Monday 16 September 2013

कुपोषण की सलीब पर मेलघाट के आदिवासी


मेलघाट! कुपोषण का पर्यायवाची बनता एकअभिशप्त नाम. भूख और कुपोषण की बलि चढ़ रहे बच्चों, युवाओं और वृद्धों की त्रसदी की दास्तान यहां सुनिए.
उड़ीसा के कालाहांडी, काशीपुर और रायगढ़ा जिले, बिहार (अब झारखंड) का पलामू जिला और राजस्थान, मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश आदि राज्यों के अनेक जिले और देश के समृद्ध राज्यों में गिने जाने वाले महाराष्ट्र का यह मेलघाट, सभी स्वतंत्र भारत के इतिहास के काले अध्याय ही बनते जा रहे हैं. पिछले तीन-चार दशकों से देश में गरीब और गरीबी राजनीति की बिसात पर बिछे खेल के वैसे मोहरे हैं, जिस खेल के अंत की कहीं कोई गुंजाइश नजर नहीं आती. सरकारें बदलती हैं, आशाएँ बंधती हैं, लेकिन स्थितियों में विशेष परिवर्तन परिलक्षित नहीं होता. कालाहांडी, पलामू आदि जब तीन दशक पूर्व भुखमरी के पर्याय बन चुके थे, मेलघाट तब भी चर्चा में था. राष्ट्रीय स्तर पर पलामू और कालाहांडी के लिए जब संवेदनाओं की लहर चल रही थी, तब भी देश के अनेक हिस्सों में गरीबी के कारण भुखमरी और कुपोषण का तांडव चल रहा था. किंतु सत्ता प्रतिष्ठान का ध्यान वहीं जाता है, जहाँ शोर रोका नहीं जा सकता.
मेलघाट के आदिवासियों के कुपोषण की त्रसदी नई बात नहीं है. लेकिन यहां पहले स्थितियां नौकरशाही के भूलभुलैये से निकल नहीं पा रही थीं. पिछले ढाई दशकों से हर वर्ष सैकड़ों की संख्या में आदिवासी बच्चों की हो रही मौत के पीछे अलग-अलग कारण बता कर नौकरशाही उठ रहे शोर को दबाने में सफल होती रही. आज स्थितियाँ बदली हैं. राज्य का सत्ता प्रतिष्ठान भी देर से ही सही कुछ जागरूक होता नजर आया है. विदर्भ के इस सर्वाधिक उपेक्षित आदिवासी क्षेत्र के लिए उठी संवेदनाओं की लहर से केंद्र स्तर पर भी हलचलें आरंभ हुई हैं. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी का ध्यान इस ओर जाना इस आशा को जगाता है कि सत्ता प्रतिष्ठान नौकरशाही द्वारा की जा रही लीपापोती से अलिप्त रह कर मेलघाट की जमीनी सच्चइयों को समझने का प्रयास करेगा.
सन् 1985 में उड़ीसा के कालाहांडी में भूख से उत्पन्न स्थितियों से रूबरू होने पहली बार तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने वहां का दौरा किया था और वहाँ के हालात का प्रत्यक्ष जायजा लेने पर वे स्तब्ध रह गये थे. उन्हें तत्काल वहाँ ‘बचाव अभियान’ (ऑपरेशन साल्वेज) चलाने का आदेश देना पड़ा था. राहत केन्द्र खोले गये और आपात मुफ्त भोजन की व्यवस्था भी की गई, परंतु कालाहांडी अभिशप्त ही बना रहा. मौतें बदस्तूर जारी थीं.
लेकिन बलिहारी नौकरशाही की कि वह इन मौतों का कारण अब भूख से नहीं होना मान कर संतुष्ट थी. राजीव गांधी के 21 माह पूर्व के ‘ऑपरेशन साल्वेज’ आरंभ करने के किसी आदेश का नौकरशाहों को पता तक नहीं था. यह तथ्य एक अंग्रेजी साप्ताहिक पत्रिका के सर्वेक्षण से उजागर हुआ. कालाहांडी के तत्कालीन कलेक्टर ने इस बात से इंकार किया कि उसे किसी ‘आपरेशन साल्वेज’ की जानकारी भी है. उसने तो कालाहांडी में हो रही मौतों के बारे में उस साप्ताहिक पत्रिका से कहा कि डॉक्टरों की रिपोर्ट है कि ये मौतें भूख से नहीं, बल्कि अन्य रोगों और पेचिश से हो रही है. वह इस बात से संतुष्ट था कि सरकारी राहत केन्द्रों में मुफ्त भोजन दिए जाने के बाद अब कोई भूख से कैसे मर सकता है? जब कि वास्तविकता यह थी कि यह सरकारी मुफ्त आपात भोजन योजना भी गरीब पीड़ित आदिवासियों की भूख मिटाने के बजाय उन्हें कुपोषण के गर्त में धकेल रही थी. राहत केन्द्रों पर दिया जारहा भोजन न तो पर्याप्त था और नहीं पोषक. उन्हें पेट भरने के लिए उन्हीं जंगली कंद-मूलों और मशरूमों पर निर्भर रहना पड़ रहा था, जो मानव शरीर के लिए विषाक्त थे. उनका सेवन उन्हें मौत की ओर खींच रहा था. समस्या मौत की थी, लोगों के जीवन की रक्षा उद्देश्य था, लेकिन नौकरशाही का रवैया कुछ और ही बयान कर रहा था.
मेलघाट की कहानी भी बहुत अलग नहीं है. यहाँ भी नौकरशाही का खेल वैसा ही है. सरकार यहाँ भी राज्य में बदली. शिवसेना-भाजपा शासन के समय भी यह समस्या कम गंभीर नहीं थी, लेकिन उसके रवैये से नौकरशाही को और शह मिली.
मेलघाट की समस्या ‘मेलघाट व्याघ्र परियोजना’ के बाद और अधिक गंभीर हुई है. यहां के आदिवासियों का नाता जंगल से तोड़ कर रख दिया गया. सदियों से जंगल ही जिनकी जीविका और सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन का आधार बना हुआ था, एकबारगी उससे अलग कर दिया जाना उनके लिए घातक सिद्ध हुआ. आजीविका का अब एकमात्र विकल्प उनके सामने मजदूरी ही बचा रहा, जिसके लिए वे मूल रूप से सरकारी विकास योजनाओं के कार्यो पर निर्भर हो गए. आदिवासियों एवं अन्य ग्रामीणों को रोजगार उपलब्ध कराने के लिए सरकार की रोजगार गारंटी योजना (रोगायो) और ग्रामीण रोजगार योजना के अंतर्गत इन्हें रोजगार उपलब्ध कराना था. महिलाओं के लिए मातृत्व योजना है. किंतु ये योजनाएं यहां के आदिवासियों के लिए महज दिखावा ही बनी हुई हैं. क्षेत्र के लगभग 80-90 हजार मजदूरों को काम की जरूरत थी. लेकिन साल भर में मात्र छह-सात महीनों के लिए हजार-दो हजार मजदूरों से अधिक को कभी काम नहीं मिल पाया. बेकारी के आलम में उन्हें हक तो दर-दर भटकने पर मजबूर होना पड़ा है, दूसरे उनकी महिलाओं और बच्चों को उसी भूख और कुपोषण का शिकार बनना पड़ा है. इसमें ‘काम के बदले अनाज’ योजनाओं में तो उनके साथ क्रूर मजाक भी चलता रहा है. जनवरी में कराए गए काम की मजदूरी का भुगतान अप्रैल या मई महीने में की गई है. इसकी खबरें अखबारों की हमेशा सुर्खियां बनती रही हैं. मेलघाट क्षेत्र में स्वास्थ्य सेवाओं का भी बुरा हाल रहा है. शासकीय स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए किए गए प्रावधानों का लाभ गरीब आदिवासियों तक पहुंच पाना कठिन ही रहा है. स्वास्थ्य केन्द्रों की दशा और उनकी करगुजारियां भी अखबारों के माध्यम से सामने आती रहती हैं. कहीं डॉक्टरों का अभाव, तो कहीं उनका गायब रहना, दवाइयों का अभाव, चिकित्सकीय कर्मियों की कमी और उनकी गैरजिम्मेदाराना हरकतें, गरीब रोगियों और उनके परिजनों के साथ र्दुव्‍यवहार आदि की खबरें भी अखबारों में आती रही हैं. लेकिन स्थिति में सुधार नहीं हो पाना यही साबित करता है कि अधिकारी मेलघाट की दशा सुधारने प्रति गंभीर नहीं हो पाए हैं.  अब आज 11 अगस्त (2004) को धारणी तहसील के दुनी गांव का सोनिया गांधी दौरा करेंगी. आदिवासी समाज की गरीबी, मजबूरी, समस्या और कुपोषण से खतरे में आए कोरकू आदिम जाति की सही स्थिति उनसे छिपाने की सक्रियता ही नजर आ रही है. यह 11 अगस्त संभवत: मेलघाट के आदिवासियों के लिए सौभाग्य का दिन हो सकता है.

- कल्याण कुमार सिन्हा.

11 अगस्त 2004 को लोकमत में प्रकाशित

संजो लें बूंदों को


रेन वाटर हार्वेस्टिंग बना वक्त का तकाजा


पानी की कमी की समस्या ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में समान रूप से गंभीर होती जा रही है. देश में शहरीकरण तेजी से हो रहा है. छोटे शहरों में जलसंकट की ओर तो किसी का ध्यान नहीं जाता, वहां लोग ङोल लेते हैं. लेकिन बड़े शहरों और महानगरों का जल संकट आज जिस तरह से लोगों को बेबस करता जा रहा है, उसकी आंच अब हर आम-ओ-खास महसूस करने लगा है.
ग्रामीण क्षेत्रों में तो फिर भी तालाब, आहर, पइन, कुएं खोदने की गुंजाइश है. लेकिन शहरों में इन जल ोतों की न केवल भारी कमी है, बल्कि इन ोतों को बनाने अथवा जल के संरक्षण की व्यवस्था कर पाना कठिन हो गया है. क्योंकि शहरी आबादी इन ोतों के लिए भूमि ही नहीं बचने दे रही. महानगरों और बड़े शहरों में सरकार या नगर निकाय तालाब बनाए तो बनाए कहां. अपार्टमेंट में रहने वाले लोग तो स्वीमिंग पुल ही बनाएंगे, जो पानी का संरक्षण करने की बजाय अपव्यय ही करता है. बड़े-बड़े अपार्टमेंटों से भरे कंक्रीट के इन जंगलों में जल-संरक्षण आखिर किया जाए तो कैसे?
ऐसे में पिछले कुछ वर्षो में ‘वर्षा जल संचय’ (रेन वाटर हार्वेस्टिंग) की अवधारणा शहरी क्षेत्रों में जोर पकड़ने लगी है. रोजमर्रा की जरूरतों के लिए शहरों में कम पड़ रही जलापूर्ति की समस्या यह एक बहुत कारगर समाधान है. वर्षा के पानी को बह कर बर्बाद होने से बचा कर उसका संचय करना ही यह ‘वर्षा जल संचय’ अथवा रेन वाटर हार्वेस्टिंग  है. वर्षा के पानी को आज बचा कर रखने के लिए उपाय किए जाने लगे हैं. बड़े-बड़े अपार्टमेंट में रहने वाले, बड़े बंगलों में रहने वाले; स्कूल, महाविद्यालय, बड़े सरकारी भवनों, कार्यालयों बड़े होटलों आदि के लिए यह रेन वाटर हार्वेस्टिंग प्रणाली की व्यवस्था तो नितांत आवश्यक है ही, छोटे मकानों में रहने वाले शहरी के लिए भी वर्षा जल संचय अब बहुत ही जरूरी हो गया है.
इसके लिए बड़े भवनों और मकानों के पास जमीन में टैंक बना कर बरसात के दिनों में पड़ने वाले वर्षा के पानी को छान कर इन टैंकों में संगृहीत किया जाता है. इसके साथ ही बाकी के वर्षा के पानी को कुओं और अन्य गड्ढों में जमा किया जाता है. यह पानी इतनी अधिक मात्र में संगृहीत हो जाता है कि साल भर इसका उपयोग लोग अपने घरों, कपड़ों, वाहनों की साफ-सफाई और अपने फूल-पत्ताें को सींचने में तो करते ही हैं, पीने में भी इसका उपयोग बखूबी कर लेते हैं. जल संकट से त्रस्त रहने वाले चेन्नैवासी पिछले तीन वर्षो से इसी वर्षा जल से अपने पेयजल संकट का भी समाधान कर रहे हैं. वहां की अनेक हाउसिंग सोसायटियां ‘रेन वाटर हार्वेस्टिंग प्रणाली ’ की व्यवस्था कर उसका बखूबी उपयोग कर रही हैं. पेयजल की कमी पर उसी वर्षा जल को उबाल कर वे बेखौफ उसे पी भी रहे हैं. ऐसा केवल चेन्नै में ही नहीं कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, राजस्थान और गुजरात के भी अनेक शहरों में प्रचलित होता जा रहा है.
अब तो देश के अनेक शहरों में इस दिशा में सराहनीय प्रयास शुरू हो गए हैं. पुणो की एक भवन निर्माण कंपनी अपने भवनों व फ्लैटों में वर्षा जल के संचयन प्रणाली की आधुनिक तकनीकों का प्रयोग कर रही है. लाखों वर्ग फुट क्षेत्रफल में निर्मित इसके आवासीय परिसर में छह हजार फ्लैट हैं. इस परिसर में उन्होंने वर्षा जल संरक्षण प्रणाली की पूरी व्यवस्था की है. इसके लिए पूरे परिसर को तीन क्षेत्रों में बांटा गया है. पूरे क्षेत्र में होने वाली वर्षा के जल को संगृहीत करने के लिए ‘नेचर पार्क’ और उद्यान बनाए गए हैं, ताकि भूमि का जल वाष्पीकरण तथा अन्य कारणों से बर्बाद न हो. प्रत्येक क्षेत्र में जगह-जगह रेत व धातु से निर्मित गड्ढे बनाए गए हैं, जो जमीन के नीचे व ऊपर दोनों जगह हैं. वर्षा जल संचय के लिए इन गड्ढों को फ्लैटों की छतों व सतहों से पाइप लाइनों से जोड़ा गया है.
इस प्रकार वर्षा जल को ‘पम्प’ में संगृहीत किया जाता है. इस जल को वृक्षारोपण और भू-जलस्तर बढ़ाने में उपयोग किया जाता है. इसके अतिरिक्त इस जल को समय पड़ने पर बागवानी, वाहन साफ करने जैसे अन्य कार्यो में भी इस्तेमाल किया जाता है. संरक्षित जल को पास के तालाब या कुएं में भी छोड़ा जाता है, जिसका उद्देश्य इन जैसे ोतों में जल की उपलब्धता बनाए रखना है.
इस भवन निर्माता ने अपने इस बड़े प्रयोग के अलावा और अन्य छोटे-छोटे प्रयोग भी किए हैं. इसके तहत बड़े-बड़े अपार्टमेंटों में वर्षा जल संरक्षण प्रणाली लगाने, पर्यावरण के अधिकाधिक अनुकूल बनाने जैसे काम उन्होंने किए हैं. आस-पास के गांवों, जहां पानी की कमी रहती है, में भी उन्होंने अपनी तकनीक का उपयोग कर समस्या का समाधान किया है.
इन प्रयासों का मुख्य केन्द्र बिन्दु आम जन की सहभागिता के साथ कुशल जल-प्रबंधन करना है. वर्तमान स्थिति में तेजी से कम होती जल की मात्र को संरक्षित करने में इस प्रकार के प्रयास सहायक सिद्ध हो रहे हैं. वर्षा से प्राप्त जल या तो बहकर बेकार चला जाता है या फिर वाष्पीकरण के कारण खत्म हो जाता है. ऐसे में भवनों व फ्लैटों में वर्षा जल संचयन तकनीक का प्रयोग जल प्रबंधन के लिए एक मील का पत्थर साबित हो सकता है.
हालांकि अनेक जागरूक लोग और संस्थाएं शहरों में जल संरक्षण की इस अवधारणा के प्रचार-प्रसार में जुटी हैं, लेकिन आम शहरी अभी भी इसके प्रति जागरूक नहीं हो पाया है. पानी की बर्बादी रोकने की बात दूर, आम आदमी जल संकट से जूझते रहने के बावजूद रोज-रोज पानी बर्बाद करने से नहीं चूकता.
लोगों में जल संरक्षण और वर्षा जल संचय के प्रति जागरूकता पैदा करना वक्त का तकाजा है, अन्यथा पर्यावरण पर संकट की तरह आने वाले दिनों में पानी का संकट भी विकराल रूप धारण करने वाला है. कल इस संकट को संभाल पाना किसी के बूते की बात नहीं रह जाएगी. धरती के लिए जैसे पर्यावरण का संकट भयावह होता जा रहा है, वैसे ही पानी का संकट पूरी मानवता को ही निगलने वाला साबित हो जाएगा. जानकार भविष्यवाणी कर रहे हैं कि भविष्य का महायुद्ध पानी के बंटवारे या उसके स्नेतों पर अधिकार जमाने के लिए हो सकता है. आज भी अनेक शहरों में पेयजल के लिए नलों और टैंकरों के आगे लगती लंबी-लंबी कतारों और वहां की थोड़ी सी अव्यवस्था अथवा गड़बड़ी को लेकर खूनी संघर्ष से लेकर हत्या तक की होने वाली वारदातें क्या भविष्य में पैदा होने वाले संकट के पूर्वाभास नहीं कराते? अपने ही देश में तमिलनाडु और कर्नाटक के बीच वर्षो से कावेरी नदी के जल के बंटवारे को लेकर चल रही तकरार भारत पाक सीमा पर रावी, सतलज और चेनाब नदियों के जल के लिए पाकिस्तान से रंजिश भी क्या इस समस्या के उदाहरण नहीं हैं?
इतना ही नहीं, विकास से जुड़े संसाधनों में भी पानी ही सबसे महत्वपूर्ण साधन है. पानी से न केवल आम आदमी की जिंदगी चलती है, बल्कि तमाम कल कारखाने, बिजली, कृषि सभी पानी की उपलब्धता पर निर्भर हैं. ऐसे में पानी की कमी विकास के लिए भी संकट उत्पन्न कर रहा है. दुनिया भर के देशों के नीति निर्माता भी अब यह मानने लगे हैं कि पर्यावरण के संरक्षण के साथ-साथ पानी का संरक्षण भी अब अत्यंत आवश्यक हो गया है.
महाराष्ट्र में पहल
नागपुर और पूरे महाराष्ट्र में भी पिछले कुछ वर्षो से जल संकट का नाग फुंफकारने लगा है. इसे ध्यान में रख राज्य के शहरी विकास विभाग ने राज्य भर में रेन वाटर हार्वेस्टिंग प्रणाली को अनिवार्य बनाने की दिशा में सराहनीय प्रयास तो किए हैं. इसे नागपुर महानगर पालिका (एनएमसी) ने भी अपनाया है. एनएमसी के नगर आयोजना विभाग के उस प्रस्ताव को राज्य सरकार के शहरी विकास विभाग ने हरी झंडी दिखा दी है, इसमें उन सभी नए आवासीय परिसरों के लिए रेन वाटर हार्वेस्टिंग प्रणाली लगाना अनिवार्य है, जिनका रकबा 150 वर्ग मीटर से अधिक है. पूर्व में शहरी विकास विभाग ने 5000 वर्ग मीटर तक के निर्माण के लिए इस प्रणाली को अनिवार्य किया था. अब एनएमसी इस अभिनव कदम को अंजाम देने में पता नहीं क्यों हिचक रही है.
एनएमसी भवन निर्माताओं को भवन निर्माण के साथ ही रेन वाटर हार्वेस्टिंग प्रणाली लगाने की व्यवस्था करने का आदेश तो दे रही है, लेकिन उस आदेश का पालन भी हो रहा है या नहीं, इसकी खैर-खबर लेने की जरूरत नहीं समझ रही.
इतना ही नहीं रेन वाटर हार्वेस्टिंग प्रणाली  नहीं लगाने वालों पर एनएमसी 1000 रुपए जुर्माना भी लगा सकती है, लेकिन इसे भी अभी क्रियान्वित नहीं किया जा सका है.  

-कल्याण कुमार सिन्हा

9 जुलाई 2010 को लोकमत समाचार में प्रकाशित

विकास के द्वंद्व


मुद्दा नियामगिरि का


‘विकास बनाम पर्यावरण संरक्षण’ का अहम् मुद्दा एक बार फिर उड़ीसा में भारतीय अप्रवासी की ब्रिटिश कंपनी वेदांत रिसोर्सेज की बॉक्साइट खनन और बॉक्साइट रिफायनरी परियोजना पर रोक के रूप में सामने आया है. उड़ीसा की बीजू जनता दल सरकार की उड़ीसा माइनिंग कारपोरेशन तथा स्टरलाइट बॉक्साइट खनन परियोजना के दूसरे चरण की 1.7 अरब डालर की विस्तार योजना अब जहां पर्यावरण संरक्षण की भेंट चढ़ चुकी है, वहीं राज्य के लांजीगढ़़, कालाहांडी और रायगढ़ा जिलों में फैले नियामगिरि पहाड़ी क्षेत्र में बसने वाले डोंगरिया आदिवासियों के एक बड़े समूह की आस्था, अस्मिता और अस्तित्व पर आसन्न संकट ‘टल’ गया है.
केंद्र में सत्तारूढ़ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की प्रमुख राजनीतिक पार्टी कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी ने गुरुवार को उड़ीसा के लांजीगढ़ जिले के जगन्नाथपुर गांव में ‘आदिवासी अधिकार दिवस’ के अवसर पर एक रैली को संबोधित करते हुए बॉक्साइट खनन कंपनी वेदांत की खनन परियोजना को वहां खनन के लिए पर्यावरणीय अनुमति नहीं दिए जाने के फैसले की प्रशंसा करते हुए इसे स्थानीय आदिवासियों की जीत करार दिया.
केंद्रीय पर्यावरण मंत्रलय की वन सलाहकार समिति ने पिछले शनिवार को वेदांत रिसोर्सेज के उड़ीसा राज्य के नियामगिरि पहाड़ी क्षेत्र में खनन पर रोक लगाने की सिफारिश करने वाली एन.सी. सक्सेना समिति की रिपोर्ट को स्वीकार कर उसकी 1.7 अरब डालर की इस परियोजना की मंजूरी खत्म करने का रास्ता साफ कर दिया था. समिति ने बताया कि वेदांत ने प्रस्तावित स्थल पर राज्य सरकार के अधिकारियों की मिलीभगत से अनेक पर्यावरणीय और वन्य कानूनों का उल्लंघन किया है. समिति का कहना था कि प्रस्तावित खनन परियोजना को मंजूरी देना ठीक नहीं होगा, क्योंकि इससे दो स्थानीय जनजातियों के वन अधिकारों का हनन होगा.
केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने अपने मंत्रलय की इस महत्वपूर्ण समिति की सिफारिशों को स्वीकार करते हुए अपने मंत्रलय के फैसले की घोषणा करते हुए कहा, ‘उड़ीसा सरकार और वेदांत के नियामगिरि पहाड़ी क्षेत्र में खनन से पर्यावरण संरक्षण कानून, वन संरक्षण और अधिकार कानून का गंभीर उल्लंघन हुआ है. इसीलिए लांजीगढ़़, कालाहांडी और रायगढ़ा जिलों में फैले नियामगिरि पहाड़ी क्षेत्र में राज्य के स्वामित्व वाली उड़ीसा माइनिंग कारपोरेशन तथा स्टरलाइट बाक्साइट खनन परियोजना के दूसरे चरण की वन मंजूरी नहीं दी जा सकती.’
हालांकि सक्सेना समिति ने उपरोक्त कानूनों के उल्लंघन में उड़ीसा माइनिंग कारपोरेशन तथा राज्य के वन एवं पर्यावरण विभाग और खनन विभाग के अधिकारियों को भी दोषी ठहराया है, लेकिन वन एवं पर्यावरण मंत्री रमेश ने उन्हें राज्य के हित में काम करना मान कर आरोप मुक्त किया है, अर्थात क्लीन चिट दी है. सरकार के इस फैसले के दो दिनों बाद ही इस विवादग्रस्त परियोजना क्षेत्र में कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी द्वारा सरकार के इस फैसले का समर्थन कर और क्षेत्र के आदिवासियों की इस परियोजना के विरुद्ध छेड़ी गई लड़ाई को उनकी जीत करार दिया जाना भले ही राजनीतिक रूप से आलोचना का विषय माना जा सकता है, लेकिन इससे न केवल उड़ीसा, बल्कि देश भर के लोगों के इस भरोसे को बल मिला है कि विकास के नाम पर कांग्रेस के राज में न केवल उनके हितों की रक्षा होगी, बल्कि पर्यावरण संरक्षण जैसे ज्वलंत मुद्दे की अनदेखी नहीं की जा सकेगी. इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि पर्यावरण को क्षति पहुंचाकर किया जाने वाला औद्योगिक विकास अंतत विनाशकारी ही साबित होता है. अत पर्यावरण संरक्षण की कीमत पर ऐसे किसी उद्योग को अनुमति नहीं दी जा सकती.
हालांकि वेदांत की इस विस्तार परियोजना को लेकर उड़ीसा सरकार की भूमिका भी इस मामले में संदेह के घेरे में आ गई है. राज्य के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की इस मामले को लेकर सामने आई प्रतिक्रिया गोलमोल ही है. उधर ब्रिटिश कंपनी वेदांत रिसोर्सेज और उसके प्रवर्तक अनिल अग्रवाल की विश्वसनीयता एक बार फिर संदेह के घेरे में है. अनिल अग्रवाल छत्तीसगढ़ की उस अल्युमिनियम कंपनी बाल्को के मालिक हैं, जिसका स्वामित्व कभी भारत सरकार के पास था. सन् 2001 में सरकार की विनिवेश योजना के तहत उन्होंने इस कंपनी की 51 प्रतिशत हिस्सेदारी 551 करोड़ रुपए में हासिल की थी. इस सौदे को लेकर उठे विवाद में उनका नाम सामने आया था. इसके बाद पिछली 23 सितंबर 2009 बाल्को की विस्तार योजना के अंतर्गत बिजली संयंत्र के लिए बनाई जा रही 270 मीटर की चिमनी 230 मीटर बनने के बाद जब ढह गई और उस दुर्घटना में 41 मजदूरों की मौत हो गई तो स्वयं बाल्को कंपनी के साथ-साथ चिमनी निर्माण कर रही दो कंपनियों, जिनमें एक चीनी थी और एक भारतीय, की जो भूमिका रही उससे वेदांत रिसोर्सेज की खासी किरकिरी हुई थी.
उड़ीसा की नियामगिरि पहाड़ियों में वेदांत की विस्तार योजना में पर्यावरण संरक्षण कानून, वन संरक्षण और अधिकार कानून के साथ-साथ स्थानीय निवासियों के हितों के साथ जो मजाक किया गया, उसके चलते वेदांत के साथ-साथ उड़ीसा सरकार भी सवालों से घिर गई है. यह न केवल कानून के साथ, बल्कि उड़ीसा की जनता के साथ भी खिलवाड़ जैसा ही है. उड़ीसा देश के उन पिछड़े राज्यों में एक है, जिसके पास अकूत प्राकृतिक खनिज संपदा तो है, किंतु उसका दोहन हमेशा गलत तरीकों और गलत हाथों से होता चला आया है. बॉक्साइट जैसे महत्वपूर्ण खनिज के मामले में उड़ीसा का बाक्साइट भंडार देश में सबसे बड़ा करीब 153 करोड़ टन है, जो अनुमानत विश्व का चौथा बड़ा बॉक्साइट भंडार है. राज्य के क्यांेझोर, सुंदरगढ़, फुलबनी, बोलांगीर, बारगढ़, कालाहांडी, रायगढ़ा और कोरापुट जिलों में करोड़ों टन बॉक्साइट मिट्टी की मोटी सतह के नीचे दबा हुआ है. इसके अलावा लौह एवं अन्य खनिज संपदा के साथ ही राज्य का पर्यावरण भी अत्यंत सुंदर है. हर हाल में  इसका संरक्षण सरकार और देश का दायित्व है.

-कल्याण कुमार सिन्हा

27 अगस्त 2010 को लोकमत समाचार में प्रकाशित

Sunday 15 September 2013

तस्लीमा नसरीन: परिंदा जो शाम तक घर नहीं लौटा 


सांझ की ओर बढ़ती खामोश सी दोपहरी, नई दिल्ली के एक छोटे से कमरे में कुछ प्रबुद्ध महिलाओं के सामने बंगलादेश से निर्वासित चर्चित और विवादास्पद लेखिका तस्लीमा नसरीन अपनी अंग्रेजी कविता पढ़ रही है. कमरे में सन्नाटा है. काली बंगला साड़ी और  गले में मंगल सूत्र पहने. होंठों पर हल्की सी मुस्कान और चेहरें पर दृढ़ता के भाव के साथ औरतों पर कविता पढ़ती हुई तस्लीमा-

उन्होंने कहा, चुप, जबान बंद, 
सिर झुकाकर बैठो चिल्लाओ                  
रोती रहो, चीखती रहो.         
‘तो आखिर तुम्हारा जवाब क्या होना चाहिए’
अब तुम्हें खड़ा होना ही होगा, 
सीधा, एकदम सीधा गर्दन तनी, सिर ऊंचा,
तुम्हारे दिमाग में जो बवंडर चल रहा है          
बोलो, खुल कर बोलो. चिल्ला कर बोलो          
इतना तेज चिल्लाओ कि वे भागते नजर आएं.
तुम्हारी जबान खोलते ही वो तुम्हें बेशर्म कहेंगे, 
गाली देंगें, ध्यान रहे- तुम्हारी आजाद हवा को कैद 
करने के लिए उन्होंने एक शब्द गढ़ा है ‘बदचलन’ 
वो तुम्हें बदचलन कहेंगे.
लेकिन तुम हंसो, जोर से हंसो. 
जोरदार ठहाका लगाओ और 
कहो- ‘हां, हां मैं बदचलन हूं.’ 
भीड़ में जो मर्द होंगें, 
उनके माथे पर पसीने की बूंदे तैरने लगेंगी. 
भीड़ में बहुत पीछे, खामोश परकटी सी खड़ी 
औरतों की आंखों में एक ख्वाब तैरने लगेगा 
वो भी तुम्हारी जैसी ‘बदचलन’ होना चाहती है.’         
लड़कियों, उठो.’
-तस्लीमा नसरीन

अंग्रेजी में लिखी तस्लीमा की इस कविता का हिंदी अनुवाद कुछ इस तरह है. परंपरावादी सोच के खिलाफ बगावत तथा विचारों के खुलेपन को लेकर उनके वतन ने उन्हें पिछले 20 वर्ष से निर्वासित कर रखा है. बसेरे की तलाश में कभी वे इस देश तथा कभी उस देश में हैं. मानवता के आधार पर अक्सर भारत इनको आश्रय देता रहा है.भारत सरकार द्वारा जारी अस्थायी परमिट पर तस्लीमा इन दिनों भारत में है. निर्वासन की पीड़ा भोगते-भोगते शायद अपने देश को लेकर उनके भाव सपाट पड़ चुके हैं. बातचीत में वो कहती है, ‘वहां जाने की अब कहां कोई इच्छा है. कहां जा भी पाऊंगी. मां बाप मर गए. आखिरी वक्त उन्हें देखने के लिए जाने की मंजूरी नहीं मिल पाई. काफी दोस्त गुजर गए.’ बुदबुदाती सी आवाज में वो कहती है, लेकिन आवाज में वही दृढ़ता.
तस्लीमा नसरीन की विवादास्पद पुस्तक ‘लज्ज’ सहित उनकी कयी पुस्तकों पर बंगलादेश में पाबंदी लगी हुई है तथा कुछ देशों में उनकी विवादास्पद पुस्तकों के अंशों को सेंसर कर छापा गया है. अपने निजी जीवन के अंतरंग संबंधों को पन्नों पर उतारने तथा खुलेपन को लेकर भी न केवल परंपरावादी समाज, बल्कि समीक्षक भी उनकी आलोचना करते रहे हैं. धर्म को लेकर भी उनके विचारों को लेकर उन्हें अक्सर धर्मगुरु उनसे नाराज रहे हैं तथा कई बार फतवा जारी कर चुके हैं. लेकिन तस्लीमा का लेखन जारी है.
अलबत्ता बातचीत में वे राजनीति या संवेदनशील मसलों पर अपने विचार व्यक्त नहीं करना चाहतीं, लेकिन समाज में औरतों की स्थिति के बारे में बात करते समय आक्रोश साफ झलकता है. तस्लीमा कहती हैं, ‘मैं यहां भारत सरकार की मेहमान हूं, नहीं चाहती हूं कि मेरी वजह से कोई विवाद बने और सरकार परेशानी में पड़े.’
स्वीडन और यूरोपीय यूनियन की नागरिकता के बावजूद तस्लीमा भारत में ही रहना चाहती हैं. ‘यहां की लोकतांत्रिक व्यवस्था, आजादी, सुरक्षा और सबसे बड़ी बात यहां की संस्कृति से मैं अपने को ज्यादा जुड़ा मानती हूं.’ तस्लीमा के लिए पं. बंगाल और बंगलादेश अभी भी ‘बंगाल’ ही है. विभाजन के खिलाफ रही तस्लीमा कहती हैं, ‘बंटवारे से क्या संस्कृति बंट पाई. बंगाली न हिंदू हैं न मुसलमान. वो सिर्फ बंगाली हैं. ‘हिल्सा, रवीन्द्र संगीत, बंगला भाषा’ सभी तो एक है, फिर बंटवारा कहां है.’
पश्चिम बंगाल ने भी कुछ विवादों के बाद तस्लीमा नसरीन के अपने यहां आने पर रोक लगा रखी है. तस्लीमा कहती है ‘वहां मैं जाना चाहती हूं, रहना चाहती हूं, लेकिन वहां सरकार बदल जाने के बाद भी मुझ पर रोक जारी है, इसलिए जहां रहती हूं, वहीं बंगाल ढूंढ़ने की कोशिश करती हूं.’
तस्लीमा अब तक 37 पुस्तकें लिख चुकी है. उनकी कई पुस्तकों को अनेक अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं तथा कई भाषाओं में उनका अनुवाद हो चुका है. इनमें कविता संग्रह, उपन्यास, निबंध और आत्मकथा शामिल है.
तस्लीमा कहती है, ‘महिलाओं के विचारों को अभिव्यक्ति देना उन्हें संतोष देता है. यह अलग बात है, कई बार मेरे विचार समाज से मेल नहीं खाते.’ भारत में अपने प्रवास के बारे में तस्लीमा में बसी औरत कहती है ‘अकेलापन खलता तो है, लेकिन लेखन में व्यस्त रहती हूं. खाली वक्त में अपनी बिल्ली (नीलू) के साथ खेलती हूं. शायद उनके घर में पड़ी नीलू की अलग आराम कुर्सी एक औरत की पूरी कहानी बयान करती है.
तस्लीमा की कई पुस्तकों के प्रकाशक तथा एक प्रतिष्ठित प्रकाशन समूह की सदस्या अदिति महेश्वरी बताती है, ‘तस्लीमा जी अक्सर अपने सुरक्षाकर्मियों के लिए हिन्दी में पुस्तकें मंगवाती है और कहती है, मेरे बेटों के लिए भी फलां फलां किताबें भिजवा देना. उन्हें भी पढ़कर अच्छा लगेगा.
तस्लीमा का कहना है. आदर्श स्थिति तो वह होगी जब कोई भी कहीं रह सकेगा, कोई रोक टोक नहीं होगी. विश्व नागरिकता, लेकिन सरहदों की दीवारों का क्या, जहां मां बेटा, भाई-भाई अचानक खिंची भौगोलिक दीवारों से बंट जाते हैं. विश्व नागरिकता का सपना पाले तस्लीमा इस कड़वे सच को जानती भी है.
तस्लीमा के गले में पड़ा मंगल सूत्र चौंकाता है. पूछने पर कहती हैं, ‘मुङो इस पहनना अच्छा लगता है. यह किसी के कल्याण के लिए, मेरे मंगल के लिए है मेरी खुशी इससे झलकती है.’
शाम हो रही है पंछी चहचहा रहे हैं, घर लौट रहे हैं, ढलते सूरज की सिंदूरी किरण की झलक तस्लीमा के चेहरे पर पड़ रही है. अपने सुरक्षा कर्मियों से बंगला जबान में वह कुछ कह रही है. कार का दरवाजा खोलते-खोलते आकाश में बसेरों की तरफ लौटते परिंदों की तरफ देखती है. शायद सोच रही होगी ‘शाम ढल रही है, लेकिन मैं बसेरे पर लौटी नहीं हूं. कहां है मेरा बसेरा.’
तस्लीमा विवादों में घिरी एक लेखिका ही नहीं, एक इंसान भी है, एक औरत भी है.
-शोभना जैन