Wednesday 23 January 2013

गुदड़ी के लाल

गुदड़ी के लाल
लाल गुदड़ी में भी पलते हैं.इस कहावत को एक बार फिर मुंबई की बाला 24 वर्षीया प्रेमा जयकुमार ने साबित कर दिया है. एक सामान्य ऑटोरिक्शा चालक की बेटी ने तमाम गरीबी और अभावों के बीच पल कर भी अखिल भारतीय चार्टर्ड एकाउंटेंसी परीक्षा में टॉप कर दिखाया. उसने सीए की नवंबर-2012 की परीक्षा में 75.88 प्रतिशत अर्थात 800 में से शानदार 607 अंक प्राप्त किए और देश भर को बता दिया कि प्रतिभा और मेधा धन की मोहताज नहीं होती. उसके 22 वर्षीय छोटे भाई ने भी बहन के साथ ही सीए की परीक्षा दी और उत्तीर्ण हुआ. छोटे भाई धनराज ने हालांकि 800 में से 450 अंक ही प्राप्त किए, लेकिन उसके लिए भी गौरव की बात यह है कि अपनी बहन के समान वह भी सीए की सर्वाधिक कठिन परीक्षा पहली बार में ही पास करने में सफल रहा. इन नतीजों की घोषणा मंगलवार को हुई थी. मलाड में एक चाल के 300 वर्गफुट के सामानों से ठसाठस भरे छोटे से कमरे में मां-बाप के साथ रह कर पढ़ाई करने वाले इन दोनों भाई-बहनों के लिए सीए की पढ़ाई करना कोई आसान बात नहीं थी. लेकिन तमाम अड़चनों और बाधाओं को धता बताते हुए दोनों ही भाई-बहनों ने जो कर दिखाया, वह समाज के लिए एक मिसाल ही है. ऐसी बात नहीं कि गरीबी में पल कर अपनी मेधा और मेहनत से ऐसी सफलता पाने वाली प्रेमा कोई अकेली है. महाराष्ट्र ही नहीं देश के दूसरे राज्यों में भी ऐसे अनेक गुदड़ी के लाल हैं, जिन्होंने मुफलिसी के तमाम दंश ङोलते हुए भी जीवन में बड़े मुकाम हासिल किए हैं और कर रहे हैं. लेकिन जब लोग अपने चारों ओर चल रहे भ्रष्टाचार, अनाचार और दुराचार के बड़े-बड़े कारनामे देखते-देखते परेशान और निराश हो रहे हों तो इस बीच प्रेमा जैसी लड़की की मेहनत और लगन से भरी इस उपलब्धि की खबर आम लोगों में एक नई उम्मीद और नई प्रेरणा का संचार कर देती है. निश्चय ही वर्तमान माहौल में प्रेमा की सफलता की यह गाथा हवा के ताजे झोंके के समान है. ऑटो चालक जयकुमार पेरुमल और उनकी धर्मपत्नी की तपश्चर्या भी सफल हुई, जिन्होंने अपनी सीमित आय में तमाम कठिनाइयों का सामना करते हुए अपने बच्चों का जीवन संवारने में अपनी क्षमता के अनुसार उनके प्रति अपना पूर्ण समर्पण दिखाया और उसका परिणाम उनके सामने है. निश्चय ही मां-बाप और दोनों बच्चे समाज के लिए एक उदाहरण हैं. जब चारों ओर धन के बल पर मुकाम हासिल करने की होड़ मची हो, तो ऐसे दृष्टांत गरीब और सीमित आय वर्ग के लोगों में व्याप्त नैराश्य को दूर करने वाले सिद्ध होते हैं.
-कल्याण कुमार सिन्हा

Thursday 17 January 2013

आस्था का संगम

आस्था का संगम

-राजकिशोर

कुंभ में मैं कभी नहीं गया. गंगा में नहाए भी कई युग बीत गए. यमुना में तो नहाना कभी हुआ ही नहीं. नास्तिकता के बुखार में भी कोई कमी नहीं आई है. कहते हैं, वैज्ञानिक ढंग से सोचने वाले भी बुढ़ापे में धर्म और ईश्वर की शरण में चले आते हैं. ऐसा बुढ़ापा भी नहीं आया है और आ ही जाएगा तब भी मुङो यकीन है कि मैं अपने जीवन भर के विचारों को चुपके से विदा करने का पाप नहीं करूंगा. जिनको ईश्वर की जरूरत है, वे ईश्वर का आह्वान करें. लेकिन स्वयं मुङो कभी ईश्वर की जरूरत महसूस नहीं हुई. धर्म को भी मैंने अपने संदर्भ में अप्रासंगिक ही पाया है. लोकतंत्र, समाजवाद और मानव अधिकार ही मेरे देवता रहे हैं आज भी हैं.

मनोकामनाएं और स्नान

इस सबके बावजूद, मैं कुंभ की पवित्रता का अनुभव कर सकता हूं और उनके दिलों की धड़कन सुन सकता हूं जो पता नहीं कहां-कहां से प्रयाग में जमा होते हैं और कड़क ठंड में गंगा-यमुना की धारा में डुबकी लगाते हैं. डुबकी लगाते ही जैसे उनकी कोई बहुत बड़ी आकांक्षा पूरी हो जाती है. उस समय शायद ही किसी को याद रहता हो कि महाकुंभ में स्नान करने से सारे पाप कट जाते हैं. बल्कि उस समय तो अपने पाप भी याद नहीं आते होंगे. एक विधायक वातावरण में नकारात्मक विचार पता नहीं कहां लुप्त हो जाता है. जो प्रत्यक्ष रहता है, वह है एक मंगलमय परिवेश, जिसमें सारे दुख-कष्ट खिसक कर एक अनिर्वचनीय आनंद के लिए जगह खाली कर देते हैं. क्या यह ब्रrा से साक्षात्कार का पल होता है? पता नहीं. क्या यह संपूर्ण सत्ता के साथ एकाकार होने की अनुभूति है? यह भी पता नहीं. यह जरूर एहसास होता है कि इस दुर्लभ पल में दुनिया का सारा कलुष अचानक घुल जाता है, सारे छल-प्रपंच पीछे छूट जाते हैं और एक पवित्रता का अनुभव चारों ओर से घेर लेता है. यह अनुभव शायद मुङो न हो. क्योंकि, मेरा ईश्वर जवानी में ही मर गया था. यह अनुभव उन्हें भी न हो, जो धर्म का मजाक उड़ाते हैं. उन्हें भी क्या होता होगा, जो सज-धज कर, हाथी-घोड़े पर सवार होकर, बाजे-गाजे के साथ, घमंड से चूर, मेले में अपनी खास जगह के लिए संघर्षरत, राजा की तरह पधारते हैं. वे अपना ईश्वर खुद हैं. दूसरे बाबा लोगों के बारे में भी यही बात कही जा सकती है. यह उनके लिए एक कंपल्सरी अटेंडेंसहै, जैसे संसद के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में सांसद या 26 जनवरी की परेड में वीआइपी लोग अनिवार्य रूप से उपस्थित होते हैं. जिस धर्म में पद या संपत्ति के आधार पर ऊंच-नीच हो, लोग वीआइपी बनने के लिए संघर्ष करते हों, जहां चेला प्रणाली हो, उसे मैं धर्म नहीं मानता. परंतु धर्म की शायद ही कोई नदी हो, जिसमें अधर्म का कोई नाला या परमाला आकर न मिलता हो. शायद हम सभी अच्छाई और बुराई के मेल से बने हैं. इसलिए जैसे धर्म में, वैसे ही सेकुलर संस्थानों और व्यवस्थाओं में भी विकृतियां उग आती हैं. लेकिन जब मैं कुंभ या महाकुंभ के बारे में सोचता हूं, तो प्रभुता और ऐश्वर्य से दमकते ये चेहरे मुङो याद नहीं आते, ध्यान आता है उन करोड़ों मामूली आदमियों का, जिनके हृदय में श्रद्धा और भक्ति का दीपक जलता रहता है. दुख है कि इस दीये का प्रकाश जीवन में कम दिखाई पड़ता है. जैसे एक-दो लट्ट जलने से शहर प्रकाशित नहीं हो जाता, वैसे ही साल में एक-दो बार पवित्रता की नदी में डुबकी लगाने सो जीवन में उजाला नहीं छा जाता.
महाकुंभ का यह महान मिलन किसी नास्तिक के लिए कोई घटना नहीं है, वैज्ञानिक मस्तिष्क के लिए तो यह एक हानिकर रूढ़ि भी है, क्योंकि गंगा और यमुना, दोनों नदियों में इतना प्रदूषण बहता रहता है कि उनके पानी का स्पर्श भी संक्रमण का कारण बन सकता है और आधुनिक व्यक्ति के लिए? यह इस पर निर्भर है कि उसकी आधुनिकता किस प्रकार की है. मैंने बहुत-से ऐसे आधुनिक देखे हैं और उनके बारे में सुना है जो नियमित रूप से हरिद्वार, वैष्णो देवी, प्रयाग, तिरुपति आदि जाते हैं. ये अपनी आधुनिकता और अपनी आस्थाओं को अलग-अलग कमरों में रखते हैं और एक की दूसरे से भिड़ंत नहीं होने देते.

संक्रमण का दौर

संक्रमण के इस दौर में तरह-तरह के आचरण का दिखाई देना स्वाभाविक ही है. धार्मिक आस्था अभी पूरी तरह गई नहीं है और आधुनिकता ने हमारे दिमाग में पक्की जगह बनाई नहीं है. आश्चर्य की बात यह है कि आस्था के धनी आधुनिकता के साथ तर्क-वितर्क नहीं करते और आधुनिकता भी उनके देवी-देवताओं को छेड़ती नहीं है. आज किसी दयानंद सरस्वती का पैदा होना लगभग असंभव है. यह सह-अस्तित्व का समय है, जिसके पीछे लोकतांत्रिक उदारता नहीं, बल्कि विश्वासों का समझौता है. ईश्वर है भी और नहीं भी है, धर्म की चिंता है भी और नहीं भी है, मंदिरों में धार्मिकता का वातावरण छीज रहा है, पर उनका वैभव बढ़ता जाता है. यही वजह है कि कुंभ की लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आती है, बल्कि पिछले कुंभ की तुलना में अगले कुंभ में और ज्यादा लोग पहुंचते हैं.
इसमें लोगों की आर्थिक स्थिति में सुधार और आवागमन के साधनों में वृद्धि की निश्चित भूमिका भी है. इससे पता चलता है कि भौतिक विकास और धार्मिकता के बीच हमेशा टकराव का संबंध नहीं होता. महात्मा लोग टीवी पर प्रवचन करते हैं तथा वैज्ञानिक सोच के घोर विरोधी भी नए से नए वैज्ञानिक औजारों का इस्तेमाल कर रहे हैं. मुङो दुख है तो इस बात का कि संक्र मण को सही दिशा में ले जाने के लिए सेकुलर कुंभ क्यों नहीं आयोजित होते. जैसे विश्वभर में 1 मई मनाया जाता है, वैसे ही जनतंत्र, समाजवाद, मानव अधिकार, स्त्री की गरिमा आदि को प्रमोट करने के लिए बड़े-बड़े संगम क्यों नहीं हो सकते?

(लेखक वैचारिक विश्लेषक हैं)
दैनिक लोकमत समाचारसे साभार

Saturday 5 January 2013

सुनो द्रोपदी शस्त्र उठा लो...

sandeep nanavati

सुनो द्रोपदी शस्त्र उठा लो, अब गोविंद ना आएंगे
छोड़ो मेहंदी खड़ग संभालो खुद ही अपना चीर बचा लो
द्यूत बिछाए बैठे शकुनि, ... मस्तक सब बिक जाएंगे
सुनो द्रोपदी शस्त्र उठालो, अब गोविंद ना आएंगे |
 कब तक आस लगाओगी तुम, बिक़े हुए अखबारों से,
कैसी रक्षा मांग रही हो दुशासन दरबारों से
स्वयं जो लज्जा हीन पड़े हैं
वे क्या लाज बचाएंगे
सुनो द्रोपदी शस्त्र उठालो अब गोविंद ना आएंगे
कल तक केवल अंधा राजा, अब गूंगा-बहरा भी है
होंठ सिल दिए हैं जनता के, कानों पर पहरा भी है
तुम ही कहो ये अश्रु तुम्हारे, किसको क्या समझाएंगे?
सुनो द्रोपदी शस्त्र उठालो, अब गोविंद ना आएंगे....