नहीं है. उस पर रोक है. यदि ये ट्रकें अपनी क्षमता के अनुसार माल ढुलाई करने लग जाएं तो उपभोक्ता सामग्रियां, जो ये एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचाती हैं, वह सस्ती हो सकती है. क्योंकि कम माल लेकर चलने से उस माल की कीमत में ट्रक भाड़ा जितना जुटता है, वह कम हो सकता है.
यह सब छोटे उदाहरण हैं, जिससे समझा जा सकता है कि हमारी सरकार की नीतियां किस कदर जन विरोधी हैं. ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जिससे यह पता चलता है कि सरकार केवल भ्रष्ट तंत्र की पोषक बनी हुई है.
-कल्याण कुमार सिन्हा
 
 
 
शासन और कुशासन
इतिहास इस बात का गवाह है कि दुनिया के बड़े और अत्यंत शक्तिशाली साम्राज्य केवल इसलिए ढह गए, क्योंकि शासक ने यह समझने की जुर्रत नहीं की कि उसकी जनता में उपजा असंतोष का कारण भ्रष्टाचार में आकंठ डूबा उसका शासन कुशासन में तब्दील हो चुका है.
यूरोप की आज की प्रगति और पश्चिमी देशों की समृद्धि के पीछे केवल वह सुसाशन ही है, जिसने न केवल समाज में नैतिक मूल्यों को प्रतिष्ठा दिलाई, बल्कि आम जनता में सहअस्तित्व की भावना को इस कदर बलवति कर दिया कि आज वहां का समाज तमाम मानवाधिकार ही नहीं, मानवेत्तर प्राणियों और पर्यावरण के प्रति अत्यधिक संवेदनशील बन गया है. इसी के पीछे-पीछे उन देशों के समाज में सुख-समृद्धि और ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र का उल्लेखनीय विन्यास भी हुआ है.
ऐसा नहीं है कि पश्चिमी देशों का समाज भ्रष्टाचार से मुक्त हो गया है, अथवा वहां पूर्व में भ्रष्टाचार जैसी बुराई थी ही नहीं. इतिहास पलटें तो पाएंगे कि पश्चिमी समाज कहीं अधिक भ्रष्ट और दुराचारी शासकों का समाज था. यहां अनेक शक्तिशाली साम्राज्यों का उदय हुआ, लेकिन भ्रष्टाचार और कुशासन जैसी सहोदरा बहनों के तांडव ने उन्हें लील लिया. भ्रष्ट और दुराचारी शासकों से पीड़ित जनता ने भी सबक सीखा और अपने समाज एवं देश को इन बुराइयों से मुक्त करने की दिशा में कदम भी उठाए, उनमें निरंतर सुधार भी किया. परिणाम स्वरूप आज उनका देश और समाज न केवल विकसित राष्ट्रों की श्रेणी में है, बल्कि हमसे कहीं बढ़ कर सुसंस्कृत भी हैं.
-कल्याण कुमार सिन्हा
 

Saturday 2 June 2012

भारतीय भाषाओं में समन्वय की आवश्यकता
भाषाएं जनसंवाद की प्रमुख माध्यम हैं और सामाजिक-आर्थिक विकास की संवाहक भी हैं. इनकी शक्ति को विकास के अन्य घटकों अथवा कारकों से कम नहीं आंका जा सकता. किंतु भाषा की इस ताकत की उपेक्षा लगातार हमारे देश में ही हुआ है.
आजादी के 56 वर्षो बाद भी हमारे राष्ट्र की सामाजिक-आर्थिक विकास की उपलब्धियाँ सामान्य जन तक पहुँचाने का दायित्व अंग्रेजी के कंधों पर डाला जाता रहा है. किंतु अंग्रेजी का दुर्भाग्य यह है कि उसके समर्थकों की ताकतवर लॉबी होने और पिछले सवा सौ वर्षो से सत्ता का समर्थन प्राप्त होने के बावजूद वह इस देश में सर्वव्यापीहोने का अनिवार्य गुणधर्म हासिल नहीं कर पाई. इस कारण एक ओर वह विकास की उपलब्धियाँ देश के सामान्य जन और निचले वर्ग तक पहुँचा पाने में विफल रही है, दूसरी ओर अंग्रेजी के कारण युवकों का एक बहुत बड़े वर्ग को देश के नव निर्माण में कोई प्रभावी भूमिका निभा पाने से वंचित कर दिया गया है. सर्वव्यापकनहीं बन पाई है, लेकिन एक सच्चाई यह भी है हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी अथवा अन्य दूसरी भारतीय भाषा में भी सर्वव्यापकता एवं सर्वग्राह्यता का अभाव है. भाषाएँ जितनी समृद्ध होती हैं, उनका समाज उतना ही सुसंस्कृत, गतिमान और सशक्त होता है. भाषा की समृद्धि उसकी ग्रहणशीलता पर निर्भर होती है. एक भाषा जब अन्य भाषाओं के शब्द और गुणधर्म ग्रहण करती है, तभी वह सर्वसामान्य के लिए स्वीकार्य बनती हैं. साथ ही उसमें सर्वव्यापकता के गुण भी आते हैं. ऐसी सर्वव्यापक भाषाएं ही समाज या राष्ट्र के प्रत्येक वर्ग के साथ सफल संवाद स्थापित कराती हैं और समाज या राष्ट्र के सामाजिक-आर्थिक विकास के लाभ तीव्र गति से सामान्य जन तक भी पहुंचाती हैं.भाषा समन्वयएक सशक्त मार्ग है. भाषा समन्वय की यह अवधारणा देश की संस्कृति को गतिमान बनाने तथा राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता को सुदृढ़ बनाने के साथ-साथ आर्थिक-सामाजिक विकास को भी तीव्रतर करने में सहायक होगी. आधारशिलातैयार करने की जरूरत है. क्या यह संभव नहीं है?विचार मंथनआरंभ करना जरूरी हो गया है. इस दिशा में सोचने की प्रक्रिया आरंभ होते ही जल्द ही कोई सुगम मार्ग भी निकल सकता है. भाषाओं के समन्वय का यह कार्य निम्नलिखित उद्देश्यों की पूर्ति कर सकेगा-राष्ट्रीय भाषा समन्वय आयोग का गठन करें, जो राष्ट्रीय स्तर पर समस्त भारतीय भाषाओं के सामान्य व्यवहार के शब्दों का मानकीकरण कर दे और इन शब्दों को सभी भारतीय भाषाओं में प्रयुक्त करने को बढ़ावा दे. दूरदर्शन एवं अन्य जनसंचार माध्यम इसमें सहायक बन सकते हैं.राज्य भाषा समन्वय आयोगका गठन कर भाषायी समन्वयके कार्य को गति प्रदान करें. राज्य सरकारें अपने पड़ोसी राज्यों की भाषाओं के साथ तालमेल बिठाने की प्रक्रिया को तीव्र बना सकती हैं.भारतीय भाषाओं के समन्वयकी अवधारणा को शामिल करें.
यह तथ्य है कि अंग्रेजी आज तक हमारे देश में
भाषा की सर्वव्यापकता, उसकी ग्रहणशीलता के मामले में अंग्रेजी को इसका उदाहरण माना जा सकता है. समस्त यूरोपीय और एशियाई भाषाओं की शक्ति ग्रहण कर उसने अपने को इतना समृद्ध बनाया है कि आज वह पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति का वाहन बन विश्व भर में छा गई है और हमारे देश की अस्मिता पर कुंडली जमा कर बैठ गई है. इस कारण हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी समेत भारत की सभी पंद्रह राजभाषाएं पंगु ही बनी हुई है. यही कारण है कि देश की तीन-चौथाई जनता देश के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र में निर्णायक भूमिका निभा पाने से अभी तक वंचित है. भाषाओं को समृद्ध, सर्वग्राह्य और सर्वव्यापक बनाने के लिए
भारत में हिन्दी समेत पंद्रह राजभाषाएँ हैं, जिनका अपना समृद्ध साहित्य भंडार है. इन भाषाओं को बोलने वालों की संख्या भी करोड़ों में हैं. भौगोलिक, सामाजिक और धार्मिक जैसी अनेक परिस्थितियाँ हैं, जिनके कारण ये सभी भाषाएँ एक दूसरे के काफी करीब भी हैं. यदि इन सभी भाषाओं को एक दूसरे की शक्ति हासिल हो जाए तो ये अपने आप समृद्ध हो ही जाएँ और सर्वव्यापकता का गुणधर्म में भी इनमें समा सकती है. इसके साथ ही अंग्रेजी का सशक्त विकल्प भी ये बन सकती हैं. लेकिन इसके लिए समन्वय की एक
हमारा विश्वास है कि यह संभव है और ऐसा हो सकता है. जरूरत होगी- एक साधारण सी ईमानदार कोशिश की. आखिर स्वयं हिन्दी भी और उर्दू भी- ऐसे ही समन्वय की ही तो उपज हैं. हिन्दी समेत सभी भारतीय भाषाएं इसी समन्वय की प्रक्रिया का हिस्सा बना दी जाएँ, अर्थात इनकी शक्ति के समन्वय का सुनियोजित प्रयास शुरू किया जाए तो ये सभी भाषाएं न केवल सर्वव्यापी और सर्वग्राह्य बन जाएंगी, बल्कि इस सद्प्रयास के कुछ अन्य ऐसे परिणाम भी सामने आएंगे, जो हमारे देश की एकता और अखंडता को और अधिक मजबूत बनाएंगे, क्षेत्रीय असमानता दूर करने में सहायक होंगे और सभी प्रांतों के अलग अलग भाषा-भाषियों के बीच बेहतर संवाद भी स्थापित करेंगे. यह स्थितियाँ सामाजिक और सांस्कृतिक समन्वय को भी पुष्ट करेंगी. साथ ही व्यापार एवं व्यवसाय के विकास को भी तीव्र और स्वस्थ बनाएंगी.
अब प्रश्न यह उठता है कि भारतीय भाषाओं के समन्वय की प्रक्रिया और दिशा क्या हो, इसका मार्ग क्या हो? देश के बुद्धिजीवियों के लिए भाषायी समन्वय की प्रक्रिया, दिशा और मार्ग ढूंढ़ना और निर्धारित करना एक चुनौती है. इसके लिए
1. सभी भारतीय भाषाएं और अधिक समृद्ध होंगी, क्योंकि एक दूसरे का गुणधर्म और शब्दों को अपनाएंगी. इससे यह सभी सर्वव्यापक और सर्वग्राह्य बन सकें गी,
2. देश के अलग-अलग प्रांतों के भाषा-भाषी मौजूदा संवादहीनता की स्थिति से उबर सकेंगे और भाषायी विद्वेष की भावना समाप्त होगी,
3. देश में एकात्मता की भावना सुदृढ़ होगी, सामाजिक सौहार्द बढ़ेगा और संस्कृति एवं परपंराओं का भी बेहतर समन्वय हो सकेगा,
4. क्षेत्रीय आर्थिक असमानता दूर करने में मदद मिलेगी और आर्थिक-सामाजिक व्यवहार में पैदा हो रही अड़चनें समाप्त होंगी. इससे देश का आर्थिक विकास तीव्र होगा एवं
5. भाषायी अवरोध के कारण आर्थिक उपलब्धियों के न्यायपूर्ण बंटवारे में जो व्यवधान होता है, वह समाप्त होगा. ये उपलब्धियाँ सभी समाज के निचले स्तर तक पहुंचेगी और व्यवसाय एवं व्यापार का दायरा बढ़ेगा.
अब भाषा समन्वय की दिशा, प्रक्रिया और मार्ग की पड़ताल भी हम करें. एक विचारणीय प्रारूप यह भी है-
1. राष्ट्रीय स्तर पर केंद्र सरकार
2. सभी राज्य सरकारें, राज्य भर भी
3. देश के सभी राजनीतिक दल राष्ट्रीय एकता के लिए भाषाओं के समन्वय के महत्व को ध्यान में रख कर अपनी भाषा नीति में
4. सभी भारतीय भाषाओं के साहित्यकार, पत्रकार एवं अन्य क्षेत्र के बुद्धिजीवी अपनी भाषा समृद्ध बनाने और दूसरी भाषाओं से आत्मिक संबंध बढ़ाने के उद्देश्य से अपनी-अपनी रचनाओं में अन्य भारतीय भाषाओं के शब्दों, मुहावरों, कहावतों आदि को उदारता से स्थाना देना आरंत करें एवं
5. सभी भारतीय भाषाओं के साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं अन्य संगठन भी भारतीय भाषाओं के समन्वय की दृष्टि से अपनी भाषा में अन्य भारतीय भाषाओं के शब्दों के प्रयोग को उदारतापूर्वक बढ़ावा दें.
सांस्कृतिक एकता, भाषाओं की रचनाशीलता और उनके बीच सहस्नब्दियों से प्रवाहित अंतर्धारा को सुखाने का जो विश्वासघात हुआ है, उसका संताप आजादी के बाद की चार पीढ़ियां भोग चुकी हैं. इन सभी अवरोधों के बावजूद इन्हीं वर्षो में हिन्दी सहित हमारी सभी प्रादेशिक भाषाओं में विपुल मात्र में साहित्य रचा गया है. उनमें से कुछ लेखन विश्वस्तरीय भी साबित हुआ है. लेखकों, चिंतकों और कलाकारों ने अपनी मौलिक रचनाओं, अनुवादों, फिल्मों तथा रंगमंचों से पूरे परिवेश को समृद्ध किया है. लेकिन यह सारी उपलब्धियाँ अंग्रेजी के मुकाबले हिन्दी सहित अन्य सभी भारतीय भाषाओं को कोई विशेष स्थान नहीं दिला पाया है.
साहित्य, कला और संस्कृति के विकास तथा समन्वय के लिए गठित सरकारी तथा गैर-सरकारी अकादमियों, संस्थानों, पुरस्कारों का योगदान कम नहीं है. इससे जनसंख्या और शिक्षा के विस्तार के साथ हिन्दी तथा दूसरी प्रादेशिक भाषाओं के पाठकों की संख्या और स्वीकार्यता भी बढ़ी है, लेकिन अंग्रेजी का प्रभावी विकल्प बन पाने में अन्य भारतीय भाषाओं की बात तो दूर हिन्दी भी सक्षम नहीं हो पाई है. उल्टे हिन्दी को साम्राज्यवाद का प्रतीक करार देकर अंग्रेजी टिकाए रखने के हर संभव उपाय किए जा रहे हैं. स्थितियाँ ऐसी पैदा कर दी गईं हैं कि हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं के बोलने और पढ़ने वालों में हीनता का बोध लगातार बढ़ रहा है.
यह अत्यंत दुख की बात है कि भाषायी आधार पर आज भी हमारा देश बिखरा सा है और भाषाओं के आधार पर बंटे राज्यों में भी हिन्दी के लिए तो वर्ष में पखवारा और सप्ताह मना कर कर्तव्य की इतिश्री कर ली जाती है. अन्य भारतीय भाषाओं के विकास अथवा समन्वय के संदर्भ में न केवल शासकीय स्तर पर बल्कि जनसामान्य के स्तर पर भी संवादहीनता जैसी स्थिति है. यह स्थिति हमारी राष्ट्रीय एकता के लिए घातक तो है ही, हमारे सामाजिक-आर्थिक विकास का भी अवरोधक है. भाषा समन्वय की अवधारणा सभी भारतीय भाषाओं को समृद्ध, सर्वग्राह्य और सर्वव्यापक बना कर देश की एकता एवं अखंडता को सुदृढ़ बनाने के साथ-साथ आर्थिक-सामाजिक विकास को भी तीव्रतर करेगी. साथ ही अंग्रेजी का बेहतर विकल्प भी बन सकेंगी.

- कल्याण कुमार सिन्हा
नागपुर (महाराष्ट्र).

jharkhand aur cnt kee samasaya

 "कल्याणम"
सी एन टी एक्ट झारखंड के आदिअवासियों के शोसन  का माध्यम बना
झारखंड में सी एन  टी एक्ट की समस्या 
हाल ही में राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष श्री रामेश्वर उरांव का साक्षात्कार रांची के एक हिंदी दैनिक  में  पढ़ कर यही लगा कि आज भी झारखंड के आदिवासियों के साथ उनकी अपनी भूमि के क्रय-विक्रय अधिकार को लेकर कोई भी इमानदार नहीं है. यहां तक कि स्वयं रामेश्वर उरांव भी नहीं. आश्चर्य का विषय यह है कि अब तक किसी ने आदिवासियों की भूमि की खरीद की जांच की मांग किसी ने भी करने की जरूरत महसूस नहीं की है. छोटानागपुर टेनेंसी (सीएनटी) एक्ट, जो कभी आदिवासियों के हितों की रक्षा के लिए बना था, उसका यदि सबसे अधिक गलत फायदा कोई वर्ग उठा चुका है, अथवा उठा रहा है तो वह वर्ग है रामेश्वर उरांव जैसे उन आदिवासी अधिकारियों और उन आदिवासी नेताओं का, जो आरक्षण का लाभ लेकर उच्च पदों तक पहुंचे और अन्य गैरआदिवासी अधिकारियों की तरह भ्रष्टाचार का सहारा लेकर जनता को एवं सरकारी खजाने को लूटा और फिर अपनी इस भ्रष्ट कमाई का बड़ा हिस्सा झारखंड के शहरों, रांची और इसके आस-पास अपने ही आदिवासी भाइयों की जमीन औने-पौने दामों में खरीद ली है.
सीएनटी एक्ट के प्रावधानों के अनुसार आदिवासियों की जमीन कोई आदिवासी ही खरीद सकता है और खरीदने वाला आदिवासी भी अपनी जमीन बेचने वाले आदिवासी के गांव अथवा पंचायत क्षेत्र का ही होना चाहिए. जमीन बेचने के इस बंधन के कारण आदिवासियों को अपनी बेसकीमती जमीन वैसे व्यक्ति को ही बेचना पड़ता है, जो उसके गांव का है अथवा उसके पंचायत क्षेत्र का और जिसके पास खरीदने की क्षमता हो. रामेश्वर उरांव जैसे हजारों आदिवासी अधिकारी ऐसे मौके की तलाश में रहते हैं और जिस किसी भी आदिवासी ने मजबूरीवश अपनी जमीन बेचनी चाही तो बस उनकी मजबूरी का फायदा उठा कर उनसे औने-पौने दाम देकर ये लोग उनकी जमीन खरीदते रहे हैं.
ऐसे अनेक उदाहरण हैं. बड़े आदिवासी अधिकारी और आदिवासी नेता झारखंड में शुरू से यही सब करते आए हैं. आदिवासियों में ही ये दोनों वर्ग आज भी गरीब भोले-भाले आदिवासियों को लूटने वाले सबसे बड़े लुटेरे बने हुए हैं.
इन बड़े आदिवासी अधिकारी और आदिवासी नेताओं ने पिछले तीस-चालीस वर्षो में रांची और झारखंड के शहरों के आस-पास जिन-जिन आदिवासियों से जमीनें खरीदी हैं, उनकी कोई जांच कराने की मांग तो उठा कर देखे. कम से कम आज भी कोई आदिवासी नेता तो इस मांग को लेकर कभी भी सामने कत्तई नहीं आएगा.
जब कभी झारखंड में कोई विकास योजना की शुरुआत हुई, उसके पीछे लंबा आंदोलन चला. इस बीच आदिवासी नेताओं और अधिकारियों ने संबंधित क्षेत्र के आदिवासियों को सरकार द्वारा जमीन छीने जाने का डर दिखा कर उनकी जमीनें औने-पौने दामों में स्वयं खरीद लीं. बाद में सरकार के साथ सौदेबाजी कर और अधिग्रहण होने वाली जमीन की मुआवजा राशि बढ़वा कर, उन अधिगृहीत भूमि की बढ़ी हुई कीमत सरकार से बटोर कर मालामाल हो गए. मामला चाहे स्वर्णरेखा बहुद्देशीय योजना की रही हो या पारस जलाशय योजना की, अथवा झारखंड (पूर्व उत्तरी और दक्षिणी छोटानागपुर) के किसी भी जिले की, सभी परियोजनाओं के विरोध के बाद संबंधित आदिवासी नेता यही खेल खेलते रहे हैं और इसमें भ्रष्ट आदिवासी अफसर भी बहती गंगा में अपने हाथ धोते रहे हैं.
आज अनेक ऐसे उच्च शिक्षा प्राप्त आदिवासी युवक हैं, जो नौकरी न कर, व्यावसाय या उद्योग के क्षेत्र में कदम रखना चाहते हैं. उनके पास उनकी बेसकीमती जमीन भी है, जिसे बैंकों में गिरवी रखकर वे बैंक लोन लेना चाहते हैं. अथवा रांची जैसे शहर में अपने पुराने मकान के नवीकरण के लिए लोन लेना चाहते हैं, लेकिन सीएनटी एक्ट के प्रावधानों के कारण उन्हें कोई बैंक कर्ज नहीं दे सकता. ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएंगे, जिससे यह साफ हो जाएगा कि जिला उद्योग केंद्रों के माध्यम से अनेक आदिवासी युवक अपनी लघु इकाई के लिए बैंक लोन लेने में विफल रहे.
रांची शहर के अल्बर्ट एक्का चौक पर फिरायालाल की बिल्डिंग है. उसके पीछे और आस-पास का इलाका चरडी गांव हुआ करता था. लाइन टैंक तालाब आदिवासियों की है. चरडी गांव के आदिवासी आज भी वहीं रहते हैं. वहां की जमीनें उनकी हैं, जिनकी कीमत आज के बाजार दर के हिसाब से कम से कम 50 हजार रुपए प्रति वर्गफुट तो होनी ही चाहिए. ऐसी कीमती जमीन के मालिक वहां के आदिवासी आज कैसी जिंदगी जी रहे हैं, यह भी केस स्टडी’ का विषय है.
झारखंड में कोई निजी क्षेत्र का अथवा सार्वजनिक क्षेत्र का भी कोई बड़ा उद्योग आजादी के बाद नहीं आ पाया, क्योंकि निजी क्षेत्र के सामने भूमि अधिग्रहण बड़ी समस्या थी. इसमें कोई शक नहीं कि पूर्व में सार्वजनिक क्षेत्र के लिए भूमि अधिग्रहण के कारण हजारों आदिवासी भूमिहीन बन कर रह गए. भारी इंजीनियरी निगम बना तो उस क्षेत्र के हजारों आदिवासियों को जो मुआवजा मिला, उसका उचित प्रबंध कर पाने की समझ नहीं होने के कारण हमने हजारों आदिवासियों को जमींदार से भूमिहीन और रिक्शा चालक बनते देखा है. महिलाएं दूसरे के घरों में नौकरानी बन चौका-बरतन कर जीवन यापन करने को मजबूर हो गईं. आज उनके लिए कोई नहीं सोचता. भारी इंजीनियरी निगम डूब रहा है. कोई यह मांग नहीं उठाता कि आदिवासियों की वहां की अधिगृहीत बेकार पड़ी जमीन उन्हें वापस लौटा दी जाए.
बोकारो स्टील प्लांट के लिए भूमि अधिग्रहण के मामले में भी यही सब हुआ और शिबू सोरेन तो स्वयं इसके गवाह हैं. आदिवासियों के नाम पर मुआवजे के लिए लड़ने वाले उनके अपने साथियों ने भी क्या-क्या गुल वहां खिलाए थे और आदिवासियों को मिली मुआवजे की बड़ी राशि के साथ क्या हुआ, इसके तो वे स्वयं गवाह रहे हैं.
ऐसे एक नहीं, झारखंड में ऐसे हजारों प्रसंग हैं. कोई आदिवासी नेता इस बारे में नहीं सोचता. रामेश्वर उरांव भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी रहे हैं. उन्होंने भी स्वीकार किया है कि रांची में ससुराल होने का फायदा उठा कर उन्होंने भी बरियातु इलाके में आदिवासियों की जमीन हड़पी है.
ऐसे ही आदिवासी नेता हुआ करते थे थियोडोर बोदरा, उन्होंने भी बरियातु क्षेत्र में स्कूल खोलने के नाम पर आदिवासियों से मिट्टी के मोल उनकी जमीन हथिया रखी थी. कुछ वर्षो बाद वही जमीन जब अपनी बेटियों में बांटने के लिए उपायुक्त, रांची से उन्होंने अनुमति मांगी थी. जिन आदिवासियों को ठग कर उन्होंने वह जमीन हथियाई थी, उन्हें जब पता चला और उन्होंने जब लिखित रूप से उपायुक्त, रांची के सामने बातें रखीं तब यह पोल खुली. धनबाद के दैनिक आवाज’ में यह समाचार छपा और बोदरा साहब के खिलाफ आवाजें उठनीं शुरू हुईं, तब पता चला कि ऐसी अनेक भूमि में ही नहीं, आदिवासियों के अनेक मामलों में वे लिप्त रहे हैं. उस वक्त वे पटना हाईकोर्ट के रांची बेंच में वे स्टैंडिंग काउंसिल के सदस्य हुआ करते थे. जब बात आगे बढ़ने लगी तो हृद्याघात के कारण वे स्वर्ग सिधार गए. ऐसे अनेक उदाहरण हैं. जिनसे यह साबित हो जाएगा कि यह सीएनटी एक्ट आज खुद आदिवासियों के लिए घातक बना हुआ है और उनके विकास के सबसे बड़े प्रतिरोधों में से एक है.
इस सीएनटी एक्ट का फायदा उठाने में गैर आदिवासी भी पीछे नहीं रहे हैं. ऐसे हजारों गैरआदिवासी मिल जाएंगे, जिन्होंने आदिवासियों की जमीनें हड़पने के लिए आदिवासियों युवतियों से फर्जी विवाह रचाया अथवा उन्हें रखैल (रखनी) बना लिया और उनके नाम पर आदिवासी जमीन मिट्टी के मोल खरीदते रहे. बाद में उनसे पैदा उनके बेटे-बेटियों को अलग रख उन्हें पालते रहे और उनके नाम पर भी जमीन का धंधा करते रहे हैं.
आज ये डर दिखाते हैं कि सीएनटी एक्ट में संशोधन कर गैरआदिवासियों को भी आदिवासियों की जमीन खरीदने की छूट दे दी जाएगी तो आदिवासियों का अस्तित्व ही संकट में पड़ जाएगा. यह हौवा खड़ा कर न केवल आदिवासियों को बेवकूफ बनाया जा रहा है, बल्कि उनकी लाचारी का फायदा भी उठाया जा रहा है.
लगातार सुनने में आता रहा है कि सीएनटी एक्ट को लेकर और आदिवासियों की जमीन की रक्षा के नाम पर आंदोलन किया जा रहा है. लेकिन आदिवासियों को यह समझ में नहीं आ रहा कि उनके ये आदिवासी नेता इसकी आड़ा में अपनी ही रोटियां सेंकने में लगे हैं.
झारखंड पृथक राज्य का आंदोलन जब 1980 के दशक में जोर पकड़ा तो उसके पीछे गैरआदिवासियों का समर्थन इस आधार पर आंदोलन को मिला था कि झारखंड राज्य में गैरआदिवासियों को भूमि संबंधी अधिकार में सीएनटी एक्ट को आड़े नहीं आने दिया जाएगा. तत्कालीन आदिवासी नेताओं में एन.ई. होरो, कार्तिक उरांव, बागुन सोम्बरुई आदि ने अनेक बार इस बात पर जोर दिया था कि गैरआदिवासियों को भूमि खरीद में सीएनटी एक्ट आड़े नहीं आने दिया जाएगा. दैनिक आज’ के रांची संस्करण में छपे अपने एक साक्षात्कार में बागुन सोम्बरुई ने साफ कहा था कि झारखंड राज्य बना तो सीएनटी एक्ट बदल दिया जाएगा.
आज महाराष्ट्र में आदिवासियों की जमीन संबंधी महाराष्ट्र भूमि राजस्व अधिनियम 1966 की धारा 36(अ) को शिथिल कर दी गई है. इसमें आदिवासियों की जमीन खरीदने से पहले उनके लिए पर्यायी व्यवस्था करने का प्रावधान कर दिया गया है. यह सब आदिवासी हितों की रक्षा के उद्देश्य से किया गया है. अब महाराष्ट्र के आदिवासी अपनी जमीन बाजार मूल्य पर बेच कर अतिरिक्त सुरक्षा पाने के अधिकारी बन गए हैं.
लेकिन झारखंडी आदिवासी नेता और आदिवासी अधिकारी केवल अपने हितों की रक्षा अर्थात आदिवासियों को आदिवासी के नाम पर लूटने के अपने हितों की रक्षा के लिए परेशान हैं.
-कल्याण कुमार सिन्हा,
नागपुर, महाराष्ट्र.
मो. नं.- 09822689134.

Friday 1 June 2012

kalyanam

मैंने आज शनिवार दिनांक २ जून २०१२ को अपने ब्लॉग "कल्याणम" का श्रीगणेश  किया  है. "कल्याणम" में मुख्य रूप से सम-सामयिक घटनाओं से सम्बंधित आलेख और अपने विचारों को प्रस्तुत करने की मेरी कोशिश होगी.