Thursday 29 November 2012

देश की भाषाओं की शक्ति और श्रेष्ठता पहचानने की जरूरत

देश की भाषाओं की शक्ति और श्रेष्ठता
पहचानने की जरूरत
भाषाएँ जनसंवाद की माध्यम हैं, सामाजिक-आर्थिक विकास की संवाहक हैं और इसके साथ ही इनमें समाज और संस्कृतियों को निकट लाने और उनमें एकात्मता के भाव भरने की भी अद्भुत ताकत है. इनकी इस ताकत को विकास एवं सामाजिक समन्वय के अन्य घटकों अथवा कारकों से कम नहीं आंका जा सकता. भारतीय समाज की अनेक विशेषताओं में यह एक महत्वपूर्ण विशेषता है कि हमारा यह समाज बहुभाषिक भी है. किंतु अपनी भाषाओं की इस ताकत का सदुपयोग हम नहीं कर पाये हैं.
भारतीय भाषाओं की शक्ति और श्रेष्ठता की पहचान कर पाने में हमारी विफलता भी हमारे विकास की गति को अवरुद्ध कर रहा है. केंद्र सरकार और राज्यों के बीच भी संपर्क भाषा अंग्रेजी को बना दिए जाने से निजी क्षेत्र और वाणिज्य-व्यापार के क्षेत्र में भी अंग्रेजी ही संपर्क भाषा बन गई है.
यह तथ्य है कि समर्थकों की ताकतवर लॉबी होने और पिछले सवा सौ वर्षो से सत्ता का समर्थन प्राप्त होने के बावजूद अंग्रेजी भी आज तक हमारे देश में सर्वव्यापकनहीं बन पाई. लेकिन एक सच्चाई यह भी है हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी अथवा अन्य दूसरी भारतीय भाषा में भी सर्वव्यापकता एवं सर्वग्राह्यता का अभाव है.
भाषाएँ जितनी समृद्ध होती हैं, उनका समाज उतना ही सुसंस्कृत, गतिमान और सशक्त होता है. भाषा की समृद्धि उसकी ग्रहणशीलता पर निर्भर होती है. एक भाषा जब अन्य भाषाओं के शब्द और गुणधर्म ग्रहण करती है, तभी वह सर्वसामान्य के लिए स्वीकार्य बनती हैं. साथ ही उसमें सर्वव्यापकता के गुण भी आते हैं. ऐसी सर्वव्यापक भाषाएँ ही समाज या राष्ट्र के प्रत्येक वर्ग के साथ सफल संवाद स्थापित कराती हैं और समाज या राष्ट्र के सामाजिक-आर्थिक विकास के लाभ तीव्र गति से सामान्य जन तक भी पहुँचाती हैं.
भाषा की सर्वव्यापकता, उसकी ग्रहणशीलता के मामले में अंग्रेजी को इसका उदाहरण माना जा सकता है. समस्त यूरोपीय और एशियाई भाषाओं की शक्ति ग्रहण कर उसने अपने को इतना समृद्ध बनाया है कि आज वह पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति का वाहन बन विश्व भर में छा गई है और हमारे देश की अस्मिता पर कुंडली जमा कर बैठ गई है. इस कारण हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी समेत भारत की सभी पंद्रह राजभाषाएँ पंगु ही बनी हुई है. यही कारण है कि देश की तीन-चौथाई जनता देश के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र में निर्णायक भूमिका निभा पाने से अभी तक वंचित हैं. भाषाओं को समृद्ध, सर्वग्राह्य और सर्वव्यापक बनाने के लिए भाषा समन्वयएक सशक्त मार्ग है. भाषा समन्वय की यह अवधारणा देश की संस्कृति को गतिमान बनाने तथा राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता को सुदृढ़ बनाने के साथ-साथ आर्थिक-सामाजिक विकास को भी तीव्रतर करने में सहायक होगी.
भारत में हिन्दी समेत पंद्रह राजभाषाएँ हैं, जिनका अपना समृद्ध साहित्य भंडार है. इन भाषाओं को बोलने वालों की संख्या भी करोड़ों में हैं. भौगोलिक, सामाजिक और धार्मिक जैसी अनेक परिस्थितियाँ हैं, जिनके कारण ये सभी भाषाएँ एक दूसरे के काफी करीब भी हैं. यदि इन सभी भाषाओं को एक दूसरे की शक्ति हासिल हो जाए तो ये अपने आप समृद्ध हो ही जाएँ और सर्वव्यापकता का गुणधर्म में भी इनमें समा सकती है. इसके साथ ही अंग्रेजी का सशक्त विकल्प भी ये बन सकती हैं. लेकिन इसके लिए समन्वय की एक आधारशिलातैयार करने की जरूरत है. क्या यह संभव नहीं है?हमारा विश्वास है कि यह संभव है और ऐसा हो सकता है. जरूरत होगी- एक साधारण सी ईमानदार कोशिश की. आखिर स्वयं हिन्दी भी और उर्दू भी- ऐसे ही समन्वय की ही तो उपज हैं. हिन्दी समेत सभी भारतीय भाषाएँ इसी समन्वय की प्रक्रिया का हिस्सा बना दी जाएँ, अर्थात इनकी शक्ति के समन्वय का सुनियोजित प्रयास शुरू किया जाए तो ये सभी भाषाएँ न केवल सर्वव्यापी और सर्वग्राह्य बन जाएंगी, बल्कि इस सद्प्रयास के कुछ अन्य ऐसे परिणाम भी सामने आएंगे, जो हमारे देश की एकता और अखंडता को और अधिक मजबूत बनाएंगे, क्षेत्रीय असमानता दूर करने में सहायक होंगे और सभी प्रांतों के अलग अलग भाषा-भाषियों के बीच बेहतर संवाद भी स्थापित करेंगे. यह स्थितियाँ सामाजिक और सांस्कृतिक समन्वय को भी पुष्ट करेंगी. साथ ही व्यापार एवं व्यवसाय के विकास को भी तीव्र और स्वस्थ बनाएंगी.

अब प्रश्न यह उठता है कि भारतीय भाषाओं के समन्वय की प्रक्रिया और दिशा क्या हो, इसका मार्ग क्या हो? देश के बुद्धिजीवियों के लिए भाषायी समन्वय की प्रक्रिया, दिशा और मार्ग ढूंढ़ना और निर्धारित करना एक चुनौती है. इसके लिए विचार मंथनआरंभ करना जरूरी हो गया है. इस दिशा में सोचने की प्रक्रिया आरंभ होते ही जल्द ही कोई सुगम मार्ग भी निकल सकता है. भाषाओं के समन्वय का यह कार्य निम्नलिखित उद्देश्यों की पूर्ति कर सकेगा-1. सभी भारतीय भाषाएँ और अधिक समृद्ध होंगी, क्योंकि एक दूसरे का गुणधर्म और शब्दों को अपनाएंगी. इससे यह सभी सर्वव्यापक और सर्वग्राह्य बन सकेंगी,
2. देश के अलग-अलग प्रांतों के भाषा-भाषी मौजूदा संवादहीनता की स्थिति से उबर सकेंगे और भाषायी विद्वेष की भावना समाप्त होगी,
3. देश में एकात्मता की भावना सुदृढ़ होगी, सामाजिक सौहार्द बढ़ेगा और संस्कृति एवं परपंराओं का भी बेहतर समन्वय हो सकेगा,
4. क्षेत्रीय आर्थिक असमानता दूर करने में मदद मिलेगी और आर्थिक-सामाजिक व्यवहार में पैदा हो रही अड़चनें समाप्त होंगी. इससे देश का आर्थिक विकास तीव्र होगा एवं
5. भाषायी अवरोध के कारण आर्थिक उपलब्धियों के न्यायपूर्ण बंटवारे में जो व्यवधान होता है, वह समाप्त होगा. ये उपलब्धियाँ सभी समाज के निचले स्तर तक पहुँचेगी और व्यवसाय एवं व्यापार का दायरा बढ़ेगा.
अब भाषा समन्वय की दिशा, प्रक्रिया और मार्ग की पड़ताल भी हम करें. एक विचारणीय प्रारूप यह भी है-

1. राष्ट्रीय स्तर पर केंद्र सरकार राष्ट्रीय भाषा समन्वय आयोग का गठन करें, जो राष्ट्रीय स्तर पर समस्त भारतीय भाषाओं के सामान्य व्यवहार के शब्दों का मानकीकरण कर दे और इन शब्दों को सभी भारतीय भाषाओं में प्रयुक्त करने को बढ़ावा दे. दूरदर्शन एवं अन्य जनसंचार माध्यम इसमें सहायक बन सकते हैं.
2. सभी राज्य सरकारें, राज्य भर भी
राज्य भाषा समन्वय आयोगका गठन कर भाषायी समन्वयके कार्य को गति प्रदान करें. राज्य सरकारें अपने पड़ोसी राज्यों की भाषाओं के साथ तालमेल बिठाने की प्रक्रिया को तीव्र बना सकती हैं.
3. देश के सभी राजनीतिक दल राष्ट्रीय एकता के लिए भाषाओं के समन्वय के महत्व को ध्यान में रख कर अपनी भाषा नीति में भारतीय भाषाओं के समन्वयकी अवधारणा को शामिल करें.
4. सभी भारतीय भाषाओं के साहित्यकार, पत्रकार एवं अन्य क्षेत्र के बुद्धिजीवी अपनी भाषा समृद्ध बनाने और दूसरी भाषाओं से आत्मिक संबंध बढ़ाने के उद्देश्य से अपनी-अपनी रचनाओं में अन्य भारतीय भाषाओं के शब्दों, मुहावरों, कहावतों आदि को उदारता से स्थाना देना आरंभ करें एवं
5. सभी भारतीय भाषाओं के साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं अन्य संगठन भी भारतीय भाषाओं के समन्वय की दृष्टि से अपनी भाषा में अन्य भारतीय भाषाओं के शब्दों के प्रयोग को उदारतापूर्वक बढ़ावा दें.
हिन्दी सहित हमारी सभी प्रादेशिक भाषाओं में विपुल साहित्य रचे गये हैं. हमारे लेखकों, चिंतकों और कलाकारों ने अपनी मौलिक रचनाओं, अनुवादों, फिल्मों तथा रंगमंचों से सभी भारतीय भाषाओं को समृद्ध किया है. लेकिन यह सारी उपलब्धियाँ अंग्रेजी के मुकाबले हिन्दी सहित अन्य सभी भारतीय भाषाओं को कोई विशेष स्थान नहीं दिला पाया है.
अभी भी समय है कि हम हिन्दी समेत अपने देश की अन्य भाषाओं को जोड़ने की दिशा में गंभीरता से प्रयास करें और इन्हें समृद्ध बना कर अपनी सौ करोड़ की आबादी के स्वर को विश्वमंच पर शक्तिशाली बनाएँ.
अन्य भारतीय भाषाओं के विकास अथवा समन्वय के संदर्भ में न केवल शासकीय स्तर पर बल्कि जनसामान्य के स्तर पर भी संवादहीनता जैसी स्थिति है. यह स्थिति हमारी राष्ट्रीय एकता के लिए घातक तो है ही, हमारे सामाजिक-आर्थिक विकास का भी अवरोधक है. भाषा समन्वय की अवधारणा सभी भारतीय भाषाओं को समृद्ध, सर्वग्राह्य और सर्वव्यापक बना कर देश की एकता एवं अखंडता को सुदृढ़ बनाने के साथ-साथ आर्थिक-सामाजिक विकास को भी तीव्रतर करेगी. साथ ही अंग्रेजी का बेहतर विकल्प भी बन सकेंगी.
-कल्याण कुमार सिन्हा

Friday 23 November 2012

विशाल हृदय, स्नेही अभिभावक बाबूजी

जन्म दिवस 25 नवंबर पर विशेष
वह सही अर्थो में श्रीमंत थे. विशाल हृदय अर्थात बड़े दिल वाले, स्नेही, और समाज के प्रत्येक घटक के लोगों की चिंता करने वाले एक समर्पित समाज सेवी के रूप में उनकी पहचान रही. कांग्रेस पार्टी के विभिन्न उच्च पदों पर, विभिन्न शासकीय संस्थाओं के शीर्ष पदों पर और महाराष्ट्र शासन के दो दशकों तक मंत्री रहे बाबूजी हमेशा अपनी पहचान एक सामाजिक कार्यकर्ता की बनाए रखने में ही गौरवान्वित महसूस करते रहे. उन्होंने अपने जीवन में पद, प्रतिष्ठा, यश, सम्मान अथवा अधिकारिता, जो कुछ भी पाया, उससे बढ़कर उन्होंने महाराष्ट्र को और खास कर विदर्भ को एवं यहां के लोगों को केवल दिया, दिया और दिया ही.
मराठी के महाकवि स्व. सुरेश भट ने बाबूजी स्व. जवाहरलाल दर्डा की स्मृति में 18 दिसंबर 1999 को लोकमतमें प्रकाशित अपने सारासारस्तंभ में कहा है- ‘..आमचे बाबूजी हृदयाने श्रीमंत होते. ते लक्ष्मीपुत्र, लक्ष्मीदास नव्हते. ते खानदानीश्रीमंत नव्हते. पण ते लक्ष्मीपतीहोते! धन फक्त घेण्यासाठीच नव्हे, तर देण्यासाठी सुद्धा असते, हे ते जाणत. खरोखरच आमच्या बाबूजी सारखे बाबूजीच! अशी श्रीमंतविभूति कचितच जन्मते! खानदानीपणा तर वागणुकीने ठरतो.’ (हमारे बाबूजी विशाल हृदय वाले थे. वे लक्ष्मीपुत्र थे, लक्ष्मी के दास नहीं थे. वे खानदानीअमीर नहीं थे. किंतु वे लक्ष्मीपतिथे! वे जानते थे कि धन केवल कमाने (पाने) के लिए ही नहीं, दान के लिए भी होता है. सच्चे अर्थ में हमारे बाबूजी जैसे बाबूजी! ही थे. ऐसे विशाल हृदय (श्रीमंत) व्यक्तित्व विरले ही पैदा होते हैं! आदमी का बड़प्पन उसके आचरण से ही झलकता है.)
25 नवंबर सन् 1997 को मुंबई में उनका अवसान हुआ. यह दिन इस बात का साक्षी बना कि कैसे अपने इस विशाल हृदय राजनेता और सुहृदय अभिभावक सरीखे व्यक्तित्व को खोने से संपूर्ण विदर्भ स्तंभित था. उनका पार्थिव शरीर मुंबई से नागपुर लाया गया. लोकमत भवन परिसर पर उनके निकटवर्ती रहे लोगों के अलावा हजारों की संख्या में जनसमुदाय देर रात तक अपने प्रिय नेता के अंतिम दर्शनार्थ प्रतीक्षारत था. सम्पूर्ण नागपुर जिला ही नहीं विदर्भ के सुदूर क्षेत्रों के लोग उनके निधन की खबर मिलते यहां रात्रि तक पहुंच गए थे. लोकमत भवन में अंतिम दर्शन के लिए रखे उनके पार्थिव पर अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करने को लोग बेताब थे. हर वर्ग और समुदाय के लोग देर रात बाबूजी के अंतिम दर्शन के लिए कतारबद्ध खड़े थे. देर रात उनका पार्थिव उनकी जन्मभूमि यवतमाल के लिए रवाना हुआ.
दूसरे दिन यवतमाल के गांधी भवन में प्रात से ही उनके अंतिम दर्शन के लिए मानो संपूर्ण विदर्भ उमड़ा चला आ रहा था. यवतमाल तो उनकी जन्मभूमि और आरंभिक कर्मभूमि ही थी. जिले के कोने-कोने से लोग अपने प्रिय बाबूजी को श्रद्धांजलि अर्पित करने और उनका अंतिम दर्शन करने आ चुके थे. वहां अकोला, बुलढाणा, वाशिम, अमरावती आदि जिलों के लोगों का भी तांता गांधी भवन में लगा था. गांधी भवन से उनके जन्मस्थल होते हुए उनकी अंत्ययात्र जब दर्डा उद्यान के निकट निर्धारित समाधि स्थल के लिए निकली तो उसमें मानो जनसागर उमड़ता नजर आ रहा था. शहर के तमाम नर-नारी हपने सच्चे हितैषी को अपनी मौन श्रद्धांजलि दे रहे थे. यह बाबूजी के सच्चे श्रीमंत होने का ही नहीं, जन-जन के आदरणीय होने का भी प्रत्यक्ष प्रमाण था. उनकी इस अंत्ययात्र में हर वर्ग, हर समुदाय और हर मजहब के लोग शरीक थे.
बाबूजी दूरद्रष्टा और अत्यंत परिपक्व राजनीतिक विचारधारा के राजनेता थे. कांग्रेस के समाजवादी कार्यक्रमों को शासन में रहकर क्रियान्वित करने के साथ ही उन्होंने देश के विकास के लिए खुली अर्थव्यवस्था और उदारीकरण की जरूरत भी महसूस की थी. उनका स्पष्ट मत था कि
समाजवाद साध्य नहीं, साधन है. यह संतमार्ग है. इस मार्ग से तेजी से परिवर्तन नहीं होगा. बदलती हुई परिस्थिति में परिवर्तन अपरिहार्य हो गया है. ज्ञान, विज्ञान, अनुसंधान, गुणवत्ता और स्पर्धा के दौर में हमें टिकना है तो खुली अर्थव्यवस्था का मार्ग हमें स्वीकार करना ही पड़ेगा.बाबूजी देश के विकास को तीव्रतर करने के हामी थे. उनका मत था कि जब कड़ी मेहनत से इजराइल को मरुस्थल से नंदनवन बनाया जा सकता है तब हमारा देश जो पहले कभी नंदनवन था, उसे अब मरुस्थल बनता हम कैसे देख सकते हैं.उनका कहना था, आजादी के पहले त्याग की जरूरत थी. अब काम की जरूरत है. कड़ी मेहनत और गुणवत्ता की बदौलत ही हम टिक सकते हैं.सन् 1952 में साप्ताहिक लोकमतऔर सन् 1971 में नागपुर से दैनिक लोकमतके प्रकाशन के पीछे उनका मुख्य उद्देश्य समाज को साम्प्रदायिक और प्रतिक्रियावादी ताकतों से बचाना और देश के नवनिर्माण में प्रगतिशील गांधीवादी विचारधारा की महत्ता स्थापित करना था. इस महान उद्देश्य से निकला लोकमतउनकी कर्मठता और दूरदृष्टि से आज राज्य के हर गांव, हर चौपाल की आवाज बन गया है. कुल 13 संस्करणों के साथ आज यह दैनिक समाचारपत्र महाराष्ट्र की धड़कन माना जाने लगा है.महाकवि स्व. सुरेश भट ने करीब से उन्हें देखा और जाना था. उनका कथन है कि
बाबूजी यदि राजनीति में नहीं होते और लोकमतके संपादक नहीं होते तो निश्चय ही वे मराठी के एक बड़े कवि होते.उनका मराठी प्रेम सर्वविदित है. वे बहुत ही अच्छी मराठी बोलते थे. उनका राष्ट्रभाषा हिन्दी से लगाव भी जगजाहिर है. यही कारण था कि सन् 1989 में हिन्दी दैनिक लोकमत समाचारका प्रकाशन नागपुर से और सन् 1992 में औरंगाबाद से आरंभ हुआ. अकोला संस्करण सन् 1999 में शुरू हुआ. अब तो सोलापुर, जलगांव और महाराष्ट्र संस्कारधानी कही जाने वाली पुणो से भी इसका प्रकाशन शुरू हो चुका है. हिन्दी का यह समाचार पत्र लोकमत समाचारअपने कुल पांच संस्करणों के साथ महाराष्ट्र के हिन्दी भाषियों में लोकप्रिय एवं गौरवशाली स्थान बना चुका है. उनकी प्रेरणा ही थी कि सन् 1987 में अंग्रेजी दैनिक
लोकमत टाइम्सपहले औरंगाबाद से और बाद में सन् 1992 में नागपुर से निकलना शुरू हुआ. यह तीनों दैनिक आज महाराष्ट्र की जनता के लिए उनके गांधीवादी आदर्शो और जनचेतना का वाहक बन चुके हैं.
लोकमत पत्र समूहके यह तीनों दैनिक पत्र आज बाबूजी की विचारधारा को अपना कर उनके इच्छा के अनुरूप जनसेवा को ध्येय बना कर कार्य कर रहे हैं.-कल्याण कुमार सिन्हा

Wednesday 21 November 2012

कसाब को फांसी

कसाब को फांसी
26 नवंबर 2008 के मुंबई हमले में संलिप्त आतंकवादियों में से एकमात्र जीवित पकड़े गए अजमल कसाब को अंतत: बुधवार को फांसी दे दी गई. चार बरस पहले पाकिस्तान स्थित आतंकी संगठन लश्कर-ए-तैयबा के 10 आतंकवादियों ने देश की वाणिज्यिक राजधानी पर वहशियाना हमला कर 166 लोगों की जान ले ली थी.
इस हमले की गिरफ्त से मुंबई को मुक्त कराने में 60 घंटे का समय लगा और इस दौरान नौ आतंकियों को मार गिराया गया. दसवां हमलावर अजमल कसाब था. राष्ट्रपति ने गत चार नवंबर को उसकी दया याचिका को ठुकरा दिया था. इन चार वर्षो में पाकिस्तान की कुख्यात सरकारी गुप्तचर एजेंसी आईएसआई प्रायोजित इस वहशी आतंकवादी को भारतीय न्याय व्यवस्था के तहत अपने बचाव का पूर्ण मौका दिया गया किंतु भारतीय जांच एजेंसियों द्वारा न्यायालय में प्रस्तुत तमाम पुख्ता सबूतों के आधार पर न्यायालय ने उसे फांसी की सजा सुनाई. जिसकी पुष्टि देश के उच्चतम न्यायालय ने भी कर दी थी. अंत में उसने दया याचिका राष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत की थी, लेकिन केंद्रीय गृह मंत्रलय और महाराष्ट्र सरकार की अनुशंसाओं के मद्देनजर राष्ट्रपति ने उसकी दया याचिका खारिज कर उसकी फांसी की सजा बरकरार रखी.
इस आतंकी की फांसी पर देश भर में खुशी फैल गई है. सत्तारूढ़ कांग्रेस और आम लोगों ने जहां कसाब की फांसी का स्वागत किया है, वहीं विरोधी दलों ने इसे देर से लिया गया फैसला निरूपित करने से चूक नहीं की है. इंडिया अगेन्स्ट करपशन के नेता एवं सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे ने तो यहां तक कह दिया कि कसाब को चौराहे पर फांसी दी जानी चाहिए थी.
लेकिन अब इससे संतोष कर लेने और खुश हो जाने से काम नहीं चलेगा. इसके साथ ही अब देश को और अधिक सावधान रहने की जरूरत है. इस फांसी की सजा पर पाकिस्तान ने कहा है कि भारत के राष्ट्रपति ने कसाब की दया याचिका खारिज करने में जल्दबाजी की. साथ ही कहा कि पाकिस्तान की जेल में बंद भारतीय नागरिक सरबजीत की दया याचिका पर भी इसका असर पड़ने से इंकार नहीं किया जा सकता है. इससे पूर्व पाकिस्तान ने कसाब की फांसी संबंधी भारत के राजदूत द्वारा सौंपे गए नोटभी स्वीकार करने से भी पहले तो इन्कार कर दिया था. बाद में मेल और फैक्स से नोट भेजे जाने पर उसने स्वीकार किया.
पाकिस्तान के इस रवैये के साथ ही हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि इस आतंकवादी को प्रशिक्षित कर मुंबई भेजने वाले आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तोयबा संस्थापक हाफिज मो. सईद पाकिस्तान में आज भी सम्मानजनक हैसियत प्राप्त है. लश्कर कमांडर जकीउर्रहमान लखवी भले ही पाकी जेल में है, लेकिन उनका प्रभाव सरकार और पाकिस्तानी सेना पर अभी भी बना हुआ है. सरकार और सेना अभी भी इन्हें देश के हीरो सा सम्मान देने से बाज नहीं आ रहे. पाकिस्तानी अदालत में इनके खिलाफ मुंबई हमला से संबंधित मुकदमा मजाक की तरह चल रहा है. इसमें आईएसआई समेत सईद और लखवी के खिलाफ भारत की ओर से दिए गए अनेक पुख्ता सबूतों को पाकिस्तानी हुक्मरान अपर्याप्त बता कर दर किनार करते जा रहे हैं पाकिस्तान का यह रवैया नजरंदाज नहीं जा सकता.
हाल ही में हमारे पूवरेत्तर राज्य के लोग, जो देश के दूसरे हिस्सों बेंगलुरु, चेन्नई, पुणो आदि शहरों में आजिविका कमा रहे हैं अथवा वहां के छात्र, जो इन शहरों में पढ़ाई कर रहे हैं, उन्हें एसएमएस भेज कर जिस तरह दिग्भ्रमित कर उनमें दहशत फैलाने का जो षडयंत्र किया गया, जांच एजेंसियों ने पाया कि उस एसएमएस भेजे जाने का केंद्र पाकिस्तान ही था. अर्थात एक ओर अंतर्राष्ट्रीय दबावों के कारण पाकिस्तान भले ही कुछ झुका नजर आता है, लेकिन ऐसे षडयंत्रों को रोकने का वह कोई उपाय नहीं कर रहा है.
इन सब बातों से पाकिस्तान पर इस बात का भरोसा नहीं किया जा सकता कि वह आतंकवादियों पर अंकुश लगाने और भारत के खिलाफ उनके अभियानों को रोकने की जहमत उठाएगा. वह तो अपनी गुपतचर एजेंसी की इन करतूतों के बचाव में ही ज़ुटा नजर आता है. इसलिए यह नहीं समझ लिया जाना चाहिए कि कसाब को फांसी दे देने से आतंकवादी डर गए हैं और आईएसआई आगे कोई और चाल चलने से बाज आएगा.
-कल्याण कुमार सिन्हा

सूर्योपासना : वैदिक मान्यताएं

सूर्योपासना : वैदिक मान्यताएं
यह मानव शरीर पंच तत्व से बना है. इन पंच तत्वों के पांच देवता हैं. इस कथन की पुष्टि निम्नलिखित श्लोक से होती है-
आकाशस्य घियो विष्णुरगAेश्चेव माहेश्वरी।
वायो, सूर्य, क्षितेरिशो जीवनस्य गणधिप॥
आयुर्वेद के अनुसार शरीर के इन तत्वों में से किसी एक की विकृति से नाना प्रकार के रोग जन्म लेते हैं. इसका वर्णन चरक और सुश्रुत ग्रंथों में है. ऋगवेद के अनुसार सूर्य आत्मा जगतस्थस्थुपश्चअर्थात सूर्य ही ज्योतिरूप विभूषित है. इसका यह भी प्रमाण है
तथ्द्रास्कराय विद्राहे प्रकाशाय धीमाहि तन्नो मानु प्रचोदयात।
ब्रrा, विष्णु और महेश रूपी शक्तित्रयी सूर्य के अंगस्वरूप हैं. अथर्ववेदीय सूर्यापरिषद के अनुसार असावदित्यो ब्रrअर्थात सूर्य ही ब्रrा स्वरूप प्राणी जगत के संचालक हैं. चरक और सुश्रुत ग्रंथ के अनुसार वायु के देवता भी सूर्य हैं.
वैज्ञानिक धरातल के आधार पर इस पृथ्वी पर जीवन का स्नेत भी सूर्य है. सूर्य की अनुपस्थिति में जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती. सूर्य किरण में बहुत ऐसे तत्व हैं, जिससे स्वस्थ जीवन का श्रृजन होता है. उपरोक्त शब्दावली से यह प्रमाणित होता है की सूर्य को एक महत्वपूर्ण तथा शक्तिशाली देवता के रूप में माना गया है.
सूर्य पूजा की पौराणिक परंपरा
वैदिक काल से ही पूजा की परंपरा रही है. पंचमहाभूत, पंचदेवता और पंचोपासना में अधिदेवता स्वरूप गणोश, शक्ति, शिव, विष्णु और सूर्य की परम्परा रही है. वैदिक और पौरणिक साहित्य में त्रिकाल संध्या, जलाजली, जप-तप, व्रत अध्र्यार्पण आदि सहित तांत्रिक उपासना में भी सूर्य पूजा निरंतर स्थापित रही है. डॉ. भगवत शरण उपाध्याय के अनुसार महाभारत के समय से ही सूर्य पूजा की परंपरा रही है. कुषाण सम्राट स्वंय सूर्योपासक थे. इसी प्रकार कनिष्ठ (78ई.) के पूर्वज भी शिव तथा सूर्य के उपासक थे.
भारत के वृहत इतिहास में श्रेनेत्र पाण्डेय ने लिखा है कि गुप्त सम्राटों के समय में सूर्य, विष्णु और शिव की उपासना होती थी. कुमार गुप्त (414-55ई) स्वंय कार्तिकेय के उपासक थे और स्कन्दगुप्त (456-67ई.) बुलन्दशहर के इंद्रपुर में सूर्य मंदिर बनवाया था. हर्षचरित में वर्णित है कि राजा हर्ष की सूर्योपासना चरम थी और वे सूर्य के नियमित उपासक थे. प्रतिहार शासन में भी सूर्य पूजा का वर्णन मिलता है.
लोक आस्था का यह पर्व पौराणिक काल से ही पूरी श्रद्धा और भक्तिभाव से मनाया जाता है. सूर्य की उपासना के इस पर्व का सबसे पहले उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है. ऐसी कई कथाएं प्रचलित हैं जिनमें सूर्य की महिमा और छठ पर्व को करने के विधान बताए गए हैं. विष्णुपुराण, भगवतपुराण, ब्रह्मपुराण में भी छठ पर्व का उल्लेख मिलता ही है. छठ व्रतका इन पुराणों में उल्लेख तो है ही, इसका उल्लेख ऋृगवेद में भी है. इसे लेकर कई कथाएं प्रचलित हैं रामायण काल से लेकर महाभारत काल तक इसका उल्लेख मिलता है.
सूर्यपूजा का महत्व
रामायाण और महाभारत काल में श्री हनुमान के गुरु द्वारा उन्हें व्याकरण की शिक्षा देने तथा कुंती पुत्र कर्ण का नाम केवल सूर्यपुत्र के रूप में आता है, अपितु कर्ण की सूर्य भक्ति का भी वर्णन है. द्रौपदी के अक्षय पात्र और कृष्ण जांबावली के पुत्र साम्ब का कुष्ठ रोग मुक्ति का प्रसंग भी उस काल की सूर्याेपासना का ही प्रमाण है. कौरव और पांडव के पितृपुरुष के रूप में भी सूर्य का वर्णन मिलता है.
भगवान राम जब लंका विजय कर अयोध्या लौटे थे तब उन्होंने कार्तिक मास की षष्ठी को सूर्य की आराधना की थी. महाभारत काल में भी कुंती ने सूर्य की उपासना का यह पर्व किया था. पांडवों के वनवास के दौरान उनकी मंगलकामना के लिए द्रौपदी ने कार्तिक मास के षष्ठी को सूर्य की उपासना का व्रत रखा था.
एक और कथा के अनुसार भगवान कृष्ण के पुत्र शाम्ब कुष्ठ रोग से पीडित हो गए थे तब उन्होंने पूरी निष्ठा के साथ भगवान सूर्य की तीन दिन तक उपासना की थी. पुराणों में वर्णित एक और कथा के अनुसार राजा प्रियव्रत ने भी सूर्य की उपासना की थी.
अस्ताचल और उदयाचल सूर्य को नमन करने से स्वास्थ्य पर भी अच्छा प्रभाव पड़ता है, जो इस पर्व के वैज्ञानिक महत्व को दर्शाता है. कुछ क्षण सूर्य पर एक टक कर दृष्टि करने से त्रटक सिद्धिप्राप्त होने का वर्णन है. सूर्य वंश के प्र्वतक मनु को सूर्य भगवान ने स्वयं कर्मयोग की शिक्षा दी थी. कथाओं के अनुसार कुंती ने इसी दिन पुत्र लिए सायंकाल सूर्य को अध्र्य देकर पुत्र की कामना की और दूसरे दिन सूर्य ने कुंती को पुत्र प्रदान किया था.
पूजन की विधि
लोकमान्यता के अनुसार सूर्यपूजन छठ व्रतके रूप में प्रथमत द्रौपदी ने अपने पुत्रों के लिए की थी. स्मृति कौस्तुक तथा पुरुषार्थ चिंतामणी के अनुसार कार्तिक शुक्ल पक्ष को सूर्य जब वृश्चिक राशि में हो और मंगल दिन हो तो वह तिथि महाषष्टी है. ब्रrा पुरुषार्थ विधान है कि दिन का उपवास षष्ठी की अगिAपूजा तथा अगिAमहोत्सव के रूप में मनाया जाए.
मत्स्य पुराण में साठ व्रतों में इसका भी उल्लेख है. छठ यानी षष्ठ, प्रकृति के षष्ठ अंश की देवी है. इनका अमरनाथ देवसेना है. इस व्रत को सूर्य का व्रत माना गया है. पंचमी को उपवास तथा षष्ठी को सूर्य पूजा के उपरांत सप्तमी को व्रत का पारण के कार्तिक माह के साथ शुरू होता है.
इस व्रत की शुरूआत पंचमी तिथि से होती है. जिसे क्षेत्रीय भाषा में खरना या लोहड नाम से जाना जाता है. इसी दिन से व्रती उपवास करती है. बिना जल ग्रहण किए शाम को गुड़ या गóो का रस तथा नये चावल की खीर प्रसाद के रूप में सभी ग्रहण करते हैं. षष्ठी के दिन पुन उपवास कर फल, पकवान, मेवा, नारियल, औषधि फल इत्यादि को सूप में सजाकर संध्या काल सूर्य देव की पूजा नदी या जलाशय में सूर्यास्त से पूर्व दूध एवं जल से अध्र्य देकर की जाती है. सप्तमी को पुन: प्रात: सूर्योदयकाल में सूर्य की पूजा, पूर्व संध्या की तरह दूध और जल से अध्र्य देकर की जाती है. तत्पश्चात अगिA को साक्षी मान पूजन कर पावन व्रत की समाप्ति की जाती है.
-कल्याण कुमार सिन्हा