Saturday 8 November 2014

हिंदी का फैलता आकाश

हिंदी का फैलता आकाश
गूगल ने इंटरनेट पर अधिक से क्षेत्रीय सामग्री उपलब्ध कराने के लिए हिंदी में भी वॉइस सर्च की सुविधा उपलब्ध कराने की पहल करके हिंदी के विस्तार को एक नया आयाम दे दिया है। इस पहल से इंटरनेट का दायरा तो बढ़ेगा ही, हिंदी का आकाश और अधिक विस्तृत होगा। स्वाभाविक है कि हिंदी की संघर्ष यात्रा नए पड़ाव पर पहुंचेगी। भाषा और संस्कृति के अंतरसंबंध को समाज विशेष के संदर्भ में ही समझा जा सकता है और भाषा और संस्कृति को समझे बिना किसी समाज को समझना असंभव है। 'हिंदी' शब्द 'हिंदुस्तान के अंदर रहने वालों' और 'हिंदी भाषा' दोनों ही अथरें में प्रयुक्त है। हिंदी/हिंदुस्तानी और 'हिंदवी' के रूप में इसका संदर्भ प्राप्त होता है। हिंदी ब्रज, अवधी, मैथिली, भोजपुरी, राजस्थानी, बुंदेली, कुमायुंनी, हरियाणवी, दखिनी, मगही, कन्नौजी और छत्ताीसगढ़ी आदि तमाम सहभाषाओं से भी उदारतापूर्वक शब्द ग्रहण करती रही है। इसमें अरबी, फारसी, उर्दू और अंग्रेजी के भी अनेकानेक शब्द, मुहावरे और लोकोक्तियां भी शामिल हैं। हिंदी आर्यभाषा तो है, पर बहुक्षेत्रीय है और अनेक भाषाओं और बोलियों का समुच्चय है। इनके प्रभावों के कारण हिंदी विलक्षण रूप से बहुलता वाली भाषा बन जाती है।
भारत में जन्मी, पली और बढ़ी हिंदी देश की संस्कृति का अंग भी है और उसके निर्माण में भी उसकी प्रमुख भूमिका है। धर्म, जाति, क्षेत्र जैसी बाधाएं लांघती हिंदी में अमीर खुसरो, कबीर, सूर, तुलसी, जायसी, मीरा, रैदास, रसखान, भारतेंदु, प्रेमचंद, प्रसाद, निराला जैसे तमाम रचनाकारों का समावेश है। बल्लभाचार्य, रामानुज, विट्ठलदास, रामानंद, केरल के स्वाती तिरुनाल, महाराष्ट्र के संत देवराज, तंजौर के साहजी, मछलीपत्तानम के आंदेल पुरुषोत्ताम ने हिंदी में काव्य-रचना की। गुजरात के नरसी मेहता, महाराष्ट्र के नामदेव और ज्ञानेश्वर, पंजाब के गुरुनानक देव, असम के शंकरदेव, बंगाल के चैतन्य महाप्रभु, गुजरात के महर्षि दयानंद और उत्तार दक्षिण के तमाम सूफी संतों ने हिंदी माध्यम से ही देश के जन-जन तक अपनी बात निवेदित की। इन महान संतों की पदयात्रा और उनकी साखियों, पदों और वाणियों के माध्यम से हिंदी पूरे देश में विचरण करती रही। साथ ही आम जनों के तीर्थाटन, व्यापार, भ्रमण, नौकरी, अध्ययन आदि के कारण भी विभिन्न क्षेत्रों में निरंतर आवाजाही होती रही और हिंदी व्यक्तियों, समुदायों, संस्थाओं के बीच रिश्ते बनाने में भी सहायक हुई। 1915 में दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद गांधीजी ने देश का दौरा किया। उन्हें लगा कि हिंदी ही ऐसी भाषा है जो ज्यादातर लोगों के द्वारा बोली और समझी जाती है। हिंदी जोड़ने का काम करती है। गांधीजी ने हिंदी को संपर्क भाषा के रूप में स्वतंत्रता आंदोलन का हिस्सा बनाया। वे सरल हिंदी को चाहते थे। उनके शब्दों में हिंदी उस भाषा का नाम है जिसे हिंदू और मुसलमान कुदरती तौर पर बगैर प्रयत्‍‌न के बोलते हैं। हिंदुस्तानी और उर्दू में कोई फर्क नहीं है। देवनागरी में लिखी जाने पर वह हिंदी और फारसी लिपि में लिखी जाने पर वह उर्दू हो जाती है। भारतीय संसद ने 14 सितंबर 1949 को इसे राजभाषा स्वीकार किया, पर औपनिवेशिक मानसिकता और सीमित स्वाथरें के चलते हिंदी का प्रचार-प्रसार अभी तक वांछित स्तर तक नहीं हो पाया। संविधान के अनुच्छेद 343 में 'राजभाषा' के रूप में उल्लिखित और अनुच्छेद 351 में वर्णित संविधान की 8वीं अनुसूची में समाविष्ट है। हिंदी लगभग पचास करोड़ जनों की मातृभाषा है, साहित्यिक भाषा है और जातीय भाषा है। नागरी लिपि में लिखी जाने वाली कई अन्य भाषाएं भी हिंदी के निकट हैं।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिंदी के विकास में प्रवासी भारतीयों की विशेष भूमिका रही है। वे भारत से बाहर भारत की भाषा-संस्कृति को जीवंत किए हुए हैं। अप्रवासी भारतवंशी बिहार, पूर्वी उत्तार प्रदेश से खेती के लिए शर्तबंदी श्रमिकों के रूप में मॉरीशस, त्रिनिडाड, दक्षिण अफ्रीका, गुयाना, सूरीनाम तथा फिजी में गए। इन अप्रवासी भारतीयों की संस्कृति और अस्मिता की पहचान के रूप में भोजपुरी और अवधी के मिश्रित रूप वाली हिंदी ही आधार बनी रही। वह फिजी में 'फिजी हिंदी', सूरीनाम में 'सरनामी', दक्षिण अफ्रीका में 'नेताली' और उज्बेकिस्तान और कजाकिस्तान में 'पार्या' कहलाई। हिंदी के अध्ययन में विदेशी विद्वानों ने भी गंभीर रुचि दिखाई है। हिंदी का प्रथम इतिहास एक फ्रांसीसी ने लिखा। भारतीय भाषाओं का सर्वेक्षण अंग्रेज जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन द्वारा किया गया और प्रथम शोध प्रबंध अंग्रेज जेआर कारपेंटर ने तुलसीदास पर किया। विदेशियों ने सृजनात्मक साहित्य भी रचा है। विदेश में हिंदी की पत्र-पत्रिकाओं का भी प्रकाशन हो रहा है। मॉरीशस का 'बसंत', इग्लैंड की 'पुरवाई', अमेरिका का 'सौरभ' और 'विश्वविवेक' तथा नार्वे का 'शांतिदूत' प्रमुख प्रकाशन हैं। अनेक भाषाओं के द्विभाषी शब्दकोश भी तैयार हुए हैं। प्रवासी भारतीयों द्वारा महत्वपूर्ण लेखन हो रहा है। वे हिंदी को भारतीय अस्मिता का प्रतीक मानते हैं। अनेक रचनाओं का विदेशी भाषाओं में अनुवाद हुआ है। कंप्यूटर और इंटरनेट के चलते हिंदी की वैश्रि्वक धरातल पर उपस्थिति हो रही है, जैसा कि गूगल की पहल से स्पष्ट होता है। अखबारों के ई-संस्करण भी हो रहे हैं। आज हिंदी थाईलैंड, संयुक्त राज्य अमेरिका, तथा इंग्लैंड आदि अनेक देशों में भी प्रयुक्त है। संख्या की दृष्टि से चीनी और अंग्रेजी के बाद इसी की स्थिति है।
साहित्य की दृष्टि से हिंदी भाषा सृजनधर्मी, लचीली और संप्रेषण लायक हुई है। संचार माध्यमों में हिंदी प्रभावी हो रही है। उसके उपयोग के क्षेत्र बढ़े हैं और अभिव्यक्ति-साम‌र्थ्य का विस्तार हुआ है। दोहों, छंदों से चलकर मुक्त छंद नई कविता तक हिंदी की यात्रा उल्लेखनीय है। फिल्म, संगीत, नृत्य और अन्य कलाओं की दुनिया में हिंदी की महत्वपूर्ण उपस्थिति है। हिंदी क्षेत्र में हिंदी उच्च शिक्षा की भाषा बन रही है। हिंदी साहित्य आधुनिकता और उसके बाद के विमर्श से भी रूबरू है। आज 'हिंग्लिश' जन्म ले रही है और सरल बनाने के नाम पर हिंदी अंग्रेजी जैसी बनाई जा रही है। संस्कृतनिष्ठ हिंदी भी अबूझ होने के कारण प्रयोग से बाहर हो जाती है। हिंदी भारत की सांस्कृतिक विरासत की वाहिका और सामाजिक स्मृति का कोष है। वह भारत के लिए एक महत्वपूर्ण खिड़की है, जिसे खुला रखना आवश्यक है। हमें विश्वास है कि भाषा के प्रति गंभीर रुख अपनाया जाएगा और हिंदी को समर्थ बनाया जाएगा।
गिरीश्वर मिश्र
[लेखक महात्मा गांधी हिंदी विवि के कुलपति हैं]

Saturday 1 November 2014

नई दिशा में महाराष्ट्र

नई दिशा में महाराष्ट्र

महाराष्ट्र में देवेंद्र फड़नवीस के नेतृत्व में पहली बार भाजपा की सरकार बनी है। यह चमत्कार ही है कि अल्पमत में होते हुए भी भाजपा की इस सरकार को दो-दो विरोधियों- उद्धव ठाकरे की शिवसेना और शरद पवार की राकांपा से समर्थन मिल रहा है। वस्तुत: महाराष्ट्र का यह चुनाव कुछ प्रवृत्तियों का संकेतक है। एक, इस चुनाव ने भाजपा और शिवसेना के संबंधों को हमेशा के लिए पुनर्परिभाषित कर दिया है। दो, भाजपा को संपूर्ण महाराष्ट्र में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने का मौका मिल गया। तीन, कांग्रेस और राकांपा के भ्रष्ट नेताओं के बुरे-दिन दूर नहीं और चौथा, मोदी-अमित शाह की टीम ने मुख्यमंत्री के चयन में किसी दबाव को तरजीह नहीं दी।
इन चुनावों में उद्धव ठाकरे ने अपने जीवन का सबसे गलत निर्णय लिया और अपनी हठधर्मिता के कारण भाजपा से गठबंधन तोड़ लिया। भाजपा तो शुरू से इस गठबंधन में अपने को छोटा-पार्टनर मानकर केवल 130 सीटें मांग रही थी, जो कुल सीटों का 45 प्रतिशत थी, लेकिन सेना द्वारा 119 से ज्यादा सीटें न देने और मुख्यमंत्री पद लेने के अडि़यल रवैये से बात बिगड़ गई और 25 वर्ष पुराना गठबंधन टूट गया। इसका बहुत बड़ा नुकसान उन दोनों को होने से बच गया, क्योंकि महाराष्ट्र के सबसे बड़े खिलाड़ी शरद पवार को यह अहसास हो गया था कि सरकार भाजपा की बनने वाली है और उन्होंने अपनी चालें चल दीं।
पवार ने कई चालें चलीं। सबसे पहले भाजपा-सेना गठबंधन टूटते ही उन्होंने कांग्रेस से अपना गठबंधन तोड़ दिया। परिणामस्वरूप भाजपा को होने वाले नुकसान को उन्होंने खत्म कर दिया। यदि भाजपा-सेना गठबंधन होता और भाजपा को 130 सीटें भी मिली होतीं तो भी वे उसमें से 122 सीटें कभी नहीं जीत पाते। दूसरे, चुनाव में चौथे नंबर पर आने के साथ ही पवार ने भाजपा को अपनी पार्टी का बिन मांगे बिना शर्त समर्थन दे दिया, जिससे शिवसेना का सारा खेल बिगड़ गया। उद्धव ठाकरे ने सोचा था कि कुछ ज्यादा संख्या में आने के कारण वे भाजपा से मोल-तोल करेंगे, लेकिन भाजपा तो एकदम निश्चिंत हो गई और सेना को अंत में घुटने टेकने पड़े और बाहर से समर्थन देने का संकेत देना पड़ा।
तीसरे, पवार का असली ट्रंप कार्ड तो तब सामने आया जब उन्होंने यह भी घोषित कर दिया कि फड़नवीस सरकार के विश्वास-मत के समय राकांपा सदन में मतदान नहीं करेगी, जो इस बात का संकेतक था कि पवार नहीं चाहते हैं कि भाजपा को सरकार बनाने के मुद्दे पर कोई भी कष्ट हो और चौथा, वानखेड़े स्टेडियम को फड़नवीस सरकार के शपथ-ग्रहण समारोह के लिए निशुल्क देकर पवार ने रही-सही कमी भी पूरी कर दी। पवार के इस राजनीतिक दांव का कोई सानी नहीं और इसका पूर्वानुमान न तो भाजपा को था न शिवसेना को।
इन चालों का एक और परिणाम होते-होते बचा। पवार के कारण शिवसेना के विधायकों में इतनी बेचैनी बढ़ गई कि कयास लगाए जाने लगे थे कि कहीं उनमें भगदड़ न मच जाए और पार्टी में कहीं विभाजन न हो जाए। विभाजन के लिए 21 विधायकों का टूटना जरूरी था, पर उद्धव के नरम पड़ने से उसकी संभावना जाती रही और विधायकों को यह संकेत दे दिया गया कि आगे-पीछे वे सरकार में सम्मिलित होंगे। वे 15 वर्षों से विपक्ष में बैठ रहे थे और जब सत्ता भोगने का समय आया तो उद्धव उनको वंचित कर रहे थे। महाराष्ट्र के चुनाव परिणामों की कुछ बातें आश्चर्य पैदा करती हैं। एक, पच्चीस वर्षों में पहली बार किसी भी पार्टी को एक-सैकड़ा सीटें प्राप्त करने का मौका मिला।
इसके पूर्व 1990 में कांग्रेस को 141 सीटें मिली थीं और भाजपा को यह सफलता तब मिली जब उसका पूरे महाराष्ट्र में पार्टी-संगठन नहीं था, खास तौर पर उन निर्वाचन क्षेत्रों में जहां से शिवसेना चुनाव लड़ती रही है। अंतिम दो दिनों में 288 प्रत्याशियों का चयन करना और प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में प्रचार और विजय की रणनीति बनाना और उसमें से 122 सीटें जीतना अपने आप में कठिन बात है। दूसरे, भाजपा ने इस मिथक को भी तोड़ दिया कि शिवसेना का छत्रपति शिवाजी, बालासाहेब और मराठी-मानुस आदि पर कोई एकाधिकार है। पार्टी ने इन सभी अस्मिताओं पर दावेदारी ठोंकी और खासतौर पर मराठी-मानुस और भारतीय अस्मिता की पारस्परिकता स्थापित कर दी। इसमें प्रधानमंत्री मोदी के भाषणों का विशेष योगदान रहा।
तीसरी महत्वपूर्ण बात है कि भाजपा ने महाराष्ट के सभी क्षेत्रों-उत्तर महाराष्ट्र, विदर्भ, मराठवाड़ा, मुंबई-ठाणे और पश्चिमी महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा सीटें और वोट प्राप्त किए। केवल कोंकण में शिवसेना को ज्यादा वोट और सीटें मिलीं, लेकिन चूंकि कोंकण में केवल 15 सीटें थीं इसलिए उसका कोई विशेष लाभ सेना को नहीं मिला। इतना ही नहीं, वैसे तो भाजपा को सभी समुदायों से वोट मिले, लेकिन चौंकाने वाली बात है कि उसे ग्रामीण, अद्र्धग्रामीण और शहरी, तीनों ही क्षेत्रों में सबसे ज्यादा वोट मिले। इससे लगता है कि महाराष्ट्र में भी उत्तर प्रदेश का मतदान-मॉडल दोहराया गया यद्यपि भाजपा का कुल वोट प्रतिशत महाराष्ट्र में 29.1 प्रतिशत रहा। महाराष्ट्र के असली खिलाड़ी पवार ने अपनी चालों से राकांपा का अधिकतम बचाव कर लिया।
यह जरूर है कि फड़नवीस सरकार पर चुनावी वादों को पूरा करने और भ्रष्ट प्रकृति वाली पार्टी के नेताओं पर मुकदमा चलाने का दबाव तो पड़ेगा, पर देखना है कि मुख्यमंत्री अपने चुनावी वादों (अजित पवार, छगन भुजबल आदि नेताओं पर मुकदमा चलाने) और पवार के प्रति अपनी पार्टी का ऋण चुकाने में कैसे संतुलन बनाते हैं। भाजपा ने महाराष्ट्र में एक साफ-सुथरी छवि वाले नेता को मुख्यमंत्री बनाया है। महाराष्ट्र को मोदी ने विकास का सपना दिखाया है। देखना है कि कैसे मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री मिलकर उस वादे को निभाते हैं। संघ की यह चिंता जरूर होगी कि संगठन की जगह इधर एक-दो व्यक्तियों को सफलता का श्रेय क्यों और कैसे मिल रहा है, लेकिन महाराष्ट्र में इन तमाम खिलाडि़यों में पवार का स्थान अभी भी सबसे ऊपर है।
-कुमार गौरव