Sunday 30 December 2012

गीत गुनगुनाऊं या इंसानियत का मर्सिया!

गीत गुनगुनाऊं या इंसानियत का मर्सिया!
-विकास मिश्र
कुछ समझ नहीं आ रहा है कि 2012 की विदाई वेला में उपलब्धियों के गीत गुनगुनाऊं या इंसानियत का मर्सिया (शोक गीत) गाऊं? जीवन संगीत में सफलताओं के सुर सजाऊं या फिर जो शूल चुभे हैं जेहन में, उसके दर्द से बिलबिलाऊं? मंगल पर यान उतारने की स्वप्नदर्शी भारतीय घोषणा और नासा के अंतरीक्ष यान क्यूरियोसिटी को मंगल पर उतारने में भारतीय वैज्ञानिक अमिताभ घोस की महत्वपूर्ण भूमिका पर सीना फुलाऊं या फिर देश की बहन और बेटियों को केवल देह समझकर बोटी नोचने वाले दरिंदों की काली करतूतों पर शर्मशार हो जाऊंर्?
वाकई..! कुछ समझ नहीं आ रहा है!
हां, दहकते सवालों से जेहन जरूर जल रहा है. फफोले भी उग आए हैं लेकिन मरहम लगाने वाली व्यवस्थाकहीं नजर नहीं आती. नजर आती है अराजकता की आग जो दावानल बनकर सबकुछ खाक कर देने पर उतारू है. यह अराजकता गली मोहल्ले से लेकर दिल्ली की चमचमाती सड़कों तक तांडव कर रही है. दिल्ली में ही नहीं बल्कि हमारे और आपके भीतर भी कोहराम मचा रही है. तब यह सवाल झकझोरता है कि इस साल हमने 5000 किलो मीटर तक मार करने में सक्षम परमाणु मिसाइल अग्नि-5 तो तैयार कर लिया लेकिन खुद के भीतर भ्रष्टाचार, दुराचार और अनाचार का जो दानव बैठा है, उसे मारने के लिए हमने क्या किया? क्या उसे सरकार मारेगी? क्या वह केवल कानून के डंडे से खत्म होगा? नहीं, वह व्यवस्थाहमारे भीतर से पैदा होनी चाहिए. 2012 में ही रीलिज हुई फिल्म फेरारी की सवारीयाद है आपको? फिल्म का नायक शरमन जोशी अनजाने में लाल सिग्नल के पार चला जाता है. अगले चौराहे पर रुकता है और एक ट्रेफिक वाले से जिद करता है कि वह उसका चालान बना दे. ट्रैफिक जवान कहता है कि किसी ने देखा नहीं तो चालान क्यों कटवाने पर उतारू हो? नायक अपने बेटे की ओर इशारा करता है कि इसने तो देखा है! ..इस फिल्म से कितने लोगों ने सीख ली? यदि सीख ली होती तो चौराहों पर अराजकता कुछ कम जरूर हुई होती! क्या चौराहे पर हम नियमों का सम्मान तभी करेंगे जब पुलिस का जवान मौजूद होगा?
यह सवाल खुद से पूछना चाहिए कि हम डंडे का सम्मान करते हैं या कानून का?
..और उस डंडे से भी सवाल पूछने को जी चाहता है जो
व्यवस्था के हाथों मेंहै. सवाल बहुत सीधा सा है-तुम निरपराधों और अपने हक की आवाज बुलंद करने वालों का सिर ही क्यों तोड़ते हो? तुम उन दरिंदों पर क्यों नहीं बरसते जो बहेलिया बनकर अस्मत की चीरफार करने के लिए बेखौफ घूम रहे हैं! तुमने सत्ता की चाकरी को ही नियती क्यों मान लिया है? क्या कभी सोचा है तुमने कि अपराधियों पर क्यों खौफ नहीं है तुम्हारा? अरे, अपनी मर्जी के मुताबिक कानून की ऐसी तैसी करोगे, कानून से जब तुम ही खिलवाड़ करोगे तो तुम्हारा खौफ कैसे रहेगा?वर्ष 2012 की विदाई से ठीक पहले बलात्कार की एक घटना ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया. बलात्कार की दुर्भाग्यजनक वारदात कोई पहली बार नहीं हुई है. हर रोज होती और समाज से लेकर सरकार तक की आंखों पर धृतराष्ट्र का चश्मा चढ़ा रहता है. दिल्ली की घटना ने युवाओं का खून खौला दिया इसलिए मामला जरा गर्म हो गया. लड़कियों और महिलाओं की सुरक्षा को लेकर सरकार पर दबाव भी है और शायद कुछ कानून भी बन जाए. लेकिन क्या यह सच नही है कि इस देश में पूरी व्यवस्था के साथ बलात्कार हो रहा है? थोड़ी सभ्य भाषा में आप इसे छलात्कार कह सकते हैं. हर कोई व्यवस्था को छलने में लगा है. देश की जैसे किसी को फिक्र ही नहीं है! जिन पर राम जैसा बनने की जिम्मेदारी थी, उनमें से कुछ पालायन कर गए और बाकी रावण बने बैठे हैं!
निदा फाजली के शब्दों में..
तुलसी तेरे राम के कमती पड़ गए बाण
गिनती में बढ़ने लगी रावण की संतान!
तो सवाल यह है कि समाज को रावण की संतानों से मुक्ति कौन दिलाएगा? क्या हम किसी और राम या किसी और गांधी का इंतजार करते रहें? नहीं, किसी का इंतजार करने की जरूरत नहीं है. जरूरत है खुद को राम और गांधी के रास्ते पर ले जाने की! इस देश के युवाओं में राम की मर्यादा और गांधी का आदर्श पा लेने की असीम संभावनाएं भी हैं और क्षमता भी है. बस दुर्भाग्य इतना है कि युवाओं की इस फौज का स्वाभिमान अभी पूरी तरह जागा नहीं है. 2012 के अंतिम दिनों में इसकी झलक भर मिली है. यदि हर गांव, हर कस्बे और हर शहर में युवा इसी तरह जागरुक हो गया तो फिर किसी माई के लाल में हिम्मत नहीं है कि वह बहन और बेटी की अस्मत के साथ खिलवाड़ कर ले!
निदा फाजली के इस शेर पर गौर फरमाइए..
जलती तपती धूप में झुलस रहा था गांव
छोटी सी इक बीज में छुपी हुई थी छांव
इस देश का युवा वही बीज है जिसके भीतर छांव छिपी है. उम्मीद करें कि आने वाले वर्षो में बीज अंकुरित हो और सघन छांव वाला वृक्ष बन जाए!
(लेखक
लोकमत समाचारके संपादक हैं)(लोकमत समाचार के रविवारीय परिशिष्ट
लोकरंगमें 30 दिसंबर 2012 को प्रकाशित) 

Saturday 29 December 2012

जीवन और साहित्य में घृणा का स्थान

-प्रेमचंद
निंदा, क्र ोध और घृणा ये सभी दुर्गुण हैं, लेकिन मानव जीवन में से अगर इन दुर्गुणों को निकल दीजिए, तो संसार नरक हो जाएगा. यह निंदा का ही भय है, जो दुराचारियों पर अंकुश का काम करता है. यह क्र ोध ही है, जो न्याय और सत्य की रक्षा करता है और यह घृणा ही है जो पाखंड और धूर्तता का दमन करती है. निंदा का भय न हो, क्र ोध का आतंक न हो, घृणा की धाक न हो तो जीवन विश्रृंखल हो जाय और समाज नष्ट हो जाय. इनका जब हम दुरु पयोग करते हैं, तभी ये दुर्गुण हो जाते हैं, लेकिन दुरु पयोग तो अगर दया, करु णा, प्रशंसा और भिक्त का भी किया जाय, तो वह दुर्गुण हो जाएंगे.
अंधी दया अपने पात्र को पुरु षार्थ-हीन बना देती है, अंधी करु णा कायर, अंधी प्रशंसा घमंडी और अंधी भिक्त धूर्त.
प्रकृति जो कुछ करती है, जीवन की रक्षा ही के लिए करती है. आत्म-रक्षा प्राणी का सबसे बड़ा धर्म है और हमारी सभी भावनाएं और मनोवृत्तियां इसी उद्देश्य की पूर्ति करती हैं. कौन नहीं जानता कि वही विष, जो प्राणों का नाश कर सकता है, प्राणों का संकट भी दूर कर सकता है. अवसर और अवस्था का भेद है.
मनुष्य को गंदगी से, दुर्गन्ध से, जघन्य वस्तुओं से क्यों स्वाभाविक घृणा होती है? केवल इसलिए कि गंदगी और दुर्गन्ध से बचे रहना उसकी आत्म-रक्षा के लिए आवश्यक है. जिन प्राणयिों में घृणा का भाव विकिसत नहीं हुआ, उनकी रक्षा के लिए प्रकृति ने उनमें दबकने, दम साथ लेने या छिप जाने की शिक्त डाल दी है. मनुष्य विकास-क्षेत्र में उन्नति करते-करते इस पद को पहुंच गया है कि उसे हानिकर वस्तुओं से आप ही आप घृणा हो जाती है. घृणा का ही उग्र रूप भय है और परिष्कृत रूप विवेक. ये तीनों एक ही वस्तु के नाम हैं, उनमें केवल मात्ना का अंतर है.
तो घृणा स्वाभाविक मनोवृति है और प्रकृति द्वारा आत्म-रक्षा के लिए सिरजी गई है. या यों कहो कि वह आत्म-रक्षा का ही एक रूप है. अगर हम उससे वंचित हो जाएं, तो हमारा अस्तित्व बहुत दिन न रहे. जिस वस्तु का जीवन में इतना मूल्य है, उसे शिथिल होने देना, अपने पांव में कुल्हाड़ी मारना है. हममें अगर भय न हो तो साहस का उदय कहां से हो. बल्कि जिस तरह घृणा का उग्र रूप भय है, उसी तरह भय का प्रचंड रूप ही साहस है. जरूरत केवल इस बात की है कि घृणा का परित्याग करके उसे विवेक बना दें. इसका अर्थ यही है कि हम व्यक्तियों से घृणा न करके उनके बुरे आचरण से घृणा करें.
धूर्त से हमें क्यों घृणा होती है? इसलिए कि उसमें धूर्तता है. अगर आज वह धूर्तता का परित्याग कर दे, तो हमारी घृणा भी जाती रहेगी. एक शराबी के मुंह से शराब की दुर्गन्ध आने के कारण हमें उससे घृणा होती है, लेकिन थोड़ी देर के बाद जब उसका नशा उतर जाता है और उसके मुंह से दुर्गन्ध आना बंद हो जाती है, तो हमारी घृणा भी गायब हो जाती है. एक पाखंडी पुजारी को सरल ग्रामीणों को ठगते देखकर हमें उससे घृणा होती है, लेकिन कल उसी पुजारी को हम ग्रामीणों की सेवा करते देखें, तो हमें उससे भिक्त होगी. घृणा का उद्देश्य ही यह है कि उससे बुराइयों का परिष्कार हो.
पाखंड, धूर्तता, अन्याय, बलात्कार और ऐसी ही अन्य दुष्प्रवृत्तियों के प्रति हमारे अंदर जितनी ही प्रचंड घृणा हो, उतनी ही कल्याणकारी होगी. घृणा के शिथिल होने से ही हम बहुधा स्वयं उन्हीं बुराइयों में पड़ जाते हैं और स्वयं वैसा ही घृणति व्यवहार करने लगते हैं. जिसमें प्रचंड घृणा है, वह जान पर खेलकर भी उनसे अपनी रक्षा करेगा और तभी उनकी जड़ खोदकर फेंक देने में वह अपने प्राणों की बाजी लगा देगा. महात्मा गांधी इसलिए अछूतपन को मिटाने के लिए अपने जीवन का बलिदान कर रहे हैं कि उन्हें अछूतपन से प्रचण्ड घृणा है.
जीवन में जब घृणा का इतना महत्व है, तो साहित्य कैसे उसकी उपेक्षा कर सकता है, जो जीवन का ही प्रतिबिंब है? मानव-हृदय आदि से ही सुऔर कुका रंगस्थल रहा है और साहित्य की सृष्टि ही इसलिए हुई कि संसार में जो सु या सुंदर है और इसलिए कल्याणकर है, उसके प्रति मनुष्य में प्रेम उत्पन्न हो और कु या असुंदर और इसलिए असत्य वस्तुओं से घृणा. साहित्य और कला का यही मुख्य उद्देश्य है. कु और सु का संग्राम ही साहित्य का इतिहास है. नवीन साहित्य समाज का खून चूसनेवालों, रंगे सियारों, हथकंडाबाजों और जनता के अज्ञान से अपना स्वार्थ सिद्ध करनेवालों के विरु द्ध उतने ही जोर से आवाज उठा रहा है और दीनों, दलितों, अन्याय के हाथ सताए हुए के प्रति उतने ही जोर से सहानुभूति उत्पन्न करने का प्रयत्न कर रहा है।
(हिन्दी समय डॉटकॉम से साभार)

Saturday 8 December 2012

बारह वर्षों बाद 2012-13 में होगा कुम्भ मेला

भारत की ह्दयस्थली सोम, वरुण प्रजापति ब्रह्मा की तपोभूमि, रिषियों मुनियों की यज्ञ स्थली इलाहाबाद में गंगा-यमुना तथा पौराणिक सरस्वती नदियों के संगम तट पर वर्ष 2012-13 में लगने वाले विश्व प्रसिद्ध कुम्भ मेला की तैयारियां शुरु हो गई हैं.
हिमालय की कोख से अवतरित गंगा एवं यमुना के अद्भुत मिलन तथा अदृष्य सरस्वती के संगम तट पर प्रत्येक वर्ष माघ में डेढ़ माह तक चलने वाला माघमेला छह वर्ष पर अर्धकुम्भ तथा 12 वर्षों पर कुम्भ मेले का आयोजन होता है.
नक्षत्रों के अनुसार 2012-13 के माघ मास में यहां कुम्भ मेला आयोजित होगा जिसमें देश के सुदूर अंचलों के साथ ही विदेशों से श्रद्धालु बडी संख्या में सिरकत करेंगे. ऐसी मान्यता है कि प्रयागराज, इलाहाबाद को हिमालय के पंच प्रयागों देवप्रयाग, रुद्रप्रयाग, कर्ण प्रयाग, नन्द प्रयाग एवं प्रयागराज में श्रेष्ठ माना गया है. इसीलिए इसे तीर्थराज प्रयाग की संज्ञा दी गई है.
संगम तट पर गंगा तथा यमुना नदियों के दोनों ओर कुम्भ मेला के लिए प्रशासनिक कार्यों की शुरुआत हो गई और अस्थाई निर्माण कार्य चल रहे हैं.
कुम्भ मेले के आयोजन का प्रावधान कब से है इस बारे में विद्वानों में अनेक भ्रांतियां हैं. वैदिक और पौराणिक काल में कुम्भ तथा अर्धकुम्भ स्नान में आज जैसी प्रशासनिक व्यवस्था का स्वरुप नहीं था.
कुछ विद्वान गुप्त काल में कुम्भ के सुव्यवस्थित होने की बात करते हैं। परन्तु प्रमाणित तथ्य सम्राट शीलादित्य हर्षवर्धन 617-647.के समय से प्राप्त होते हैं. बाद में श्रीमद आघ जगतगुरु शंकराचार्य तथा उनके शिष्य सुरेश्वराचार्य ने दसनामी सन्यासी अखाड़ों के लिए संगम तट पर स्नान की व्यवस्था की.

आस्था का पर्व कुम्भ


अखाड़ों के जुलूस होते हैं श्रद्धा का केंद्र
आस्था के पर्व कुम्भ या महाकुम्भ पर विभिन्न साधु-सन्तों के अखाड़ों के भव्य जुलूस लोगों की श्रद्धा और आकर्षण का केंद्र होते हैं.
अखाड़ों का पेशवाई (मेला क्षेत्र में प्रवेश) का जुलूस हो या फिर स्नान पर्वो के जुलूस, इन्हें देखकर श्रद्धालुओं में आस्था का सैलाब उमड़ता है. कुम्भ पर अखाड़ों की शोभायात्र, पताकाओं और अपने प्रतीकों से युक्त अनुशासित होकर बैण्ड बाजों की धुन पर रंगबिरंगी छटा बिखेरती कुछ ऐसे निकलती है कि लोग उनके दर्शन कर धन्य हो जाते हैं.
सभी मठों और मतों के सन्यासी अन्य दिनों चाहे जहां रमते रहे हों, लेकिन कुम्भ. अर्धकुम्भ और महाकुम्भ पर्व पर तीर्थराज प्रयाग में त्रिवेणी तट पर उनके दर्शन अवश्य होते हैं. गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती के पावन तट पर अगले माह शुरू होने जा रहे महाकुम्भ के लिए अखाड़ों का आना शुरू हो गया है.
पंचदशनाम, जूना, आवाहन और पंचअग्नि अखाड़ों ने गुरुवार को कुम्भ मेला क्षेत्र में संगम की रेती पर धर्मध्वजा फहराकर अपनी छावनी का निर्माण शुरू कर दिया है. संगम तट पर कुम्भ मेला क्षेत्र के सेक्टर-4 में आवंटित भूमि पर अगहन कृष्णपक्ष भैरव अष्टमी गुरुवार को वैदिक मंत्रोच्चार के बीच इन अखाड़ों ने कलश स्थापना कर महाकुम्भ 2013 में अपनी उपस्थिति दर्ज करा दी है.
महानिर्वाणी और निरंजनी अखाड़ों ने भी मेला क्षेत्र में भूमि पूजन कर दिया है तथा भव्य तैयारी शुरू हो गई है. अन्य अखाड़े भी शीघ्र ही मेला क्षेत्र में भूमि पूजन तथा धर्मध्वजा फहराने की तैयारी कर रहे हैं.
महाकुम्भ मेला मकर संक्रान्ति के स्नान पर्व 14 जनवरी से शुरू हो रहा है और उस दिन अखाड़ों का पहला शाही स्नान होगा.
श्री पंचायती महानिर्वाणी और श्री पंचअटल अखाड़ा 31 दिसंबर को अपनी उपस्थिति दर्ज कराएगा. दरअसल मठ और अखाड़ों का एक अलग इतिहास है. शुरू से ही ये सांस्कृतिक और धार्मिक व्यवस्था को सुचारू रुप से संचालित और व्यवस्थित करते हुए समाज को दिशानिर्देश देते रहे हैं.
मठ एक सामाजिक व्यवस्था है और आदि शंकराचार्य ने मठीय व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने के लिए देश की चारों दिशाओं में प्रमुख तीर्थ स्थानों चार मठों पूर्व में पुरी गोवर्धन पीठ, पश्चिम में द्वारिका, दक्षिण में श्रंगेरी और उत्तर में ज्योतिष पीठ की स्थापना की थी.
अखाड़े मठों के ही एक विशिष्ट अंग हैं. अखाड़ों के संन्यासी एक ओर जहां शास्त्रों में पारंगत होते थे, वहीं वह शस्त्र चलाने में भी निपुण थे.
कुम्भ मेला के संदर्भ में अखाड़ों का तात्पर्य साधुओं के संगठित समुदाय से है, जिनकी अपनी विशिष्ट परम्पराएं तथा रीतिरिवाज होते हैं.
साधुओं के तीन प्रमुख सम्प्रदाय दसनामी संन्यासी अथवा नागा संन्यासी, दूसरा वैरागी तथा तीसरा उदासीन है. दसनामी संन्यासियों के विभिन्न मठों के आधार पर दस नामकरण गिरि, पुरी, भारतीय, वन, अरण्य, पर्वत, सागर, तीर्थ, आश्रम एवं सरस्वती बताए गए हैं. इसी कारण इन्हें दसनामी साधु भी कहा जाता है.
दसनामी संन्यासी शिव के उपासक होते हैं और ये मुख्यत: माला धारण करते हैं. स्नान के पूर्व ये संन्यासी अपनी शस्त्र यात्र को स्नान कराते हैं. इसके बाद इनके प्रमुख मण्डलेश्वर आदि स्नान करते हैं. नागा संन्यासियों के सात अखाड़े महानिर्वाणी, अटल, निरंजनी, आनन्द, जूना, आवाहन तथा पंचअग्नि हैं.
वैरागी अखाड़े श्री विष्णु के उपासक होते हैं और ये मुख्यत: पांच सम्प्रदायों माधव, विष्णुस्वामी अथवा पुपिटमार्ग, वल्लभाचार्य, निम्बार्क तथा रामानुज में विभाजित हैं. इनमें भी रामानुज के सात अखाड़े निर्वाणी, दिगम्बरी, निर्मोही, खाकी, निरावम्बी, संतोषी और निर्वाण अखाड़े हैं.
उदासीन अखाड़े के मत के साधु खुद को उदासी कहते हैं. इनके तीन अखाड़े बड़ा पंचायती उदासीन अखाड़ा, नया पंचायती उदासीन अखाड़ा तथा निर्वाणी अखाड़ा हैं.
हर कुम्भ, अर्धकुम्भ एवं महाकुम्भ पर अखाड़ों का दर्शनीय रूप दिखाई पड़ता है. इस महाकुम्भ में भी विभिन्न ध्वजा, पताकाओं के साथ शिविरों में धूनी रमाए अग्नि के सामने भजन कीर्तन में लीन साधु-सन्तों के दर्शन होंगे. इनके द्वारा विभिन्न प्रकार के यज्ञों और भण्डारों का आयोजन किया जाता है. इसे देखकर लगता है कि संन्यासियों और महात्माओं का संसार कुछ अलग ही है.

Sunday 2 December 2012

नर्मदा-क्षिप्रा सिंहस्थ लिंक परियोजना

नर्मदा-क्षिप्रा सिंहस्थ लिंक परियोजना
मालवा अंचल के लिए वरदान
भोपाल : मंगलवार, 27 नवम्बर, 2012
मध्यप्रदेश का मालवा क्षेत्र लंबे समय से गम्भीर जल संकट से जूझ रहा है. बढ़ती आबादी, तेजी से घटते वन और भूजल के अनियंत्रित दोहन जैसे कारणों से पिछले तीन दशक में मालवा क्षेत्र का भू-जल स्तर तेजी से घटा है. जानकारों का मत है कि यदि ऐसी ही परिस्थिति बनी रही तो आने वाले समय में मालवा क्षेत्र के रेगिस्तान बन जाने का भय है. सत्तर के दशक में मालवा की जल समस्या का समाधान सदा प्रवाहित नर्मदा से करने का विचार सामने आया. आने वाले समय में इस विचार को मूर्त रूप देने के लिए नर्मदा का तीन मिलियन एकड़ फीट पानी उद्वहन कर मालवा पठार में किसी उपयुक्त स्थान पर छोड़ने की कल्पना भी की गई. इस पर साल-दर-साल विचार होता रहा, परन्तु कोई सार्थक योजना नहीं बनाई जा सकी.
मालवा अंचल की सूखती क्षिप्रा, गम्भीर, कालीसिंध और पार्वती निदयों की स्थिति और मालवा के जिलों में गम्भीर पेयजल संकट से चिन्तित शिवराज सिंह चौहान ने मुख्यमंत्री पद सम्भालते ही इस विषय को अपनी प्राथमिकताओं में सिम्मलित किया और कल्पना को मूर्त रूप देने का कार्य आरम्भ हुआ. परियोजना के बारे में समय-समय होने वाले विचार-विमर्श के निष्कर्ष में मुख्यमंत्री ने तय किया कि मालवा के जल संकट का एकमात्र विकल्प नर्मदा का जल ही हो सकता है. मुख्यमंत्री की इस मुद्दे पर सतत चिंता के परिणामस्वरूप मालवा को नर्मदा से जोड़ने की प्रस्तावित चार योजना की ध्वजवाहक नर्मदा-क्षिप्रा सिंहस्थ लिंक परियोजना की रूपरेखा बनी, जिससे कम समय में क्षिप्रा में नर्मदा जल प्रवाहित कर देवास एवं उज्जैन सहित क्षिप्रा के किनारे बसे गांवों को पेयजल एवं उद्योगों को पानी की आपूर्ति चालू की जा सके और आगे बड़ी योजनाओं का मार्ग प्रशस्त हो सके. विगत 08 अगस्त 2012 को नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण की राज्य मंत्रलय में समीक्षा बैठक में मुख्यमंत्री ने योजना को सैद्धांतिक स्वीकृति देकर मालवा के जल संकट के स्थाई हल का मार्ग प्रशस्त कर दिया. इसीके परिणामस्वरूप कल्पना योजना में तब्दील हुई और अब इसका निर्माण कार्य आरम्भ हो रहा है.
परियोजना का स्वरूप
परियोजना के अंतर्गत ओंकारेश्वर सिंचाई परियोजना के चौथे चरण में उद्वहन नहर के लिए सिसलिया तालाब में छोड़े जाने वाले नर्मदा जल में से पांच क्यूमेक जल का उद्वहन कर इन्दौर जिले के उज्जैनी ग्राम के पास क्षिप्रा नदी के उद्गम में डाला जाएगा. यहां से नर्मदा का जल क्षिप्रा में प्रवाहित होकर उज्जैन तक पहुंचेगा. आरिम्भक अनुमानों के अनुसार लगभग 49 कि.मी. की दूरी एवं 348 मीटर ऊंचाई तक जल का उद्वहन किया जाएगा. इसके लिए चार स्थल पर जल उद्वहन के विद्युत पम्पों की स्थापना की जाएगी. सम्पूर्ण योजना की प्रशासकीय स्वीकृति 432 करोड़ रुपए है.
रिकार्ड अविध में निर्माण का संकल्प
परियोजना के स्वरूप और मालवा क्षेत्न की पेयजल आवश्यकताओं की उच्च प्राथमिकता को ध्यान में रखते हुए मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान ने परियोजना को एक वर्ष में पूरा करने का संकल्प व्यक्त किया है. संकल्प को नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण ने चुनौती के रूप में स्वीकार करते हुए इसके निर्माण की रूपरेखा निर्धारित कर ली है.
नर्मदा मालवा लिंक अभियान के लाभ
मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान द्वारा नर्मदा से मालवांचल के विकास की परिकल्पना को साकार करने के जिस अभियान का 29 नवंबर को शुभारंभ किया है, उसके पूर्ण हो जाने पर मालवा क्षेत्र की कायापलट सुनिश्चित है.
इस अभियान के प्रथम चरण में ओंकारेश्वर परियोजना के सिसलिया तालाब से नर्मदा जल का क्षिप्रा में प्रवाह होगा. आगामी चरणों में महेश्वर से नर्मदा जल उद्वहन कर गम्भीर नदी में, इंदिरा सागर जलाशय से नर्मदा जल उद्वहन कर कालीसिंध और पार्वती नदी में प्रवाहित किया जाएगा. परियोजनाओं के पूर्ण हो जाने पर -
मालवा क्षेत्र के 17 लाख एकड़ में सिंचाई सुलभ होगी. इससे मालवा क्षेत्र में कृषि विकास के नए आयाम खुलेंगे.
वर्षों से पीने के पानी की समस्या से जूझते मालवा क्षेत्न की पेयजल समस्या का स्थाई समाधान होगा. मालवा की नदियों में प्रवाहित होता नर्मदा का जल 70 कस्बे और 3000 गांव की प्यास बुझाएगा.
नर्मदा जल की उपलब्धता से मालवांचल में औद्योगिक विकास की गति तेज होगी. वर्तमान और भावी सैकड़ों उद्योगों को जल उपलब्ध हो सकेगा.
नर्मदा क्षिप्रा सिंहस्थ लिंक परियोजना के मुख्य बिन्दु-
उद्वहन द्वारा जल की मात्ना : 5.0 क्यूबिक मीटर
राइजिंग मेन की कुल लम्बाई : 49.00 किलोमीटर
उद्वहन की कुल ऊँचाई : 348.00 मीटर
विद्युत मोटर पम्प्स: चार स्टेज पम्पिंग
योजना की प्रशासकीय स्वीकृति : 432 करोड़ रु पए
नर्मदा-क्षिप्रा का संगम स्थल होगा आकर्षण का केन्द्रसिसलिया तालाब से जल उद्वहन कर इन्दौर जिले के उज्जैनी ग्राम के निकट क्षिप्रा उद्गम तक ले जाने के पूर्व एक आकर्षक कुण्ड में छोड़ा जाएगा. प्रस्तावित 10 3 15 मीटर चौड़ाई और लगभग 2.5 मीटर गहरे इस कुण्ड से दस किलोमीटर लंबी पक्की नहर से होकर नर्मदा जल क्षिप्रा उद्गम तक पहुंचेगा. कुण्ड और क्षिप्रा उद्गम तक की नहर के भाग को आकर्षक स्वरूप दिया जाएगा.
परियोजना के लाभनर्मदा का 5 क्यूमेक पानी जब क्षिप्रा उद्गम में प्रवाहित होगा तो यह सिंहस्थ के दौरान जल उपलब्धता सुनिश्चित करने के साथ ही उज्जैन नगर की वर्तमान और भावी जल आवश्यकता की पूर्ति करेगा. इस जल से देवास नगर की वर्तमान और भावी पेयजल आवश्यकता की पूर्ति होगी. इसके साथ ही देवास स्थित उद्योगों की जल आवश्यकता, देवास-इन्दौर रोड उपनगरीय जल आवश्यकता की पूर्ति और क्षिप्रा उद्गम से उज्जैन के बीच 150 से अधिक गांव की पेयजल आवश्यकता की पूर्ति होगी.
नर्मदा का जल क्षिप्रा में प्रवहमान होने से क्षेत्न का नीचे जाता भू-जल स्तर नीचे जाने से रुकेगा और रिचार्ज होकर भू-जल स्तर में बढ़ोत्तरी होगी. इससे क्षेत्र के कुओं, ट्यूबवेल्स और सूखे तालाब रिचार्ज होंगे. कुओं का जल-स्तर ऊपर आ जाने से पानी निकालने में बिजली की खपत कम होगी. कई छोटे उद्योगों को जल उपलब्ध करवाया जा सकेगा. परियोजना का एक उल्लेखनीय लाभ यह होगा कि प्रत्येक 12 वर्ष में उज्जैन में होने वाले विश्व प्रसिद्ध सिंहस्थ मेले में आने वाले लाखों श्रद्धालुओं के पवित्र स्नान और अन्य जल आवश्यकताओं की पूर्ति हो सकेगी.