Saturday 28 December 2013

देश की भाषाओं की शक्ति और श्रेष्ठता पहचानने की जरूरत


देश की भाषाओं की शक्ति और श्रेष्ठता
पहचानने की जरूरत

भाषाएँ जनसंवाद की माध्यम हैं, सामाजिक-आर्थिक विकास की संवाहक हैं और इसके साथ ही इनमें समाज और संस्कृतियों को निकट लाने और उनमें एकात्मता के भाव भरने की भी अद्भुत ताकत है. इनकी इस ताकत को विकास एवं सामाजिक समन्वय के अन्य घटकों अथवा कारकों से कम नहीं आंका जा सकता. भारतीय समाज की अनेक विशेषताओं में यह एक महत्वपूर्ण विशेषता है कि हमारा यह समाज बहुभाषिक भी है. किंतु अपनी भाषाओं की इस ताकत का सदुपयोग हम नहीं कर पाये हैं.
भारतीय भाषाओं की शक्ति और श्रेष्ठता की पहचान कर पाने में हमारी विफलता भी हमारे विकास की गति को अवरुद्ध कर रहा है. केंद्र सरकार और राज्यों के बीच भी संपर्क भाषा अंग्रेजी को बना दिए जाने से निजी क्षेत्र और वाणिज्य-व्यापार के क्षेत्र में भी अंग्रेजी ही संपर्क भाषा बन गई है. 
यह तथ्य है कि समर्थकों की ताकतवर लॉबी होने और पिछले सवा सौ वर्षो से सत्ता का समर्थन प्राप्त होने के बावजूद अंग्रेजी भी आज तक हमारे देश में सर्वव्यापक’ नहीं बन पाई. लेकिन एक सच्चाई यह भी है हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी अथवा अन्य दूसरी भारतीय भाषा में भी सर्वव्यापकता एवं सर्वग्राह्यता का अभाव है. 
भाषाएँ जितनी समृद्ध होती हैं, उनका समाज उतना ही सुसंस्कृत, गतिमान और सशक्त होता है. भाषा की समृद्धि उसकी ग्रहणशीलता पर निर्भर होती है. एक भाषा जब अन्य भाषाओं के शब्द और गुणधर्म ग्रहण करती है, तभी वह सर्वसामान्य के लिए स्वीकार्य बनती हैं. साथ ही उसमें सर्वव्यापकता के गुण भी आते हैं. ऐसी सर्वव्यापक भाषाएँ ही समाज या राष्ट्र के प्रत्येक वर्ग के साथ सफल संवाद स्थापित कराती हैं और समाज या राष्ट्र के सामाजिक-आर्थिक विकास के लाभ तीव्र गति से सामान्य जन तक भी पहुँचाती हैं.
भाषा की सर्वव्यापकता, उसकी ग्रहणशीलता के मामले में अंग्रेजी को इसका उदाहरण माना जा सकता है. समस्त यूरोपीय और एशियाई भाषाओं की शक्ति ग्रहण कर उसने अपने को इतना समृद्ध बनाया है कि आज वह पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति का वाहन बन विश्व भर में छा गई है और हमारे देश की अस्मिता पर कुंडली जमा कर बैठ गई है. इस कारण हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी समेत भारत की सभी पंद्रह राजभाषाएँ पंगु ही बनी हुई है. यही कारण है कि देश की तीन-चौथाई जनता देश के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र में निर्णायक भूमिका निभा पाने से अभी तक वंचित हैं. भाषाओं को समृद्ध, सर्वग्राह्य और सर्वव्यापक बनाने के लिए भाषा समन्वय’ एक सशक्त मार्ग है. भाषा समन्वय की यह अवधारणा देश की संस्कृति को गतिमान बनाने तथा राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता को सुदृढ़ बनाने के साथ-साथ आर्थिक-सामाजिक विकास को भी तीव्रतर करने में सहायक होगी. 
भारत में हिन्दी समेत पंद्रह राजभाषाएँ हैं, जिनका अपना समृद्ध साहित्य भंडार है. इन भाषाओं को बोलने वालों की संख्या भी करोड़ों में हैं. भौगोलिक, सामाजिक और धार्मिक जैसी अनेक परिस्थितियाँ हैं, जिनके कारण ये सभी भाषाएँ एक दूसरे के काफी करीब भी हैं. यदि इन सभी भाषाओं को एक दूसरे की शक्ति हासिल हो जाए तो ये अपने आप समृद्ध हो ही जाएँ और सर्वव्यापकता का गुणधर्म में भी इनमें समा सकती है. इसके साथ ही अंग्रेजी का सशक्त विकल्प भी ये बन सकती हैं. लेकिन इसके लिए समन्वय की एक आधारशिला’ तैयार करने की जरूरत है. क्या यह संभव नहीं है?हमारा विश्वास है कि यह संभव है और ऐसा हो सकता है. जरूरत होगी- एक साधारण सी ईमानदार कोशिश की. आखिर स्वयं हिन्दी भी और उर्दू भी- ऐसे ही समन्वय की ही तो उपज हैं. हिन्दी समेत सभी भारतीय भाषाएँ इसी समन्वय की प्रक्रिया का हिस्सा बना दी जाएँ, अर्थात इनकी शक्ति के समन्वय का सुनियोजित प्रयास शुरू किया जाए तो ये सभी भाषाएँ न केवल सर्वव्यापी और सर्वग्राह्य बन जाएंगी, बल्कि इस सद्प्रयास के कुछ अन्य ऐसे परिणाम भी सामने आएंगे, जो हमारे देश की एकता और अखंडता को और अधिक मजबूत बनाएंगे, क्षेत्रीय असमानता दूर करने में सहायक होंगे और सभी प्रांतों के अलग अलग भाषा-भाषियों के बीच बेहतर संवाद भी स्थापित करेंगे. यह स्थितियाँ सामाजिक और सांस्कृतिक समन्वय को भी पुष्ट करेंगी. साथ ही व्यापार एवं व्यवसाय के विकास को भी तीव्र और स्वस्थ बनाएंगी.

अब प्रश्न यह उठता है कि भारतीय भाषाओं के समन्वय की प्रक्रिया और दिशा क्या हो, इसका मार्ग क्या हो? देश के बुद्धिजीवियों के लिए भाषायी समन्वय की प्रक्रिया, दिशा और मार्ग ढूंढ़ना और निर्धारित करना एक चुनौती है. इसके लिए विचार मंथन’ आरंभ करना जरूरी हो गया है. इस दिशा में सोचने की प्रक्रिया आरंभ होते ही जल्द ही कोई सुगम मार्ग भी निकल सकता है. भाषाओं के समन्वय का यह कार्य निम्नलिखित उद्देश्यों की पूर्ति कर सकेगा-1. सभी भारतीय भाषाएँ और अधिक समृद्ध होंगी, क्योंकि एक दूसरे का गुणधर्म और शब्दों को अपनाएंगी. इससे यह सभी सर्वव्यापक और सर्वग्राह्य बन सकेंगी,
2. देश के अलग-अलग प्रांतों के भाषा-भाषी मौजूदा संवादहीनता की स्थिति से उबर सकेंगे और भाषायी विद्वेष की भावना समाप्त होगी,
3. देश में एकात्मता की भावना सुदृढ़ होगी, सामाजिक सौहार्द बढ़ेगा और संस्कृति एवं परपंराओं का भी बेहतर समन्वय हो सकेगा,
4. क्षेत्रीय आर्थिक असमानता दूर करने में मदद मिलेगी और आर्थिक-सामाजिक व्यवहार में पैदा हो रही अड़चनें समाप्त होंगी. इससे देश का आर्थिक विकास तीव्र होगा एवं
5. भाषायी अवरोध के कारण आर्थिक उपलब्धियों के न्यायपूर्ण बंटवारे में जो व्यवधान होता है, वह समाप्त होगा. ये उपलब्धियाँ सभी समाज के निचले स्तर तक पहुँचेगी और व्यवसाय एवं व्यापार का दायरा बढ़ेगा.
अब भाषा समन्वय की दिशा, प्रक्रिया और मार्ग की पड़ताल भी हम करें. एक विचारणीय प्रारूप यह भी है-

1. राष्ट्रीय स्तर पर केंद्र सरकार राष्ट्रीय भाषा समन्वय आयोग का गठन करें, जो राष्ट्रीय स्तर पर समस्त भारतीय भाषाओं के सामान्य व्यवहार के शब्दों का मानकीकरण कर दे और इन शब्दों को सभी भारतीय भाषाओं में प्रयुक्त करने को बढ़ावा दे. दूरदर्शन एवं अन्य जनसंचार माध्यम इसमें सहायक बन सकते हैं.
2. सभी राज्य सरकारें, राज्य भर भी 
राज्य भाषा समन्वय आयोग’ का गठन कर भाषायी समन्वय’ के कार्य को गति प्रदान करें. राज्य सरकारें अपने पड़ोसी राज्यों की भाषाओं के साथ तालमेल बिठाने की प्रक्रिया को तीव्र बना सकती हैं.
3. देश के सभी राजनीतिक दल राष्ट्रीय एकता के लिए भाषाओं के समन्वय के महत्व को ध्यान में रख कर अपनी भाषा नीति में भारतीय भाषाओं के समन्वय’ की अवधारणा को शामिल करें.
4. सभी भारतीय भाषाओं के साहित्यकार, पत्रकार एवं अन्य क्षेत्र के बुद्धिजीवी अपनी भाषा समृद्ध बनाने और दूसरी भाषाओं से आत्मिक संबंध बढ़ाने के उद्देश्य से अपनी-अपनी रचनाओं में अन्य भारतीय भाषाओं के शब्दों, मुहावरों, कहावतों आदि को उदारता से स्थाना देना आरंभ करें एवं
5. सभी भारतीय भाषाओं के साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं अन्य संगठन भी भारतीय भाषाओं के समन्वय की दृष्टि से अपनी भाषा में अन्य भारतीय भाषाओं के शब्दों के प्रयोग को उदारतापूर्वक बढ़ावा दें.
हिन्दी सहित हमारी सभी प्रादेशिक भाषाओं में विपुल साहित्य रचे गये हैं. हमारे लेखकों, चिंतकों और कलाकारों ने अपनी मौलिक रचनाओं, अनुवादों, फिल्मों तथा रंगमंचों से सभी भारतीय भाषाओं को समृद्ध किया है. लेकिन यह सारी उपलब्धियाँ अंग्रेजी के मुकाबले हिन्दी सहित अन्य सभी भारतीय भाषाओं को कोई विशेष स्थान नहीं दिला पाया है.
अभी भी समय है कि हम हिन्दी समेत अपने देश की अन्य भाषाओं को जोड़ने की दिशा में गंभीरता से प्रयास करें और इन्हें समृद्ध बना कर अपनी सौ करोड़ की आबादी के स्वर को विश्वमंच पर शक्तिशाली बनाएँ.
अन्य भारतीय भाषाओं के विकास अथवा समन्वय के संदर्भ में न केवल शासकीय स्तर पर बल्कि जनसामान्य के स्तर पर भी संवादहीनता जैसी स्थिति है. यह स्थिति हमारी राष्ट्रीय एकता के लिए घातक तो है ही, हमारे सामाजिक-आर्थिक विकास का भी अवरोधक है. भाषा समन्वय की अवधारणा सभी भारतीय भाषाओं को समृद्ध, सर्वग्राह्य और सर्वव्यापक बना कर देश की एकता एवं अखंडता को सुदृढ़ बनाने के साथ-साथ आर्थिक-सामाजिक विकास को भी तीव्रतर करेगी. साथ ही अंग्रेजी का बेहतर विकल्प भी बन सकेंगी.
-कल्याण कुमार सिन्हा

Thursday 5 December 2013

भ्रष्ट चुनावी हथकंडों पर नकेल


भ्रष्ट चुनावी हथकंडों पर नकेल

चुनाव आयोग की सफल कसरत

-कल्याण कुमार सिन्हा 

पांच राज्यों छत्तीसगढ, मिजोरम, मध्यप्रदेश, राजस्थान और दिल्ली के विधानसभा चुनावों की चुनाव प्रक्रिया ने यह भरोसा दिलाया है कि देश मे लोकतंत्र को दूषित करने वाले चुनावी भ्रष्टाचार पर नकेल कसी जा सकती है और अब बाहुबलियों अथवा थैलीशाहों से राजनीति को मुक्ति दिलाना असभव नहीं है. इन चुनावों में देश की दोनों प्रमुख राजनीतिक पार्टियां, कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी अपने चुनाव प्रचार के क्रम में एक दूसरे के विरुद्ध गडे मुर्दे उखाडने और एक दूसरे पर ओछे आरोप मढने में मर्यादाएं लांघने की मानो होड करते रहे. इस दौरान चुनाव प्रचार और सार्वजनिक बहस का स्तर गाली गलौज तक गिरता नजर आया. हालांकि इस बात से यह निष्कर्ष भी निकाला जा सकता है कि सम्भवत: अभी यह समय नहीं आया है कि चुनाव अभियान फिलहाल बिलकुल ही साफ सुथरा हो सकता है. लेकिन इस तथ्य से भी इकार नहीं किया जा सकता है कि भारतीय चुनाव आयोग की पिछले तीन दशकों की सफल कवायद ने इस आशा की किरण को तो जगा ही दिया है कि अगले कुछ समय में देश की राजनीति बाहुबली अपराधियों एवं थैलीशाह धनपिशाचों के शिकंजे से अवश्य ही मुक्त हो जाएगी. 

वस्तुत: यह सफाई तो पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन ने अपने कार्यकाल से ही आरंभ कर दिया था. चुनाव आयोग ने आदर्श चुनाव आचरण संहिता के पालन सुनिश्चत कर चुनाव अभियान की काले धन पर आधारित फिजूलखर्ची तथा प्रदूषण को दूर करने के लिए मौजूदा कानूनों के ही आधार पर अनेक सार्थक कदम उठाए हैं. इसके बाद पिछले कुछ वर्षो में सूचना के अधिकार वाले कानून का लाभ उठा कई साधारण लोगों ने दागी प्रत्याशियों को ही नहीं, अनेक दिग्गजों को भी बेनकाब किया और यह संकेत दे दिया कि उनका भरपूर समर्थन इस 'सफाई अभियान' को है. हवाला और अलग-अलग साधनों से चुनाव के लिए काले धन की आवाजाही पर भी रोक लगाने का काम प्रभावी साबित हुआ है. चुनावी भ्रष्टाचार दूर करने के आयोग के इन कदमों ने दुनिया भर मे हमारे लोकतंत्र को गौरान्वित किया है.
फिलहाल इन विधानसभा चुनावों के दौरान चुनाव आयोग ने एक कदम और आगे बढकर मीडिया को भी साधने का सफल उपक्रम भी किया है. प्रायोजित चुनाव सर्वेक्षणों के चैनलों पर प्रसारण और समाचार पत्रों में छपने वाले पेड न्यूज जैसे भ्रष्ट हथकंडों पर इस बार प्रभावी रोक भी नजर आई है. यह इतना आसान भी नहीं था. किसी भी लोकतांत्रिक देश मे सन्चार साधनों पर ऐसी नकेल साधारण बात नहीं है. लेकिन चुनाव आयोग का दायित्व है कि वह मतदाताओ के लिए स्वतंत्र एव निष्पक्ष मतदान सुनिश्चित कराए. हालांकि इसके लिए उसके पास ऐसे बाध्यकारी अधिकार नहीं है कि वह राजनीतिक दलों को अपनी सीमा में रहने को बाध्य कर सके. और ऐसे बंधनों को आसानी से स्वीकार करना हमारे राजनीतिक दलों की फितरत में कहा है. उनके भ्रष्टाचार या आपराधिक आचरण पर न्यायपालिका शिकंजा कसता है तो यह दलील दी जाती है कि यह चुनाव आयोग का कार्याधिकार क्षेत्र है. जब आयोग हरकत में आता है तो वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोंटने और चुनावों के जनतांत्रिक स्वरूप को नष्ट करने का संकट उत्पन्न करने के आरोपों की बौछार करना शुरू कर देते हैं. इतना ही नहीं, चुनाव आयोग या सूचना आयोग की बात तो दूर, सुप्रीम कोर्ट तक को यह सलाह (इसे उनकी ‘चेतावनी’ ही थी) दी जाती रही कि वह 'लक्ष्मण रेखा' का उल्लंघन न करे. दावा यह है कि कानून निर्मात्री संसद या विधायिका ही लोकतंत्र में संप्रभु है. विडंबना यह है कि ये कानून बनाने वाले यह समझने से स्वय कतराते रहे हैं कि संस्था की संप्रभुता व्यक्ति विशेष को हस्तांतरित नहीं हो सकती. साथ ही जनप्रतिनिधित्व कानून' को ढाल नहीं, ये तलवार बना कर भांजने से बाज नही आए. उनके यह सारे आचरण इस दौरान देखने को मिले.
आयोग के लिए सबसे बडी अड़चन या लाचारी यह है कि उसकी की दंड देने की क्षमता या अपने आदेशों को लागू करवाने की उसकी साम‌र्थ्य बहुत सीमित है. वह केवल राजनीतिक दलो को और उनके नेताओ को भाषणो मे सयम, शालीनता एव शिष्टाचार बरतने की ताकीद कर सकता है और न मानने पर उनकी भर्त्सना कर सकता है. राजनीतिक दलों को डर केवल इस भर्त्सना का इसलिए होता है कि मतदाताओं पर उसका विपरीत प्रभाव न पड जाए. इस चुनाव के प्रचार में काग्रेस को भाजपा ने जहरीला कहा तो कांग्रेस ने भाजपा को लुटेरा’ बता दिया. ऐसे अनेक मामले सामने आए. हर बार शिकायत ले, दोनों चुनाव आयोग से गुहार लगाते भी नजर आए. इसका उद्देश्य एक दूसरे को मतदाता की नजर में गिराना रहा. आयोग ने दोनों को नोटिस जारी कर जवाब तलब किया और जवाब पर नाराजगी भी जताई. इसमें आयोग की वह ताकत नजर आई, जो उसे देश के मतदाता से मिली है, किसी कानून से नहीं. इतनी कसरतों के साथ भारतीय चुनाव आयोग मताध राजनीतिक दलों को औकात में रखते हुए इन विधानसभा चुनावों की चुनावी प्रक्रिया की पवित्रता बहुत हद तक कायम रख पाया है तो इसे देश और अपने दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र की सफलता के लिए शुभ संकेत माना जाना चाहिए.
-कल्याण कुमार सिन्हा
समाचार सम्पादक (सेवा निवृत), लोकमत समाचार
122/6 मित्र नगर, वेस्ट मानेवाडा रोड,
नागपुर 440027 (महाराष्ट्र).


कैसी है आप के बच्चे के मस्तिष्क की उर्वरता


कैसी है आप के बच्चे के मस्तिष्क की उर्वरता

शिशु में प्रतिभा की खोज : कौन सा कैरियर होगा उपयुक्त

क्या आप का बच्चा सचिन तेंदूलकर या विश्वनाथन आनंद बन सकता है, क्या वह आईएएस, आईपीएस या आईआरएस अधिकारी बनेगा, उसमें नारायण मूर्ति, रतन टाटा अथवा वारेन बफे बनने की योग्यता तो नहीं है, वह कोई बेस्ट सेलर राइटर या फिर कहीं वह पंडित नेहरु, वाजपेयी या फिर लालू प्रसाद तो नहीं बनेगा! आखिर आप को इसका पता कैसे चले? किसी ज्योतिषि के पास जाने से तो आप रहे. नये जमाने के आप जैसे लोग, भला पुराने जमाने के दकियानूसी तरीकों को कैसे तरजीह दे सकते हैं? आई-क्यू टेस्ट जैसे परीक्षण भी अब पुरानी बात हो चुकी है. तो चलिए, निश्चिन्त हो जाइए, अपने बच्चे के मस्तिष्क की उर्वरता के बारे में जानने की आप की दुविधा और परेशानी का हल अब निकल आया है. इसके लिए अब एक उन्नत कम्प्यूटर साफ्टवेयर आ गया है.
यह खबर आप को और चौंकाएगी कि भारत में आप की खोज का यह हल तो 2011 में आया, लेकिन शिशु की प्रतिभा का पता लगाने का यह अत्याधुनिक उपाय सन् 1990 में ही तायवान में विकसित कर लिया गया था और अमेरिका सहित आधी से अधिक दुनिया की सैर कर पूरे 21 वर्षों बाद यह तकनीक भारत पहुंचा है. अब तो यह गुजरात के मेहसाना और महाराष्ट्र के यवतमाल जैसे तीसरी-चौथी श्रेणी के शहरों के अभिभावकों के लिए भी सुलभ हो चुका है. इन छोटे शहरों के लोग भी अपने बच्चों के भविष्य और उनके कैरियर के बारे में बच्चों की दो-तीन साल की आयु में ही जान लेना चाहते हैं, ताकि वे आरंभ से ही संभावित कैरियर के अनुरूप अपने बच्चे को वैसा ही माहौल दे सकें. 

डीएमआईटी अर्थात डर्मेटोग्लीफिक्स मल्टीपल इन्टेलिजेन्स टेस्ट बच्चों के भविष्य की कैरियर अभिरुचि को पढ़ने और समझने में अभिभावकों की मदद कर रहा है. अपने बच्चों का भविष्य बनाने में अभिभावक कोई चूक नहीं चाहते. भविष्य जान लेने की ललक तो आम आदमी की पुरानी कमजोरी रही है. ब्रेन-की और ब्रेन वन्डर जैसे नामों से डीएमआईटी की दुकानें देश के हर छोटे-बडे नगरों में खुलने लगी है. 5 हजार रुपए की ‘मामूली’ सी फीस देकर दस मिनट के आसान से टेस्ट के विष्लेशण साथ यदि परिणाम की जानकारी मिल रही हो तो फिर कोई भला देर भी आखिर क्यों करे?

मुम्बई, पुणे, हैदराबाद, चेन्नै, बडौदा, दिल्ली, गुड़गांव आदि बडे नगरों के इन केन्द्र संचालको का दावा है कि प्रति माह सात सौ से एक हजार बच्चे उनके यहां टेस्ट के लिए लाए जाते हैं. अधिकतर बच्चे दो से पाच वर्ष के होते हैं. जबकि दस साल तक के बच्चों की तादाद भी कम नहीं होती. अहमदाबाद के निकट मेहसाना के एक केन्द्र संचालक का तो दावा है कि जब से उसने अपना केन्द्र आरम्भ किया है, उसने अब तक 1.2 लाख बच्चों से लेकर उम्रदराज लोगों तक का डीएमआईटी टेस्ट कर चुका है. उसका यह दावा भी है कि उसका सबसे कम उम्र का एक ग्राहक तो केवल नौ माह का ही था, जब कि बडे उम्र का ग्राहक था 59 वर्ष की आयु का. 

क्या है डीएमआईटी?

इस टेस्ट से बच्चे मस्तिष्क की क्षमता का पता चलता है. अभिभावक को इससे यह पता चलता है कि उनके बच्चे की देखने, सुनने और कुछ करने की क्षमता कैसी है? उसमें सीखने की क्षमता कैसी है? सूचना ग्रहण करने का उसका सार्म्थ्य कैसा है? मेधा शक्ति -अर्थात उसकी भाषाजन्य उर्वरता, गणितीय समझ, तर्क शक्ति, अभिव्यक्ति क्षमता, प्रलाप प्रेम, संगीत प्रेम, निसर्ग प्रेम, आग्रही अथवा दुराग्रही आदि प्रवृतियां कैसी है? यदि यह पता चला कि किसी की अभिव्यक्ति अच्छी है, किन्तु तर्क शक्ति कमजोर है तो माता-पिता उसकी यह कमजोरी दूर करने के उपाय समय रहते कर सकते हैं. इस परीक्षण के साथ ही केन्द्र पर अभिभावक और बच्चे को सम्बन्धित परामर्श भी दिया जाता है. इसके तहत शतरंज खेलने, दृश्य अवलोकन कराने, गीत-संगीत की चर्चा करने, घटनाओं पर मन्तव्य प्रकट करने, जिम ले जाने, बुरी आदतों से छुटकारा आदि के उपाय सुझाए जा सकते हैं. 

कैसे किया जाता है परीक्षण?

डीएमआईटी का परीक्षण एक उन्नत कम्प्यूटर साफ्टवेयर से सम्पादित होता है. इसके तहत हाथ की सभी दस उंगलियों का अलग-अलग परीक्षण होता है. यह साफ्टवेयर दाएं हाथ की उंगलियां मस्तिष्क के बाएं छोर और बाएं हाथ की उंगलियां मस्तिष्क के दाएं छोर से संबंधित मनोद्वेगों एव मनोभावों के परीक्षण करता है. जैसे इसमें अंगूठा हमारी तर्क शक्ति और आत्म-नियन्त्रण क्षमता की जानकारी देता है. इसी प्रकार अनामिका हमारी भाषाई सामर्थ्य और अभिव्यक्ति क्षमता के बारे में बताता है. हमारी सभी दस उंगलियां हमारे सम्पूर्ण मानसिक और शारीरिक क्षमता का परिचय देती है. यह हमारे व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं को अभिव्यक्त करती है. इस साफ्टवेयर से हमारी इन उन्गलियों में छुपे हमारे आन्तरिक राज के प्रिन्ट विदेश स्थित लैब में विष्लेशण के लिए भेज दिए जाते है.

-कल्याण कुमार सिन्हा
समाचार सम्पादक (सेवा निवृत), लोकमत समाचार
122/6 मित्र नगर, वेस्ट मानेवाडा रोड
नागपुर 440027 (महाराष्ट्र).



Monday 16 September 2013

कुपोषण की सलीब पर मेलघाट के आदिवासी


मेलघाट! कुपोषण का पर्यायवाची बनता एकअभिशप्त नाम. भूख और कुपोषण की बलि चढ़ रहे बच्चों, युवाओं और वृद्धों की त्रसदी की दास्तान यहां सुनिए.
उड़ीसा के कालाहांडी, काशीपुर और रायगढ़ा जिले, बिहार (अब झारखंड) का पलामू जिला और राजस्थान, मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश आदि राज्यों के अनेक जिले और देश के समृद्ध राज्यों में गिने जाने वाले महाराष्ट्र का यह मेलघाट, सभी स्वतंत्र भारत के इतिहास के काले अध्याय ही बनते जा रहे हैं. पिछले तीन-चार दशकों से देश में गरीब और गरीबी राजनीति की बिसात पर बिछे खेल के वैसे मोहरे हैं, जिस खेल के अंत की कहीं कोई गुंजाइश नजर नहीं आती. सरकारें बदलती हैं, आशाएँ बंधती हैं, लेकिन स्थितियों में विशेष परिवर्तन परिलक्षित नहीं होता. कालाहांडी, पलामू आदि जब तीन दशक पूर्व भुखमरी के पर्याय बन चुके थे, मेलघाट तब भी चर्चा में था. राष्ट्रीय स्तर पर पलामू और कालाहांडी के लिए जब संवेदनाओं की लहर चल रही थी, तब भी देश के अनेक हिस्सों में गरीबी के कारण भुखमरी और कुपोषण का तांडव चल रहा था. किंतु सत्ता प्रतिष्ठान का ध्यान वहीं जाता है, जहाँ शोर रोका नहीं जा सकता.
मेलघाट के आदिवासियों के कुपोषण की त्रसदी नई बात नहीं है. लेकिन यहां पहले स्थितियां नौकरशाही के भूलभुलैये से निकल नहीं पा रही थीं. पिछले ढाई दशकों से हर वर्ष सैकड़ों की संख्या में आदिवासी बच्चों की हो रही मौत के पीछे अलग-अलग कारण बता कर नौकरशाही उठ रहे शोर को दबाने में सफल होती रही. आज स्थितियाँ बदली हैं. राज्य का सत्ता प्रतिष्ठान भी देर से ही सही कुछ जागरूक होता नजर आया है. विदर्भ के इस सर्वाधिक उपेक्षित आदिवासी क्षेत्र के लिए उठी संवेदनाओं की लहर से केंद्र स्तर पर भी हलचलें आरंभ हुई हैं. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी का ध्यान इस ओर जाना इस आशा को जगाता है कि सत्ता प्रतिष्ठान नौकरशाही द्वारा की जा रही लीपापोती से अलिप्त रह कर मेलघाट की जमीनी सच्चइयों को समझने का प्रयास करेगा.
सन् 1985 में उड़ीसा के कालाहांडी में भूख से उत्पन्न स्थितियों से रूबरू होने पहली बार तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने वहां का दौरा किया था और वहाँ के हालात का प्रत्यक्ष जायजा लेने पर वे स्तब्ध रह गये थे. उन्हें तत्काल वहाँ ‘बचाव अभियान’ (ऑपरेशन साल्वेज) चलाने का आदेश देना पड़ा था. राहत केन्द्र खोले गये और आपात मुफ्त भोजन की व्यवस्था भी की गई, परंतु कालाहांडी अभिशप्त ही बना रहा. मौतें बदस्तूर जारी थीं.
लेकिन बलिहारी नौकरशाही की कि वह इन मौतों का कारण अब भूख से नहीं होना मान कर संतुष्ट थी. राजीव गांधी के 21 माह पूर्व के ‘ऑपरेशन साल्वेज’ आरंभ करने के किसी आदेश का नौकरशाहों को पता तक नहीं था. यह तथ्य एक अंग्रेजी साप्ताहिक पत्रिका के सर्वेक्षण से उजागर हुआ. कालाहांडी के तत्कालीन कलेक्टर ने इस बात से इंकार किया कि उसे किसी ‘आपरेशन साल्वेज’ की जानकारी भी है. उसने तो कालाहांडी में हो रही मौतों के बारे में उस साप्ताहिक पत्रिका से कहा कि डॉक्टरों की रिपोर्ट है कि ये मौतें भूख से नहीं, बल्कि अन्य रोगों और पेचिश से हो रही है. वह इस बात से संतुष्ट था कि सरकारी राहत केन्द्रों में मुफ्त भोजन दिए जाने के बाद अब कोई भूख से कैसे मर सकता है? जब कि वास्तविकता यह थी कि यह सरकारी मुफ्त आपात भोजन योजना भी गरीब पीड़ित आदिवासियों की भूख मिटाने के बजाय उन्हें कुपोषण के गर्त में धकेल रही थी. राहत केन्द्रों पर दिया जारहा भोजन न तो पर्याप्त था और नहीं पोषक. उन्हें पेट भरने के लिए उन्हीं जंगली कंद-मूलों और मशरूमों पर निर्भर रहना पड़ रहा था, जो मानव शरीर के लिए विषाक्त थे. उनका सेवन उन्हें मौत की ओर खींच रहा था. समस्या मौत की थी, लोगों के जीवन की रक्षा उद्देश्य था, लेकिन नौकरशाही का रवैया कुछ और ही बयान कर रहा था.
मेलघाट की कहानी भी बहुत अलग नहीं है. यहाँ भी नौकरशाही का खेल वैसा ही है. सरकार यहाँ भी राज्य में बदली. शिवसेना-भाजपा शासन के समय भी यह समस्या कम गंभीर नहीं थी, लेकिन उसके रवैये से नौकरशाही को और शह मिली.
मेलघाट की समस्या ‘मेलघाट व्याघ्र परियोजना’ के बाद और अधिक गंभीर हुई है. यहां के आदिवासियों का नाता जंगल से तोड़ कर रख दिया गया. सदियों से जंगल ही जिनकी जीविका और सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन का आधार बना हुआ था, एकबारगी उससे अलग कर दिया जाना उनके लिए घातक सिद्ध हुआ. आजीविका का अब एकमात्र विकल्प उनके सामने मजदूरी ही बचा रहा, जिसके लिए वे मूल रूप से सरकारी विकास योजनाओं के कार्यो पर निर्भर हो गए. आदिवासियों एवं अन्य ग्रामीणों को रोजगार उपलब्ध कराने के लिए सरकार की रोजगार गारंटी योजना (रोगायो) और ग्रामीण रोजगार योजना के अंतर्गत इन्हें रोजगार उपलब्ध कराना था. महिलाओं के लिए मातृत्व योजना है. किंतु ये योजनाएं यहां के आदिवासियों के लिए महज दिखावा ही बनी हुई हैं. क्षेत्र के लगभग 80-90 हजार मजदूरों को काम की जरूरत थी. लेकिन साल भर में मात्र छह-सात महीनों के लिए हजार-दो हजार मजदूरों से अधिक को कभी काम नहीं मिल पाया. बेकारी के आलम में उन्हें हक तो दर-दर भटकने पर मजबूर होना पड़ा है, दूसरे उनकी महिलाओं और बच्चों को उसी भूख और कुपोषण का शिकार बनना पड़ा है. इसमें ‘काम के बदले अनाज’ योजनाओं में तो उनके साथ क्रूर मजाक भी चलता रहा है. जनवरी में कराए गए काम की मजदूरी का भुगतान अप्रैल या मई महीने में की गई है. इसकी खबरें अखबारों की हमेशा सुर्खियां बनती रही हैं. मेलघाट क्षेत्र में स्वास्थ्य सेवाओं का भी बुरा हाल रहा है. शासकीय स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए किए गए प्रावधानों का लाभ गरीब आदिवासियों तक पहुंच पाना कठिन ही रहा है. स्वास्थ्य केन्द्रों की दशा और उनकी करगुजारियां भी अखबारों के माध्यम से सामने आती रहती हैं. कहीं डॉक्टरों का अभाव, तो कहीं उनका गायब रहना, दवाइयों का अभाव, चिकित्सकीय कर्मियों की कमी और उनकी गैरजिम्मेदाराना हरकतें, गरीब रोगियों और उनके परिजनों के साथ र्दुव्‍यवहार आदि की खबरें भी अखबारों में आती रही हैं. लेकिन स्थिति में सुधार नहीं हो पाना यही साबित करता है कि अधिकारी मेलघाट की दशा सुधारने प्रति गंभीर नहीं हो पाए हैं.  अब आज 11 अगस्त (2004) को धारणी तहसील के दुनी गांव का सोनिया गांधी दौरा करेंगी. आदिवासी समाज की गरीबी, मजबूरी, समस्या और कुपोषण से खतरे में आए कोरकू आदिम जाति की सही स्थिति उनसे छिपाने की सक्रियता ही नजर आ रही है. यह 11 अगस्त संभवत: मेलघाट के आदिवासियों के लिए सौभाग्य का दिन हो सकता है.

- कल्याण कुमार सिन्हा.

11 अगस्त 2004 को लोकमत में प्रकाशित

संजो लें बूंदों को


रेन वाटर हार्वेस्टिंग बना वक्त का तकाजा


पानी की कमी की समस्या ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में समान रूप से गंभीर होती जा रही है. देश में शहरीकरण तेजी से हो रहा है. छोटे शहरों में जलसंकट की ओर तो किसी का ध्यान नहीं जाता, वहां लोग ङोल लेते हैं. लेकिन बड़े शहरों और महानगरों का जल संकट आज जिस तरह से लोगों को बेबस करता जा रहा है, उसकी आंच अब हर आम-ओ-खास महसूस करने लगा है.
ग्रामीण क्षेत्रों में तो फिर भी तालाब, आहर, पइन, कुएं खोदने की गुंजाइश है. लेकिन शहरों में इन जल ोतों की न केवल भारी कमी है, बल्कि इन ोतों को बनाने अथवा जल के संरक्षण की व्यवस्था कर पाना कठिन हो गया है. क्योंकि शहरी आबादी इन ोतों के लिए भूमि ही नहीं बचने दे रही. महानगरों और बड़े शहरों में सरकार या नगर निकाय तालाब बनाए तो बनाए कहां. अपार्टमेंट में रहने वाले लोग तो स्वीमिंग पुल ही बनाएंगे, जो पानी का संरक्षण करने की बजाय अपव्यय ही करता है. बड़े-बड़े अपार्टमेंटों से भरे कंक्रीट के इन जंगलों में जल-संरक्षण आखिर किया जाए तो कैसे?
ऐसे में पिछले कुछ वर्षो में ‘वर्षा जल संचय’ (रेन वाटर हार्वेस्टिंग) की अवधारणा शहरी क्षेत्रों में जोर पकड़ने लगी है. रोजमर्रा की जरूरतों के लिए शहरों में कम पड़ रही जलापूर्ति की समस्या यह एक बहुत कारगर समाधान है. वर्षा के पानी को बह कर बर्बाद होने से बचा कर उसका संचय करना ही यह ‘वर्षा जल संचय’ अथवा रेन वाटर हार्वेस्टिंग  है. वर्षा के पानी को आज बचा कर रखने के लिए उपाय किए जाने लगे हैं. बड़े-बड़े अपार्टमेंट में रहने वाले, बड़े बंगलों में रहने वाले; स्कूल, महाविद्यालय, बड़े सरकारी भवनों, कार्यालयों बड़े होटलों आदि के लिए यह रेन वाटर हार्वेस्टिंग प्रणाली की व्यवस्था तो नितांत आवश्यक है ही, छोटे मकानों में रहने वाले शहरी के लिए भी वर्षा जल संचय अब बहुत ही जरूरी हो गया है.
इसके लिए बड़े भवनों और मकानों के पास जमीन में टैंक बना कर बरसात के दिनों में पड़ने वाले वर्षा के पानी को छान कर इन टैंकों में संगृहीत किया जाता है. इसके साथ ही बाकी के वर्षा के पानी को कुओं और अन्य गड्ढों में जमा किया जाता है. यह पानी इतनी अधिक मात्र में संगृहीत हो जाता है कि साल भर इसका उपयोग लोग अपने घरों, कपड़ों, वाहनों की साफ-सफाई और अपने फूल-पत्ताें को सींचने में तो करते ही हैं, पीने में भी इसका उपयोग बखूबी कर लेते हैं. जल संकट से त्रस्त रहने वाले चेन्नैवासी पिछले तीन वर्षो से इसी वर्षा जल से अपने पेयजल संकट का भी समाधान कर रहे हैं. वहां की अनेक हाउसिंग सोसायटियां ‘रेन वाटर हार्वेस्टिंग प्रणाली ’ की व्यवस्था कर उसका बखूबी उपयोग कर रही हैं. पेयजल की कमी पर उसी वर्षा जल को उबाल कर वे बेखौफ उसे पी भी रहे हैं. ऐसा केवल चेन्नै में ही नहीं कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, राजस्थान और गुजरात के भी अनेक शहरों में प्रचलित होता जा रहा है.
अब तो देश के अनेक शहरों में इस दिशा में सराहनीय प्रयास शुरू हो गए हैं. पुणो की एक भवन निर्माण कंपनी अपने भवनों व फ्लैटों में वर्षा जल के संचयन प्रणाली की आधुनिक तकनीकों का प्रयोग कर रही है. लाखों वर्ग फुट क्षेत्रफल में निर्मित इसके आवासीय परिसर में छह हजार फ्लैट हैं. इस परिसर में उन्होंने वर्षा जल संरक्षण प्रणाली की पूरी व्यवस्था की है. इसके लिए पूरे परिसर को तीन क्षेत्रों में बांटा गया है. पूरे क्षेत्र में होने वाली वर्षा के जल को संगृहीत करने के लिए ‘नेचर पार्क’ और उद्यान बनाए गए हैं, ताकि भूमि का जल वाष्पीकरण तथा अन्य कारणों से बर्बाद न हो. प्रत्येक क्षेत्र में जगह-जगह रेत व धातु से निर्मित गड्ढे बनाए गए हैं, जो जमीन के नीचे व ऊपर दोनों जगह हैं. वर्षा जल संचय के लिए इन गड्ढों को फ्लैटों की छतों व सतहों से पाइप लाइनों से जोड़ा गया है.
इस प्रकार वर्षा जल को ‘पम्प’ में संगृहीत किया जाता है. इस जल को वृक्षारोपण और भू-जलस्तर बढ़ाने में उपयोग किया जाता है. इसके अतिरिक्त इस जल को समय पड़ने पर बागवानी, वाहन साफ करने जैसे अन्य कार्यो में भी इस्तेमाल किया जाता है. संरक्षित जल को पास के तालाब या कुएं में भी छोड़ा जाता है, जिसका उद्देश्य इन जैसे ोतों में जल की उपलब्धता बनाए रखना है.
इस भवन निर्माता ने अपने इस बड़े प्रयोग के अलावा और अन्य छोटे-छोटे प्रयोग भी किए हैं. इसके तहत बड़े-बड़े अपार्टमेंटों में वर्षा जल संरक्षण प्रणाली लगाने, पर्यावरण के अधिकाधिक अनुकूल बनाने जैसे काम उन्होंने किए हैं. आस-पास के गांवों, जहां पानी की कमी रहती है, में भी उन्होंने अपनी तकनीक का उपयोग कर समस्या का समाधान किया है.
इन प्रयासों का मुख्य केन्द्र बिन्दु आम जन की सहभागिता के साथ कुशल जल-प्रबंधन करना है. वर्तमान स्थिति में तेजी से कम होती जल की मात्र को संरक्षित करने में इस प्रकार के प्रयास सहायक सिद्ध हो रहे हैं. वर्षा से प्राप्त जल या तो बहकर बेकार चला जाता है या फिर वाष्पीकरण के कारण खत्म हो जाता है. ऐसे में भवनों व फ्लैटों में वर्षा जल संचयन तकनीक का प्रयोग जल प्रबंधन के लिए एक मील का पत्थर साबित हो सकता है.
हालांकि अनेक जागरूक लोग और संस्थाएं शहरों में जल संरक्षण की इस अवधारणा के प्रचार-प्रसार में जुटी हैं, लेकिन आम शहरी अभी भी इसके प्रति जागरूक नहीं हो पाया है. पानी की बर्बादी रोकने की बात दूर, आम आदमी जल संकट से जूझते रहने के बावजूद रोज-रोज पानी बर्बाद करने से नहीं चूकता.
लोगों में जल संरक्षण और वर्षा जल संचय के प्रति जागरूकता पैदा करना वक्त का तकाजा है, अन्यथा पर्यावरण पर संकट की तरह आने वाले दिनों में पानी का संकट भी विकराल रूप धारण करने वाला है. कल इस संकट को संभाल पाना किसी के बूते की बात नहीं रह जाएगी. धरती के लिए जैसे पर्यावरण का संकट भयावह होता जा रहा है, वैसे ही पानी का संकट पूरी मानवता को ही निगलने वाला साबित हो जाएगा. जानकार भविष्यवाणी कर रहे हैं कि भविष्य का महायुद्ध पानी के बंटवारे या उसके स्नेतों पर अधिकार जमाने के लिए हो सकता है. आज भी अनेक शहरों में पेयजल के लिए नलों और टैंकरों के आगे लगती लंबी-लंबी कतारों और वहां की थोड़ी सी अव्यवस्था अथवा गड़बड़ी को लेकर खूनी संघर्ष से लेकर हत्या तक की होने वाली वारदातें क्या भविष्य में पैदा होने वाले संकट के पूर्वाभास नहीं कराते? अपने ही देश में तमिलनाडु और कर्नाटक के बीच वर्षो से कावेरी नदी के जल के बंटवारे को लेकर चल रही तकरार भारत पाक सीमा पर रावी, सतलज और चेनाब नदियों के जल के लिए पाकिस्तान से रंजिश भी क्या इस समस्या के उदाहरण नहीं हैं?
इतना ही नहीं, विकास से जुड़े संसाधनों में भी पानी ही सबसे महत्वपूर्ण साधन है. पानी से न केवल आम आदमी की जिंदगी चलती है, बल्कि तमाम कल कारखाने, बिजली, कृषि सभी पानी की उपलब्धता पर निर्भर हैं. ऐसे में पानी की कमी विकास के लिए भी संकट उत्पन्न कर रहा है. दुनिया भर के देशों के नीति निर्माता भी अब यह मानने लगे हैं कि पर्यावरण के संरक्षण के साथ-साथ पानी का संरक्षण भी अब अत्यंत आवश्यक हो गया है.
महाराष्ट्र में पहल
नागपुर और पूरे महाराष्ट्र में भी पिछले कुछ वर्षो से जल संकट का नाग फुंफकारने लगा है. इसे ध्यान में रख राज्य के शहरी विकास विभाग ने राज्य भर में रेन वाटर हार्वेस्टिंग प्रणाली को अनिवार्य बनाने की दिशा में सराहनीय प्रयास तो किए हैं. इसे नागपुर महानगर पालिका (एनएमसी) ने भी अपनाया है. एनएमसी के नगर आयोजना विभाग के उस प्रस्ताव को राज्य सरकार के शहरी विकास विभाग ने हरी झंडी दिखा दी है, इसमें उन सभी नए आवासीय परिसरों के लिए रेन वाटर हार्वेस्टिंग प्रणाली लगाना अनिवार्य है, जिनका रकबा 150 वर्ग मीटर से अधिक है. पूर्व में शहरी विकास विभाग ने 5000 वर्ग मीटर तक के निर्माण के लिए इस प्रणाली को अनिवार्य किया था. अब एनएमसी इस अभिनव कदम को अंजाम देने में पता नहीं क्यों हिचक रही है.
एनएमसी भवन निर्माताओं को भवन निर्माण के साथ ही रेन वाटर हार्वेस्टिंग प्रणाली लगाने की व्यवस्था करने का आदेश तो दे रही है, लेकिन उस आदेश का पालन भी हो रहा है या नहीं, इसकी खैर-खबर लेने की जरूरत नहीं समझ रही.
इतना ही नहीं रेन वाटर हार्वेस्टिंग प्रणाली  नहीं लगाने वालों पर एनएमसी 1000 रुपए जुर्माना भी लगा सकती है, लेकिन इसे भी अभी क्रियान्वित नहीं किया जा सका है.  

-कल्याण कुमार सिन्हा

9 जुलाई 2010 को लोकमत समाचार में प्रकाशित

विकास के द्वंद्व


मुद्दा नियामगिरि का


‘विकास बनाम पर्यावरण संरक्षण’ का अहम् मुद्दा एक बार फिर उड़ीसा में भारतीय अप्रवासी की ब्रिटिश कंपनी वेदांत रिसोर्सेज की बॉक्साइट खनन और बॉक्साइट रिफायनरी परियोजना पर रोक के रूप में सामने आया है. उड़ीसा की बीजू जनता दल सरकार की उड़ीसा माइनिंग कारपोरेशन तथा स्टरलाइट बॉक्साइट खनन परियोजना के दूसरे चरण की 1.7 अरब डालर की विस्तार योजना अब जहां पर्यावरण संरक्षण की भेंट चढ़ चुकी है, वहीं राज्य के लांजीगढ़़, कालाहांडी और रायगढ़ा जिलों में फैले नियामगिरि पहाड़ी क्षेत्र में बसने वाले डोंगरिया आदिवासियों के एक बड़े समूह की आस्था, अस्मिता और अस्तित्व पर आसन्न संकट ‘टल’ गया है.
केंद्र में सत्तारूढ़ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की प्रमुख राजनीतिक पार्टी कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी ने गुरुवार को उड़ीसा के लांजीगढ़ जिले के जगन्नाथपुर गांव में ‘आदिवासी अधिकार दिवस’ के अवसर पर एक रैली को संबोधित करते हुए बॉक्साइट खनन कंपनी वेदांत की खनन परियोजना को वहां खनन के लिए पर्यावरणीय अनुमति नहीं दिए जाने के फैसले की प्रशंसा करते हुए इसे स्थानीय आदिवासियों की जीत करार दिया.
केंद्रीय पर्यावरण मंत्रलय की वन सलाहकार समिति ने पिछले शनिवार को वेदांत रिसोर्सेज के उड़ीसा राज्य के नियामगिरि पहाड़ी क्षेत्र में खनन पर रोक लगाने की सिफारिश करने वाली एन.सी. सक्सेना समिति की रिपोर्ट को स्वीकार कर उसकी 1.7 अरब डालर की इस परियोजना की मंजूरी खत्म करने का रास्ता साफ कर दिया था. समिति ने बताया कि वेदांत ने प्रस्तावित स्थल पर राज्य सरकार के अधिकारियों की मिलीभगत से अनेक पर्यावरणीय और वन्य कानूनों का उल्लंघन किया है. समिति का कहना था कि प्रस्तावित खनन परियोजना को मंजूरी देना ठीक नहीं होगा, क्योंकि इससे दो स्थानीय जनजातियों के वन अधिकारों का हनन होगा.
केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने अपने मंत्रलय की इस महत्वपूर्ण समिति की सिफारिशों को स्वीकार करते हुए अपने मंत्रलय के फैसले की घोषणा करते हुए कहा, ‘उड़ीसा सरकार और वेदांत के नियामगिरि पहाड़ी क्षेत्र में खनन से पर्यावरण संरक्षण कानून, वन संरक्षण और अधिकार कानून का गंभीर उल्लंघन हुआ है. इसीलिए लांजीगढ़़, कालाहांडी और रायगढ़ा जिलों में फैले नियामगिरि पहाड़ी क्षेत्र में राज्य के स्वामित्व वाली उड़ीसा माइनिंग कारपोरेशन तथा स्टरलाइट बाक्साइट खनन परियोजना के दूसरे चरण की वन मंजूरी नहीं दी जा सकती.’
हालांकि सक्सेना समिति ने उपरोक्त कानूनों के उल्लंघन में उड़ीसा माइनिंग कारपोरेशन तथा राज्य के वन एवं पर्यावरण विभाग और खनन विभाग के अधिकारियों को भी दोषी ठहराया है, लेकिन वन एवं पर्यावरण मंत्री रमेश ने उन्हें राज्य के हित में काम करना मान कर आरोप मुक्त किया है, अर्थात क्लीन चिट दी है. सरकार के इस फैसले के दो दिनों बाद ही इस विवादग्रस्त परियोजना क्षेत्र में कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी द्वारा सरकार के इस फैसले का समर्थन कर और क्षेत्र के आदिवासियों की इस परियोजना के विरुद्ध छेड़ी गई लड़ाई को उनकी जीत करार दिया जाना भले ही राजनीतिक रूप से आलोचना का विषय माना जा सकता है, लेकिन इससे न केवल उड़ीसा, बल्कि देश भर के लोगों के इस भरोसे को बल मिला है कि विकास के नाम पर कांग्रेस के राज में न केवल उनके हितों की रक्षा होगी, बल्कि पर्यावरण संरक्षण जैसे ज्वलंत मुद्दे की अनदेखी नहीं की जा सकेगी. इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि पर्यावरण को क्षति पहुंचाकर किया जाने वाला औद्योगिक विकास अंतत विनाशकारी ही साबित होता है. अत पर्यावरण संरक्षण की कीमत पर ऐसे किसी उद्योग को अनुमति नहीं दी जा सकती.
हालांकि वेदांत की इस विस्तार परियोजना को लेकर उड़ीसा सरकार की भूमिका भी इस मामले में संदेह के घेरे में आ गई है. राज्य के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की इस मामले को लेकर सामने आई प्रतिक्रिया गोलमोल ही है. उधर ब्रिटिश कंपनी वेदांत रिसोर्सेज और उसके प्रवर्तक अनिल अग्रवाल की विश्वसनीयता एक बार फिर संदेह के घेरे में है. अनिल अग्रवाल छत्तीसगढ़ की उस अल्युमिनियम कंपनी बाल्को के मालिक हैं, जिसका स्वामित्व कभी भारत सरकार के पास था. सन् 2001 में सरकार की विनिवेश योजना के तहत उन्होंने इस कंपनी की 51 प्रतिशत हिस्सेदारी 551 करोड़ रुपए में हासिल की थी. इस सौदे को लेकर उठे विवाद में उनका नाम सामने आया था. इसके बाद पिछली 23 सितंबर 2009 बाल्को की विस्तार योजना के अंतर्गत बिजली संयंत्र के लिए बनाई जा रही 270 मीटर की चिमनी 230 मीटर बनने के बाद जब ढह गई और उस दुर्घटना में 41 मजदूरों की मौत हो गई तो स्वयं बाल्को कंपनी के साथ-साथ चिमनी निर्माण कर रही दो कंपनियों, जिनमें एक चीनी थी और एक भारतीय, की जो भूमिका रही उससे वेदांत रिसोर्सेज की खासी किरकिरी हुई थी.
उड़ीसा की नियामगिरि पहाड़ियों में वेदांत की विस्तार योजना में पर्यावरण संरक्षण कानून, वन संरक्षण और अधिकार कानून के साथ-साथ स्थानीय निवासियों के हितों के साथ जो मजाक किया गया, उसके चलते वेदांत के साथ-साथ उड़ीसा सरकार भी सवालों से घिर गई है. यह न केवल कानून के साथ, बल्कि उड़ीसा की जनता के साथ भी खिलवाड़ जैसा ही है. उड़ीसा देश के उन पिछड़े राज्यों में एक है, जिसके पास अकूत प्राकृतिक खनिज संपदा तो है, किंतु उसका दोहन हमेशा गलत तरीकों और गलत हाथों से होता चला आया है. बॉक्साइट जैसे महत्वपूर्ण खनिज के मामले में उड़ीसा का बाक्साइट भंडार देश में सबसे बड़ा करीब 153 करोड़ टन है, जो अनुमानत विश्व का चौथा बड़ा बॉक्साइट भंडार है. राज्य के क्यांेझोर, सुंदरगढ़, फुलबनी, बोलांगीर, बारगढ़, कालाहांडी, रायगढ़ा और कोरापुट जिलों में करोड़ों टन बॉक्साइट मिट्टी की मोटी सतह के नीचे दबा हुआ है. इसके अलावा लौह एवं अन्य खनिज संपदा के साथ ही राज्य का पर्यावरण भी अत्यंत सुंदर है. हर हाल में  इसका संरक्षण सरकार और देश का दायित्व है.

-कल्याण कुमार सिन्हा

27 अगस्त 2010 को लोकमत समाचार में प्रकाशित