Sunday 30 September 2012

सोशल मीडिया से बढ़ते खतरे


लन्दन की एक अदालत द्वारा ललित मोदी के खिलाफ दिया गया फैसला सोशल मीडिया के अतिरेकियों के लिए कड़ी चेतावनी है. आईपीएल के पूर्व आयुक्त ललित मोदी ने वर्ष 2010 में ट्विटर पर न्यूजीलैंड के क्रि केटर क्रि स केयर्न्‍स पर मैच फिक्सिंग का आरोप लगाया था. तेज गेंदबाज केयर्न्‍स ने ललित मोदी पर लन्दन में मानहानि का मुकदमा दर्ज कर दिया, जिसका निर्णय 27 मार्च 2012 को आया है. लन्दन के उच्च न्यायालय ने क्रि स क्रेयन्स की दलील को स्वीकार करते हुए ललित मोदी को चार लाख नब्बे हजार पौंड का मुआवजा अदा करने का आदेश दिया.
सोशल नेटवर्किग ने दुनिया में एक अलग समाज की रचना कर दी है. विश्व के करीब सात अरब लोगों में से 1.2 अरब लोग इन्टरनेट का इस्तेमाल करते हैं. उसमें से तकरीबन 82 फीसदी लोग सोशल नेटवर्किग के माध्यम से एक दूसरे से अपने विचार बांटते हैं. भारत में करीब साढ़े चार करोड़ लोग सोशल नेटवर्किग से जुड़े हुए हैं और हर एक साल बाद इसमें 30 फीसदी नए लोग जुड़ जाते हैं. इसका इस्तेमाल करने वालों की बढ़ती हुई संख्या के साथ ही इसके दुरूपयोग करने वालों की तादाद भी बढ़ती जा रही है.
एक दूसरे पर कीचड़ उछालना तो अब आम बात है. व्यापक पैमाने पर देश की सुरक्षा के लिए भी खतरे पैदा किए जाने लगे हैं. कोई सन्देह नहीं कि सोशल मीडिया का इस्तेमाल करने वालों को वही अधिकार हासिल हैं, जो प्रिन्ट मीडिया या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े लोगों को हैं, इसीलिए सोशल मीडिया पर भी वही पाबंदियां लगाई जा सकती हैं, जो अभिव्यक्ति के दूसरे माध्यमों पर लगाई जाती हैं. उन्हें भी संविधान के अनुच्छेद 19(1) अ के अन्तर्गत अभिव्यक्ति का अधिकार हासिल है. इसलिए इस अधिकार पर संविधान के अनुच्छेद 19(2) में दर्ज आधारों पर प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है. मानहानि से लेकर देशद्रोह तथा लोक शान्ति भंग करने जैसे मामलों में सोशल मीडिया से जुड़े मुल्जिमों के ऊपर उसी तरह फौजदारी मुकदमे दर्ज हो सकते हैं. इसके अलावा इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी एक्ट के अध्याय 11 में तकरीबन 18 साइबर अपराधों का वर्णन है, जिसके आधार पर दोषी लोगों को दण्डित किया जा सकता है. दीवानी अदालतों में भी मुकदमा दर्ज करके गलती करने वाले से उसी तरह से मुआवजा वसूला जा सकता है, जैसे दूसरे दीवानी मामलों में होता है. ललित मोदी के खिलाफ दिया गया निर्णय इसका ताजातरीन उदाहरण है.
सोशल मीडिया के दुरूपयोग से निपटने का एक तरीका तो यह है कि सरकार या अन्य एजेंसियों द्वारा सम्बिन्धत वेबसाइटों को समय-समय पर निर्देश जारी करके इस तरह की आपित्तजनक सामग्री को हटाने को कहती है. सरकार को इस तरह का निर्देश जारी करने का अधिकार है और यदि सोशल मीडिया से जुड़े हुए लोगों को यह गैर-कानूनी लगता है, तो उन्हें इसको चुनौती देने का अधिकार है.
सोशल मीडिया का सबसे जटिल पहलू यह है कि लोग एक-दूसरे से इस तरीके से जुड़े होते हैं कि इसके कुप्रभावों का अंदाजा नहीं लग पाता और जब तक जानकारी मिलती है, तब तक काफी नुकसान हो चुका होता है. आतंकी और आपराधिक गतिविधियों पर अंकुश लगाने की नीयत से इन पर प्रकाशन पूर्व सेंसरशिप जैसी व्यवस्था करने का भी सुझाव दिया गया. चीन ने इस दिशा में काफी हद तक सफलता भी पाई है, लेकिन लोकतांत्रिक देशों का ताना-बाना अलग होता है, इसलिए हर काम को संविधान की कसौटी पर परखना जरूरी होता है. पारम्परिक तौर पर अभिव्यक्ति की आजादी पर पूर्व सेंसरशिप नहीं लगाई जा सकती. प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के मामले में यह सिद्धान्त पूरे तौर पर स्थापित हो चुका है. फिल्मों को इसका अपवाद जरूर रखा गया. के.ए. अब्बास बनाम भारत संघ के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फिल्मों की सेंसरशिप को जायज ठहराया था. अदालत ने कहा था कि फिल्में ऐसा माध्यम हैं, जो लोगों के मन-मिस्तष्क पर गहरा असर डालती हैं तथा एक बार समाज के बीच वितरित हो जाने के बाद उन्हें वापस लेना सम्भव नहीं हो सकता. अत: उस सम्भावित खतरे से बचने के लिए फिल्मों पर सेंसरशिप की जा सकती है. सोशल मीडिया के मामले में भी इसी आधार पर पाबंदियां लगाने का सुझाव दिया जा रहा है. इसके लिए इन्टरनेट कम्पनियों से ऐसा ढांचा विकिसत करने का सुझाव है, जिसमें प्रकाशित की जाने वाली सामग्री किसी दूसरे व्यक्ति के पास पहुंचने से पहले उसकी जांच की जा सके. सोशल मीडिया की आजादी के झंडाबरदार इसका विरोध कर रहे हैं.
इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी एक्ट की धारा 79 में सूचनाओं का आदान-प्रदान करने वाले इन्टरमीडियरीज को कुछ मामलों में सुरक्षा प्रदान की गई है. इसमें कहा गया है कि सूचना का आदान-प्रदान का माध्यम बनने वाले इन्टरमीडियरीज यदि केन्द्र सरकार के निर्देशों का पालन करने तथा अपने कर्त्तव्यों के निर्वहन में सम्यक सावधानी बरतते हैं, तो वे दूसरों द्वारा प्रकाशित आपित्तजनक सामग्री के लिए दोषी नहीं माने जाएं. केन्द्र सरकार द्वारा 11 अप्रैल 2011 को जारी अधिसूचना में सम्यक सतर्कता को परिभाषित करने की कोशिश की गई है. इसके नियम 3(3) में इण्टरमीडियरी से अपेक्षा की गई है कि वह जानबूझकर ऐसी कोई सूचना प्रकाशित नहीं करेगा या सम्प्रेषण के लिए स्वीकार नहीं करेगा, जो देश की अखण्डता के विरुद्ध हो गया, जिसका प्रकाशन विधि विरुद्ध हो. इसके अलावा नियम 3(4) में इण्टरमीडियरी से यह भी अपेक्षा की गई है कि स्वयं जानकारी होने या किसी अन्य द्वारा सूचना देने के 36 घण्टे के अन्दर नियम 3(2) में प्रतिबिन्धत सूचना को हटाएगा.
बेशक, सोशल मीडिया का दुरूपयोग रोकने के लिए हमारे देश में कानूनी ढांचा उपलब्ध है, किन्तु उसका सम्यक व न्यायपूर्ण उपयोग करने की आवश्यकता है, ताकि अभिव्यक्ति की आजादी और सरकारी नियंत्नण में सामंजस्य बना रहे. सरकार के लिए यह चुनौती है और उसकी परीक्षा भी.

प्रोफेसर हरबंश दीक्षति
वरिष्ठ विधि विशेषज्ञ व प्राचार्य

(साभार : ‘रफ्तार.कॉम’ सर्च इंजन)

Monday 10 September 2012

जीत ली जंग


फिर दिखी सत्याग्रह की ताकत

मध्य प्रदेश के खंडवा जिले के घोघल गांव में नर्मदा नदी में पिछले 17 दिनों से जल सत्याग्रह पर बैठे आंदोलनकारियों की मांगों और समस्याओं को सुलझाने की दिशा में सोमवार को प्रदेश सरकार को अपनी जिम्मेदारी का अहसास हुआ और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने समस्याओं को 90 दिनों में सुलझाने के लिए एक पांच सदस्यीय उच्चस्तरीय समिति गठित करने की सोमवार को घोषणा की. इसके साथ ही जल सत्याग्रहियों ने अपना आंदोलन समाप्त कर दिया है.
इससे पूर्व शनिवार को मुख्यमंत्री की ओर से मिलने गए दो मंत्रियों को सत्याग्रहियों ने बैरंग वापस लौटा दिया था. उन्होंने आंदोलनकारियों से दो दिनों का समय मांगा था और अपना आंदोलन समाप्त करने की शर्त उनके सामने रखी थी.
आंदोलनकारियों की एकजुटता और अपने प्रति हो रहे अन्याय के खिलाफ उनका यह संघर्ष अद्भुत रहा और तमाम लोकतांत्रिक तौर-तरीकों पर आस्था रखने वालों के लिए अनुकरणीय बन गया है. निश्चित रूप से यह आंदोलन काबिले तारीफ रहा. सुदूर ग्रामीण क्षेत्र की हमारी जनता ने उसी साहस और दृढ़ता को अपनाते हुए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के सत्याग्रह की प्रेरक ताकत से आज एक बार फिर देश और दुनिया को परिचित करा दिया है.
पिछले माह 25 अगस्त से पूरे सत्रह दिन तक घोघलगांव और उसके आस-पास के 51 ग्रामीण, जिनमें वृद्ध पुरुषों के साथ-साथ महिलाएं भी शामिल थीं, नर्मदा में दिन के 22 घंटे गर्दन और नाक तक पहुंचते जल स्तर का सामना करते रहे. वे नदी में ही डटे रह कर 20 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में सिंचाई के लिए और 120 मेगावाट बिजली पैदा करने के लिए बांध में जल भराव की सरकारी जिद का मुकाबला करते रहे. सत्याग्रही अपने विस्थापन की समस्या के निदान की मांग उच्चतम न्यायालय के फैसले के अनुरूप करने के लिए यह सत्याग्रह कर रहे थे.
गंदे पानी में रह कर आंदोलन करने से उनके पूरे शरीर की क्या गत बन रही थी और उनके स्वास्थ्य पर कितना बुरा असर पड़ता रहा, इसकी उन्होंने जरा भी परवाह नहीं की. अंतत: उन्होंने प्रदेश की भाजपा सरकार को इस बात के लिए विवश कर दिया कि वह उनकी पीड़ा समङो एवं संवेदनशीलता का परिचय दे. उनकी न्यायसंगत मांग पूरी करे. सूबे की शिवराज सरकार अब तैयार हो गई है कि वह विस्थापित हो रहे आंदोलनकारियों को जमीन के बदले जमीन देगी और बांध का जल स्तर 189 मीटर तक ही रखा जाएगा.
खंडवा का यह ग्राम घोघल गांव एक सप्ताह से देश में चर्चा का विषय बन गया था. यहां 51 लोगों में महिलाएं और बुजुर्ग भी थे, पिछले 17 दिनों से लगातार पानी में बैठकर शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन कर रहे थे. पानी में रहने से उनकी चमड़ी गलने लगी थी. पानी से संक्र मण हो रहा था और पानी बढ़ने से डूबने का खतरा भी बना हुआ था. नाउम्मीदी से मुरझा रहे सत्याग्रहियों के चेहरे जीत से खिल गए. छोटे से गांव के कमजोर समङो जानेवाले मजबूत इरादों के लोगों ने अंतत: जीत दर्ज कर ली.
: कल्याण कुमार सिन्हा