Monday 11 February 2013

हद हो गई!

न्यायिक आदेश का पालन करना जरूरी नहीं समझा राज्यों के मुख्य सचिवों ने

आम जनता की तकलीफों और समस्याओं को दूर करने के प्रति शासन और प्रशासन की उदासीनता बहुत ही तकलीफ देह है. उनकी इसी प्रवृति की स्पष्ट छाप पुलिस एवं अन्य अमलों पर भी साफ झलकती है. किसी का बच्च लापता हो जाए, कोई अबला दुराचार की शिकार हो जाए, गुंडे-बदमाश खुले आम कानून-व्यवस्था की धज्जियां उड़ाते रहें, कोई पैसे वाला अथवा राजनैतिक रसूख वाला व्यक्ति गैरकानूनी या आपराधिक वारदातों में हो, साधारण कमजोर लोगों के साथ नाइंसाफी हो रही हो; शासन और प्रशासन अथवा पुलिस की कानों पर तब तक जूं नहीं रेंगती, जब तक लोगों का गुस्सा नहीं फूट नहीं पड़ता, कोई आंदोलन उठ खड़ा नहीं हो जाता अथवा न्यायालय इन मामलों में संज्ञान नहीं ले लेता.
ऐसे ही लापता बच्चों के मुद्दे पर स्थिति रिपोर्ट दाखिल करनेके मामले में उच्चत्तम न्यायालय के आदेश पर तो हद ही हो गई. देश के तीन राज्यों के मुख्य सचिवों सहित केंद्र सरकार ने न्यायालय के समक्ष हाजिर होकर स्थिति रिपोर्ट दाखिल करने के न्यायिक आदेश का पालन करना जरूरी नहीं समझा. मंगलवार 5 फरवरी की इस घटना की खबर ने एक बार फिर पूरे देश को झकझोर कर रख दिया. भारत के चीफ जस्टिस अलतमस कबीर समेत तीन सदस्यीय पीठ को मुख्य सचिवों के इस रवैये पर तल्ख टिप्पणी करते हुए कहना पड़ा, वे (मुख्य सचिव) क्यों नहीं उपस्थित हैं? क्या हम गैर जमानती वारंट जारी करें? वे अदालत को मूर्ख बना रहे हैं. वे यह नहीं कह सकते कि वे उपलब्ध नहीं हैं. उनके लिए निर्देश था, उन्हें यहां उपस्थित होना ही चाहिए था.
सुप्रीम कोर्ट ने लापता बच्चों के मुद्दे पर स्थिति रिपोर्ट दाखिल करने में ढिलाई पर आज केंद्र और राज्य सरकारों की कड़ी आलोचना करते हुए कहा कि ऐसा लगता है कि किसी को बच्चों की चिंता नहीं है. शीर्ष अदालत ने न्यायालय के समक्ष हाजिर होने के न्यायिक आदेश का पालन नहीं करने के कारण अरुणाचल प्रदेश, गुजरात तथा तमिलनाडु के मुख्य सचिवों को भी आड़े हाथ लिया और कहा कि वे ‘‘अदालत को मूर्ख बना रहे हैं.’’ न्यायालय ने इन सभी के खिलाफ गैर जमानती वारंट जारी करने की धमकी भी दी.चीफ जस्टिस अलतमस कबीर, न्यायमूर्ति अनिल आर. दवे और न्यायमूर्ति विक्रमजीत सेन की तीन सदस्यीय खंडपीठ ने लापता बच्चों के मामले में हलफनामा दाखिल करने में विफल रहे केंद्र और राज्यों को अंतिम मौका देते हुए प्रकरण की सुनवाई 19 फरवरी के लिए स्थगित कर दी. न्यायाधीशों ने कहा,‘‘लापता बच्चों के बारे में लगता है कि किसी को चिंता नहीं है. यह विडंबना है.’’ न्यायाधीशों ने टिप्पणी उस वक्त की जब बचपन बचाओआंदोलन की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता एच. एस. फुल्का ने कहा कि रोजाना सैकड़ों बच्चे लापता हो रहे हैं. हमारे भारत की लोकतांत्रिक सरकार के इस प्रशासनिक तंत्र को क्या हो गया है? देश को चलाने में इस तंत्र से काम लेने वाली हमारी राजनीतिक सत्ता क्योंकर इतनी लाचार है कि इस देश की जनता की ज्वलंत समस्याओं को दूर कर पाने में विफल रह रहे तंत्र को वह सुधार नहीं पा रही?
उनकी इसी विफलता के कारण जन असंतोष जब सड़कों पर भीड़ के रूप में उतर कर अपनी मांग बुलंद करता है तो कतिपय सत्ता के पिछलग्गु उसकी आलोचना करने में पीछे नहीं रहते और उस जन उभार को भीड़तंत्रकी संज्ञा देकर मजबूर आम लोगों को अपनी वेदना व्यक्त करने से हतोत्साह करने में जुट जाते हैं. 2008 से 2010 के दौरान देश के 392 जिलों में एक लाख 70 हजार से अधिक बच्चे लापता हुए हैं. इनमें से 41,546 बच्चों का अब तक पता नहीं चल सका है. पुलिस एवं प्रशासन सहित हर संबंधित सरकार अमलों को यह पता है कि बच्चों को इस प्रकार चुराने का उद्देश्य उनसे देह व्यापार और बाल मजदूरी कराने के लिए किया जाता रहा है. स्वयंसेवी संस्था बचपन बचाओआंदोलन की ओर से पेश याचिका पर उच्चतम न्यायालय ने पांच राज्यों गोवा, ओड़िसा, अरुणाचल प्रदेश, गुजरात और तमिलनाडु के मुख्य सचिवों समेत केंद्र सरकार से मंगलवार को जवाब मांगा था. लेकिन इनमें केवल गोवा और उड़ीसा के ही मुख्य सचिव उपस्थित हुए. न्यायालय ने गैर जमानती वारंट की चेतावनी देते हुए अगली सुनवाई की तिथि 19 फरवरी तय की है. -कल्याण कुमार सिन्हा