Saturday, 8 November 2014

हिंदी का फैलता आकाश

हिंदी का फैलता आकाश
गूगल ने इंटरनेट पर अधिक से क्षेत्रीय सामग्री उपलब्ध कराने के लिए हिंदी में भी वॉइस सर्च की सुविधा उपलब्ध कराने की पहल करके हिंदी के विस्तार को एक नया आयाम दे दिया है। इस पहल से इंटरनेट का दायरा तो बढ़ेगा ही, हिंदी का आकाश और अधिक विस्तृत होगा। स्वाभाविक है कि हिंदी की संघर्ष यात्रा नए पड़ाव पर पहुंचेगी। भाषा और संस्कृति के अंतरसंबंध को समाज विशेष के संदर्भ में ही समझा जा सकता है और भाषा और संस्कृति को समझे बिना किसी समाज को समझना असंभव है। 'हिंदी' शब्द 'हिंदुस्तान के अंदर रहने वालों' और 'हिंदी भाषा' दोनों ही अथरें में प्रयुक्त है। हिंदी/हिंदुस्तानी और 'हिंदवी' के रूप में इसका संदर्भ प्राप्त होता है। हिंदी ब्रज, अवधी, मैथिली, भोजपुरी, राजस्थानी, बुंदेली, कुमायुंनी, हरियाणवी, दखिनी, मगही, कन्नौजी और छत्ताीसगढ़ी आदि तमाम सहभाषाओं से भी उदारतापूर्वक शब्द ग्रहण करती रही है। इसमें अरबी, फारसी, उर्दू और अंग्रेजी के भी अनेकानेक शब्द, मुहावरे और लोकोक्तियां भी शामिल हैं। हिंदी आर्यभाषा तो है, पर बहुक्षेत्रीय है और अनेक भाषाओं और बोलियों का समुच्चय है। इनके प्रभावों के कारण हिंदी विलक्षण रूप से बहुलता वाली भाषा बन जाती है।
भारत में जन्मी, पली और बढ़ी हिंदी देश की संस्कृति का अंग भी है और उसके निर्माण में भी उसकी प्रमुख भूमिका है। धर्म, जाति, क्षेत्र जैसी बाधाएं लांघती हिंदी में अमीर खुसरो, कबीर, सूर, तुलसी, जायसी, मीरा, रैदास, रसखान, भारतेंदु, प्रेमचंद, प्रसाद, निराला जैसे तमाम रचनाकारों का समावेश है। बल्लभाचार्य, रामानुज, विट्ठलदास, रामानंद, केरल के स्वाती तिरुनाल, महाराष्ट्र के संत देवराज, तंजौर के साहजी, मछलीपत्तानम के आंदेल पुरुषोत्ताम ने हिंदी में काव्य-रचना की। गुजरात के नरसी मेहता, महाराष्ट्र के नामदेव और ज्ञानेश्वर, पंजाब के गुरुनानक देव, असम के शंकरदेव, बंगाल के चैतन्य महाप्रभु, गुजरात के महर्षि दयानंद और उत्तार दक्षिण के तमाम सूफी संतों ने हिंदी माध्यम से ही देश के जन-जन तक अपनी बात निवेदित की। इन महान संतों की पदयात्रा और उनकी साखियों, पदों और वाणियों के माध्यम से हिंदी पूरे देश में विचरण करती रही। साथ ही आम जनों के तीर्थाटन, व्यापार, भ्रमण, नौकरी, अध्ययन आदि के कारण भी विभिन्न क्षेत्रों में निरंतर आवाजाही होती रही और हिंदी व्यक्तियों, समुदायों, संस्थाओं के बीच रिश्ते बनाने में भी सहायक हुई। 1915 में दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद गांधीजी ने देश का दौरा किया। उन्हें लगा कि हिंदी ही ऐसी भाषा है जो ज्यादातर लोगों के द्वारा बोली और समझी जाती है। हिंदी जोड़ने का काम करती है। गांधीजी ने हिंदी को संपर्क भाषा के रूप में स्वतंत्रता आंदोलन का हिस्सा बनाया। वे सरल हिंदी को चाहते थे। उनके शब्दों में हिंदी उस भाषा का नाम है जिसे हिंदू और मुसलमान कुदरती तौर पर बगैर प्रयत्‍‌न के बोलते हैं। हिंदुस्तानी और उर्दू में कोई फर्क नहीं है। देवनागरी में लिखी जाने पर वह हिंदी और फारसी लिपि में लिखी जाने पर वह उर्दू हो जाती है। भारतीय संसद ने 14 सितंबर 1949 को इसे राजभाषा स्वीकार किया, पर औपनिवेशिक मानसिकता और सीमित स्वाथरें के चलते हिंदी का प्रचार-प्रसार अभी तक वांछित स्तर तक नहीं हो पाया। संविधान के अनुच्छेद 343 में 'राजभाषा' के रूप में उल्लिखित और अनुच्छेद 351 में वर्णित संविधान की 8वीं अनुसूची में समाविष्ट है। हिंदी लगभग पचास करोड़ जनों की मातृभाषा है, साहित्यिक भाषा है और जातीय भाषा है। नागरी लिपि में लिखी जाने वाली कई अन्य भाषाएं भी हिंदी के निकट हैं।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिंदी के विकास में प्रवासी भारतीयों की विशेष भूमिका रही है। वे भारत से बाहर भारत की भाषा-संस्कृति को जीवंत किए हुए हैं। अप्रवासी भारतवंशी बिहार, पूर्वी उत्तार प्रदेश से खेती के लिए शर्तबंदी श्रमिकों के रूप में मॉरीशस, त्रिनिडाड, दक्षिण अफ्रीका, गुयाना, सूरीनाम तथा फिजी में गए। इन अप्रवासी भारतीयों की संस्कृति और अस्मिता की पहचान के रूप में भोजपुरी और अवधी के मिश्रित रूप वाली हिंदी ही आधार बनी रही। वह फिजी में 'फिजी हिंदी', सूरीनाम में 'सरनामी', दक्षिण अफ्रीका में 'नेताली' और उज्बेकिस्तान और कजाकिस्तान में 'पार्या' कहलाई। हिंदी के अध्ययन में विदेशी विद्वानों ने भी गंभीर रुचि दिखाई है। हिंदी का प्रथम इतिहास एक फ्रांसीसी ने लिखा। भारतीय भाषाओं का सर्वेक्षण अंग्रेज जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन द्वारा किया गया और प्रथम शोध प्रबंध अंग्रेज जेआर कारपेंटर ने तुलसीदास पर किया। विदेशियों ने सृजनात्मक साहित्य भी रचा है। विदेश में हिंदी की पत्र-पत्रिकाओं का भी प्रकाशन हो रहा है। मॉरीशस का 'बसंत', इग्लैंड की 'पुरवाई', अमेरिका का 'सौरभ' और 'विश्वविवेक' तथा नार्वे का 'शांतिदूत' प्रमुख प्रकाशन हैं। अनेक भाषाओं के द्विभाषी शब्दकोश भी तैयार हुए हैं। प्रवासी भारतीयों द्वारा महत्वपूर्ण लेखन हो रहा है। वे हिंदी को भारतीय अस्मिता का प्रतीक मानते हैं। अनेक रचनाओं का विदेशी भाषाओं में अनुवाद हुआ है। कंप्यूटर और इंटरनेट के चलते हिंदी की वैश्रि्वक धरातल पर उपस्थिति हो रही है, जैसा कि गूगल की पहल से स्पष्ट होता है। अखबारों के ई-संस्करण भी हो रहे हैं। आज हिंदी थाईलैंड, संयुक्त राज्य अमेरिका, तथा इंग्लैंड आदि अनेक देशों में भी प्रयुक्त है। संख्या की दृष्टि से चीनी और अंग्रेजी के बाद इसी की स्थिति है।
साहित्य की दृष्टि से हिंदी भाषा सृजनधर्मी, लचीली और संप्रेषण लायक हुई है। संचार माध्यमों में हिंदी प्रभावी हो रही है। उसके उपयोग के क्षेत्र बढ़े हैं और अभिव्यक्ति-साम‌र्थ्य का विस्तार हुआ है। दोहों, छंदों से चलकर मुक्त छंद नई कविता तक हिंदी की यात्रा उल्लेखनीय है। फिल्म, संगीत, नृत्य और अन्य कलाओं की दुनिया में हिंदी की महत्वपूर्ण उपस्थिति है। हिंदी क्षेत्र में हिंदी उच्च शिक्षा की भाषा बन रही है। हिंदी साहित्य आधुनिकता और उसके बाद के विमर्श से भी रूबरू है। आज 'हिंग्लिश' जन्म ले रही है और सरल बनाने के नाम पर हिंदी अंग्रेजी जैसी बनाई जा रही है। संस्कृतनिष्ठ हिंदी भी अबूझ होने के कारण प्रयोग से बाहर हो जाती है। हिंदी भारत की सांस्कृतिक विरासत की वाहिका और सामाजिक स्मृति का कोष है। वह भारत के लिए एक महत्वपूर्ण खिड़की है, जिसे खुला रखना आवश्यक है। हमें विश्वास है कि भाषा के प्रति गंभीर रुख अपनाया जाएगा और हिंदी को समर्थ बनाया जाएगा।
गिरीश्वर मिश्र
[लेखक महात्मा गांधी हिंदी विवि के कुलपति हैं]

Saturday, 1 November 2014

नई दिशा में महाराष्ट्र

नई दिशा में महाराष्ट्र

महाराष्ट्र में देवेंद्र फड़नवीस के नेतृत्व में पहली बार भाजपा की सरकार बनी है। यह चमत्कार ही है कि अल्पमत में होते हुए भी भाजपा की इस सरकार को दो-दो विरोधियों- उद्धव ठाकरे की शिवसेना और शरद पवार की राकांपा से समर्थन मिल रहा है। वस्तुत: महाराष्ट्र का यह चुनाव कुछ प्रवृत्तियों का संकेतक है। एक, इस चुनाव ने भाजपा और शिवसेना के संबंधों को हमेशा के लिए पुनर्परिभाषित कर दिया है। दो, भाजपा को संपूर्ण महाराष्ट्र में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने का मौका मिल गया। तीन, कांग्रेस और राकांपा के भ्रष्ट नेताओं के बुरे-दिन दूर नहीं और चौथा, मोदी-अमित शाह की टीम ने मुख्यमंत्री के चयन में किसी दबाव को तरजीह नहीं दी।
इन चुनावों में उद्धव ठाकरे ने अपने जीवन का सबसे गलत निर्णय लिया और अपनी हठधर्मिता के कारण भाजपा से गठबंधन तोड़ लिया। भाजपा तो शुरू से इस गठबंधन में अपने को छोटा-पार्टनर मानकर केवल 130 सीटें मांग रही थी, जो कुल सीटों का 45 प्रतिशत थी, लेकिन सेना द्वारा 119 से ज्यादा सीटें न देने और मुख्यमंत्री पद लेने के अडि़यल रवैये से बात बिगड़ गई और 25 वर्ष पुराना गठबंधन टूट गया। इसका बहुत बड़ा नुकसान उन दोनों को होने से बच गया, क्योंकि महाराष्ट्र के सबसे बड़े खिलाड़ी शरद पवार को यह अहसास हो गया था कि सरकार भाजपा की बनने वाली है और उन्होंने अपनी चालें चल दीं।
पवार ने कई चालें चलीं। सबसे पहले भाजपा-सेना गठबंधन टूटते ही उन्होंने कांग्रेस से अपना गठबंधन तोड़ दिया। परिणामस्वरूप भाजपा को होने वाले नुकसान को उन्होंने खत्म कर दिया। यदि भाजपा-सेना गठबंधन होता और भाजपा को 130 सीटें भी मिली होतीं तो भी वे उसमें से 122 सीटें कभी नहीं जीत पाते। दूसरे, चुनाव में चौथे नंबर पर आने के साथ ही पवार ने भाजपा को अपनी पार्टी का बिन मांगे बिना शर्त समर्थन दे दिया, जिससे शिवसेना का सारा खेल बिगड़ गया। उद्धव ठाकरे ने सोचा था कि कुछ ज्यादा संख्या में आने के कारण वे भाजपा से मोल-तोल करेंगे, लेकिन भाजपा तो एकदम निश्चिंत हो गई और सेना को अंत में घुटने टेकने पड़े और बाहर से समर्थन देने का संकेत देना पड़ा।
तीसरे, पवार का असली ट्रंप कार्ड तो तब सामने आया जब उन्होंने यह भी घोषित कर दिया कि फड़नवीस सरकार के विश्वास-मत के समय राकांपा सदन में मतदान नहीं करेगी, जो इस बात का संकेतक था कि पवार नहीं चाहते हैं कि भाजपा को सरकार बनाने के मुद्दे पर कोई भी कष्ट हो और चौथा, वानखेड़े स्टेडियम को फड़नवीस सरकार के शपथ-ग्रहण समारोह के लिए निशुल्क देकर पवार ने रही-सही कमी भी पूरी कर दी। पवार के इस राजनीतिक दांव का कोई सानी नहीं और इसका पूर्वानुमान न तो भाजपा को था न शिवसेना को।
इन चालों का एक और परिणाम होते-होते बचा। पवार के कारण शिवसेना के विधायकों में इतनी बेचैनी बढ़ गई कि कयास लगाए जाने लगे थे कि कहीं उनमें भगदड़ न मच जाए और पार्टी में कहीं विभाजन न हो जाए। विभाजन के लिए 21 विधायकों का टूटना जरूरी था, पर उद्धव के नरम पड़ने से उसकी संभावना जाती रही और विधायकों को यह संकेत दे दिया गया कि आगे-पीछे वे सरकार में सम्मिलित होंगे। वे 15 वर्षों से विपक्ष में बैठ रहे थे और जब सत्ता भोगने का समय आया तो उद्धव उनको वंचित कर रहे थे। महाराष्ट्र के चुनाव परिणामों की कुछ बातें आश्चर्य पैदा करती हैं। एक, पच्चीस वर्षों में पहली बार किसी भी पार्टी को एक-सैकड़ा सीटें प्राप्त करने का मौका मिला।
इसके पूर्व 1990 में कांग्रेस को 141 सीटें मिली थीं और भाजपा को यह सफलता तब मिली जब उसका पूरे महाराष्ट्र में पार्टी-संगठन नहीं था, खास तौर पर उन निर्वाचन क्षेत्रों में जहां से शिवसेना चुनाव लड़ती रही है। अंतिम दो दिनों में 288 प्रत्याशियों का चयन करना और प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में प्रचार और विजय की रणनीति बनाना और उसमें से 122 सीटें जीतना अपने आप में कठिन बात है। दूसरे, भाजपा ने इस मिथक को भी तोड़ दिया कि शिवसेना का छत्रपति शिवाजी, बालासाहेब और मराठी-मानुस आदि पर कोई एकाधिकार है। पार्टी ने इन सभी अस्मिताओं पर दावेदारी ठोंकी और खासतौर पर मराठी-मानुस और भारतीय अस्मिता की पारस्परिकता स्थापित कर दी। इसमें प्रधानमंत्री मोदी के भाषणों का विशेष योगदान रहा।
तीसरी महत्वपूर्ण बात है कि भाजपा ने महाराष्ट के सभी क्षेत्रों-उत्तर महाराष्ट्र, विदर्भ, मराठवाड़ा, मुंबई-ठाणे और पश्चिमी महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा सीटें और वोट प्राप्त किए। केवल कोंकण में शिवसेना को ज्यादा वोट और सीटें मिलीं, लेकिन चूंकि कोंकण में केवल 15 सीटें थीं इसलिए उसका कोई विशेष लाभ सेना को नहीं मिला। इतना ही नहीं, वैसे तो भाजपा को सभी समुदायों से वोट मिले, लेकिन चौंकाने वाली बात है कि उसे ग्रामीण, अद्र्धग्रामीण और शहरी, तीनों ही क्षेत्रों में सबसे ज्यादा वोट मिले। इससे लगता है कि महाराष्ट्र में भी उत्तर प्रदेश का मतदान-मॉडल दोहराया गया यद्यपि भाजपा का कुल वोट प्रतिशत महाराष्ट्र में 29.1 प्रतिशत रहा। महाराष्ट्र के असली खिलाड़ी पवार ने अपनी चालों से राकांपा का अधिकतम बचाव कर लिया।
यह जरूर है कि फड़नवीस सरकार पर चुनावी वादों को पूरा करने और भ्रष्ट प्रकृति वाली पार्टी के नेताओं पर मुकदमा चलाने का दबाव तो पड़ेगा, पर देखना है कि मुख्यमंत्री अपने चुनावी वादों (अजित पवार, छगन भुजबल आदि नेताओं पर मुकदमा चलाने) और पवार के प्रति अपनी पार्टी का ऋण चुकाने में कैसे संतुलन बनाते हैं। भाजपा ने महाराष्ट्र में एक साफ-सुथरी छवि वाले नेता को मुख्यमंत्री बनाया है। महाराष्ट्र को मोदी ने विकास का सपना दिखाया है। देखना है कि कैसे मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री मिलकर उस वादे को निभाते हैं। संघ की यह चिंता जरूर होगी कि संगठन की जगह इधर एक-दो व्यक्तियों को सफलता का श्रेय क्यों और कैसे मिल रहा है, लेकिन महाराष्ट्र में इन तमाम खिलाडि़यों में पवार का स्थान अभी भी सबसे ऊपर है।
-कुमार गौरव 

Thursday, 30 October 2014

लोक आस्था का पर्व - छठ



  • लोक आस्था का पर्व - छठ
  • छठ पर्व मूलतः सूर्य की आराधना का पर्व है, जिसे हिंदू धर्म में विशेष स्थान प्राप्त है। हिंदू धर्म के देवताओं में सूर्य ऐसे देवता हैं जिन्हें मूर्त रूप में देखा जा सकता है। सूर्य की शक्तियों का मुख्य श्रोत उनकी पत्नी ऊषा और प्रत्यूषा हैं। छठ में सूर्य के साथ-साथ दोनों शक्तियों की संयुक्त आराधना होती है। प्रात:काल में सूर्य की पहली किरण (ऊषा) और सायंकाल में सूर्य की अंतिम किरण (प्रत्यूषा) को अघ्र्य देकर दोनों का नमन किया जाता है।
  • भारत में सूर्योपासना ऋग वैदिक काल से होती आ रही है। सूर्य और इसकी उपासना की चर्चा विष्णु पुराण, भगवत पुराण, ब्रह्मा वैवर्त पुराण आदि में विस्तार से की गई है। मध्य काल तक छठ सूर्योपासना के व्यवस्थित पर्व के रूप में प्रतिष्ठित हो गया, जो अभी तक चला आ रहा है। 
  • सृष्टि और पालन शक्ति के कारण सूर्य की उपासना सभ्यता के विकास के साथ विभिन्न स्थानों पर अलग-अलग रूप में प्रारंभ हो गई, लेकिन देवता के रूप में सूर्य की वंदना का उल्लेख पहली बार ऋगवेद में मिलता है। इसके बाद अन्य सभी वेदों के साथ ही उपनिषद आदि वैदिक ग्रंथों में इसकी चर्चा प्रमुखता से हुई है। निरुक्त के रचियता यास्क ने द्युस्थानीय देवताओं में सूर्य को पहले स्थान पर रखा है।
  • उत्तर वैदिक काल के अंतिम कालखंड में सूर्य के मानवीय रूप की कल्पना होने लगी। इसने कालांतर में सूर्य की मूर्ति पूजा का रूप ले लिया। पौराणिक काल आते-आते सूर्य पूजा का प्रचलन और अधिक हो गया। अनेक स्थानों पर सूर्य देव के मंदिर भी बनाए गए। पौराणिक काल में सूर्य को आरोग्य देवता भी माना जाने लगा था। सूर्य की किरणों में कई रोगों को नष्ट करने की क्षमता पाई गई। ऋषि-मुनियों ने अपने अनुसंधान के क्रम में किसी खास दिन इसका प्रभाव विशेष पाया। संभवत: यही छठ पर्व के उद्भव की बेला रही हो। भगवान कृष्ण के पौत्र शाम्ब को कुष्ठ हो गया था। इस रोग से मुक्ति के लिए विशेष सूर्योपासना की गई, जिसके लिए शाक्य द्वीप से ब्राह्मणों को बुलाया गया था।
  • छठ जैसी खगौलीय स्थिति (चंद्रमा और पृथ्वीके भ्रमण तलोंकी सम रेखाके दोनों छोरोंपर) सूर्यकी पराबैगनी किरणें कुछ चंद्र सतहसे परावर्तित तथा कुछ गोलीय अपवर्तित होती हुई, पृथ्वीपर पुन: सामान्यसे अधिक मात्रामें पहुंच जाती हैं। वायुमंडलके स्तरोंसे आवर्तित होती हुई, सूर्यास्त तथा सूर्योदयको यह और भी सघन हो जाती है। ज्योतिषीय गणनाके अनुसार यह घटना कार्तिक तथा चैत्र मासकी अमावस्याके छ: दिन उपरांत आती है। ज्योतिषीय गणनापर आधारित होनेके कारण इसका नाम और कुछ नहीं, बल्कि छठ पर्व ही रखा गया है।
  • छठ उत्सव के केंद्र में छठ व्रत है जो एक कठिन तपस्या की तरह है। यह प्रायः महिलाओं द्वारा किया जाता है किंतु कुछ पुरुष भी यह व्रत रखते हैं। व्रत रखने वाली महिला को परवैतिन भी कहा जाता है। चार दिनों के इस व्रत में व्रती को लगातार उपवास करना होता है। भोजन के साथ ही सुखद शैय्या का भी त्याग किया जाता है। पर्व के लिए बनाए गए कमरे में व्रती फर्श पर एक कंबल या चादर के सहारे ही रात बिताई जाती है। इस उत्सव में शामिल होने वाले लोग नए कपड़े पहनते हैं। पर व्रती ऐसे कपड़े पहनते हैं, जिनमें किसी प्रकार की सिलाई नहीं की होती है। महिलाएं साड़ी और पुरुष धोती पहनकर छठ करते हैं। ‘शुरू करने के बाद छठ पर्व को सालोंसाल तब तक करना होता है, जब तक कि अगली पीढ़ी की किसी विवाहित महिला को इसके लिए तैयार न कर लिया जाए। घर में किसी की मृत्यु हो जाने पर यह पर्व नहीं मनाया जाता है।’
  • ऐसी मान्यता है कि छठ पर्व पर व्रत करने वाली महिलाओं को पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है। पुत्र की चाहत रखने वाली और पुत्र की कुशलता के लिए सामान्य तौर पर महिलाएं यह व्रत रखती हैं। किंतु पुरुष भी यह व्रत पूरी निष्ठा से रखते हैं।
  • छठ पर्व छठ, षष्टी का अपभ्रंश है। कार्तिक मास की अमावस्या को दीवाली मनाने के तुरंत बाद मनाए जाने वाले इस चार दिवसिए व्रत की सबसे कठिन और महत्वपूर्ण रात्रि कार्तिक शुक्ल सष्ठी की होती है। इसी कारण इस व्रत का नामकरण छठ व्रत हो गया। यह पर्व चार दिनोंका है। भैयादूज के तीसरे दिनसे यह आरंभ होता है। पहले दिन सैंधा नमक, घी से बना हुआ अरवा चावल और कद्दूकी सब्जी प्रसाद के रूप में ली जाती है। अगले दिनसे उपवास आरंभ होता है। इस दिन रात में खीर बनती है। व्रतधारी रात में यह प्रसाद लेते हैं। तीसरे दिन डूबते हुए सूर्य को अर्घ्य यानी दूध अर्पण करते हैं। अंतिम दिन उगते हुए सूर्य को अर्घ्य चढ़ाते हैं। इस पूजा में पवित्रता का ध्यान रखा जाता है; लहसून, प्याज वर्ज्य है। जिन घरों में यह पूजा होती है, वहां भक्तिगीत गाए जाते हैं। आजकल कुछ नई रीतियां भी आरंभ हो गई हैं, जैसे पंडाल और सूर्यदेवता की मूर्ति की स्थापना करना। उसपर भी रोषनाई पर काफी खर्च होता है और सुबह के अर्घ्यके उपरांत आयोजनकर्ता माईक पर चिल्लाकर प्रसाद मांगते हैं। पटाखे भी जलाए जाते हैं। कहीं-कहीं पर तो ऑर्केस्ट्राका भी आयोजन होता है; परंतु साथ ही साथ दूध, फल, उदबत्ती भी बांटी जाती है। पूजा की तैयारी के लिए लोग मिलकर पूरे रास्ते की सफाई करते हैं।
  • छठ पूजा चार दिवसीय उत्सव है। इसकी शुरुआत कार्तिक शुक्ल चतुर्थी को तथा समाप्ति कार्तिक शुक्ल सप्तमी को होती है। इस दौरान व्रतधारी लगातार 36 घंटे का व्रत रखते हैं। इस दौरान वे पानी भी ग्रहण नहीं करते।
  • नहाय खाय 
  • पहला दिन कार्तिक शुक्ल चतुर्थी ‘नहाय-खाय’ के रूप में मनाया जाता है। सबसे पहले घर की सफाइ कर उसे पवित्र बना लिया जाता है। इसके पश्चात छठव्रती स्नान कर पवित्र तरीके से बने शुद्ध शाकाहारी भोजन ग्रहण कर व्रत की शुरुआत करते हैं। घर के सभी सदस्य व्रती के भोजनोपरांत ही भोजन ग्रहण करते हैं। भोजन के रूप में कद्दू-दाल और चावल ग्रहण किया जाता है। यह दाल चने की होती है।
  • लोहंडा और खरना 
  • दूसरे दिन कार्तीक शुक्ल पंचमी को व्रतधारी दिन भर का उपवास रखने के बाद शाम को भोजन करते हैं। इसे ‘खरना’ कहा जाता है। खरना का प्रसाद लेने के लिए आस-पास के सभी लोगों को निमंत्रित किया जाता है। प्रसाद के रूप में गन्ने के रस में बने हुए चावल की खीर के साथ दूध, चावल का पिट्ठा और घी चुपड़ी रोटी बनाई जाती है। इसमें नमक या चीनी का उपयोग नहीं किया जाता है। इस दौरान पूरे घर की स्वच्छता का विशेष ध्यान रखा जाता है।
  • संध्या अर्घ्य  
  • तीसरे दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को दिन में छठ प्रसाद बनाया जाता है। प्रसाद के रूप में ठेकुआ, जिसे कुछ क्षेत्रों में टिकरी भी कहते हैं, के अलावा चावल के लड्डू, जिसे लड़ुआ भी कहा जाता है, बनाते हैं। इसके अलावा चढ़ावा के रूप में लाया गया साँचा और फल भी छठ प्रसाद के रूप में शामिल होता है।
  • शाम को पूरी तैयारी और व्यवस्था कर बाँस की टोकरी में अर्घ्य का सूप सजाया जाता है और व्रति के साथ परिवार तथा पड़ोस के सारे लोग अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देने घाट की ओर चल पड़ते हैं। सभी छठव्रती एक नीयत तालाब या नदी किनारे इकट्ठा होकर सामूहिक रूप से अर्घ्य दान संपन्न करते हैं। सूर्य को जल और दूध का अर्घ्य दिया जाता है तथा छठी मैया की प्रसाद भरे सूप से पूजा की जाती है। इस दौरान कुछ घंटे के लिए मेले का दृश्य बन जाता है।
  • उषा अर्घ्य
  • चौथे दिन कार्तिक शुक्ल सप्तमी की सुबह उदियमान सूर्य को अघ्र्य दिया जाता है। ब्रती वहीं पुनः इक्ट्ठा होते हैं जहाँ उन्होंने शाम को अर्घ्य दिया था। पुनः पिछले शाम की प्रक्रिया की पुनरावृत्ति होती है। अंत में व्रति कच्चे दूध का शरबत पीकर तथा थोड़ा प्रसाद खाकर व्रत पूर्ण करते हैं।

  • प्रस्तुति- कल्याण कुमार सिन्हा 

Tuesday, 12 August 2014

सरकारी खजाने (कोषागार) में डकैती !

सरकारी खजाने (कोषागार) में डकैती !


अकोला जिलाधिकारी कार्यालय में स्थित जिला कोषागार कक्ष में डकैती की एक बड़ी वारदात रविवार10 अगस्त की शाम हुई. स्वतंत्र भारत के इतिहास में जिला कोषागार लूटने अथवा इस तरह सरकारी खजाने पर हाथ डालने का दुस्साहस पहले और कहीं होने का कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता. इसे बैंक डकैती जैसी वारदात नहीं है. इसे टाला या दबाया भी नहीं जा सकता. जिला पुलिस मुख्यालय से मात्र 100 मीटर पर हुई यह घटना सिर्फ जिला प्रशासन और जिला पुलिस के लिए ही मात्र शर्म की बात नहीं है, यह राज्य सरकार को भी खुली चुनौती है. जिला कोषागार किसी भी सरकार की अस्मिता से जुड़ी संस्था होती है. उस पर हाथ डालने का दुस्साहस कोई आम चोर, लुटेरा या डकैत नहीं हो सकता. कोषागार में मात्र कोई रुपए ही नहीं रखे होते.
डकैती का यह अपराध राज्य सरकार के माथे पर कलंक का एक टीका के समान है. सरकार की साख को धक्का पहुंचाने वाला है. आगामी विधानसभा चुनावों के माहौल में यह डकैती कांड सरकार और सत्तारूढ़ दल के विरुद्ध विपक्ष एक हथियार के भी रूप इस्तेमाल कर सकता है.
जिला कोषागार वास्तव में जिले की सभी तरह की वैध लेन-देन का रिकार्ड रखता है. कोषागार में विभिन्न प्रकार की सरकारी संपत्ति के लिए विभिन्न प्रकार के रजिस्टर रखे जाते हैं. इन रजिस्टरों पर इन संपत्ति की जानकारी लिखी होती है. कोषागारों में राज्य सरकार के कार्यालयों में कार्यरत अधिकारियों, कर्मचारियों के वेतन तथा अन्य मदों से सम्बन्धित व्ययों जैसे यात्रा व्यय, आकस्मिक व्यय (जिनका बजट कोषागार एवं सम्बन्धित कार्यालय में उपलब्ध है) को कोषागार में देयक के रूप में प्रस्तुत कर व्यय करने की कार्रवाई की जाती है. साथ ही यहां पेंशन वितरण का कार्य जैसे सिविल पेंशन, राजनैतिक पें, रक्षा पें, अन्य प्रदेश सरकार से सेवा निवृत्त कर्मचारियों को देय पेंशन योजनाओं के अन्तर्गत प्रत्येक माह पेंशनरों द्वारा उपलब्ध करा बैंक खातों में बैंकों के माध्यम से भुगतान किया जाता है. सम्बन्धित बैंक की मुख्य शाखा के नाम से कोषागार द्वारा चेक जारी करने के उपरान्त बैंक को फ्लौपी के माध्यम से पेंशनरों का डाटा उपलब्ध कराया जाता हैं, जिससे बैंक द्वारा माह की पहली तारीख को पेंशनरों के खातों में पेंशन जमा कर दी जाती है. ऐसे खाते अमूमन भारतीय स्टेट बैंक में होते हैं. अकोला कोषागार में डकैती का अंजाम देने वाले इन दुस्साहसी डकैतों को भी निश्चय ही इसका पता होगा. फिर इस दुस्साहसिक वारदात को अंजाम देने वाले का उद्देश्य क्या हो सकता है, यह विचारणीय है.
इन दस्तावेडों के साथ ही कोषागारों में कुछ बहुमूल्य चीजें होती हैं, वह कोर्ट फी स्टैंप, जनरल स्टैंप, कुछ सरकारी रकम एवं सोने के रूप में होती हैं. जिला कोषागार कक्ष में कुछ पुरातन दस्तावेज, सोने, हीरे-जवाहरात की अनेक वस्तुएं, जिसमें गिन्नी एवं अन्य ऐतिहासिक वस्तुओं का समावेश भी होता है. इनकी जानकारी भी उच्चाधिकारियों एवं खास लोगों को ही होती है.
अकोला की इस वारदात की जानकारी संध्या समय लगभग 6.30 बजे लोगों को तब हुई, जब कोषागार कक्ष के बाहर सुरक्षा गार्ड मनोहर धारपवार को बेहाश पड़ा पाया गया. 10 अगस्त को रविवार के साथ-साथ रक्षा बंधन सरकारी अवकाश भी था. इसका लाभ उठाकर अज्ञात डकैतों ने इस वारदात को अंजाम देने का दुस्साहस किया. बड़ी ही चालाकी से कोषागार कक्ष का ताला तोड़कर अंदर प्रवेश किया. मुख्य ताला तोने के बाद डकैतों द्वारा कक्ष के भीतर वाले चार ताले भी सब्बल एवं पेंचकच की सहायता से तो डाले गए और बाद में कक्ष के भीतर वाली बंद पेटियों से उनके अंदर स्थित स्टैंप को भी कक्ष में तितर-बितर कर दिया. अन्य पेटियां भी तोड़ी और कक्ष के भीतर स्थित रैक क्र. चार तोकर उसमें से भी लाखों का माल चुरा लेने की संभावना है. कक्ष के भीतर सभी प्रकार के बां(स्टैंप पेपर) रखे जाते हैं. डकैतों द्वारा इन सभी बांड भी उड़ा लिए जाने की संभावना है. क्यों कि प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार कक्ष के भीतर पांच सौ एवं हजार रुपए के बांड तितर-बितर पड़े हुए थे.
जिला कोषागार अधिकारी सं.बा. सोनी ही अब बता सकते हैं कि कि कोषागार कक्ष से क्या-क्या और कितनी रकम गई है. कोषागार में विभिन्न प्रकार की सरकारी संपत्ति के लिए विभिन्न प्रकार के रजिस्टर रखे जाते हैं. इन रजिस्टरों पर इन संपत्ति की जानकारी लिखी जाती है. कक्ष से चुराई गई सामग्री एवं रजिस्टरों पर अंकित सामग्री को जांचने के बाद ही डकैती की रकम ज्ञात हो सकेगी.
फिलहाल संभागीय आयुक्त सहित अमरावती संभाग के जिलों के पुलिस एवं प्रशासनिक अधिकारियों के तबादले हुए हैं. अकोला पुलिस प्रशासन की भी यही स्थिति है. पुलिस अधीक्षक भी नए हैं. बताया गया कि घटना के दिन वे शहर से बाहर गए हुए थे. डकैतों ने सारी स्थिति-परिस्थिति को वारदात के अनुकूल देख अवकाश के दिन ऐसे समय इसे अंजाम दिया, जब उनके लिए जोखिम न के बराबर था. इस वारदात की जांच अब महाराष्ट्र सरकार कितनी गंभीरता और तत्परता से कराती है, यह देखना है.
पुनश्च : अब तक जिला कोषागारों में सरकारी अधिकारियों द्वारा ही हेराफेरी करने की खबरें सुनने को मिलती थी. स्टैम्प घोटाला, चारा घोटाला जैसे प्रसिद्ध घोटालों का जन्म देश के विभिन्न कोषागारों में ही हुआ था. अब डकैत भी सामने आ गए हैं....


- कल्याण कुमार सिन्हा

Thursday, 31 July 2014

सत्ता का मद ठीक नहीं!

सत्ता का मद ठीक नहीं!

शिवसेना सांसदों की उग्रता, आपराधिक कृत्य

जन-प्रतिनिधियों से अपेक्षा की जाती है कि वे लोकतंत्र की मर्यादा के अनुरूप आचरण करें. किन्तु समय-समय पर मर्यादा की हदें पार कर जाने की जो वारदातें सामने आती हैं, वह अत्यंत निराश करने वाली होती हैं. ताजा मामला नई दिल्ली स्थित न्यू महाराष्ट्र सदन में ठहरे शिवसेना सांसदों के व्यवहार का है. इन सांसदों की मांग थी कि उन्हें महाराष्ट्र के व्यंजन परोसे जाएं. न्यू महाराष्ट्र सदन में खानपान की जिम्मेदारी आइआरसीटीसी को सौंपी गई है, जो भारतीय रेल में खानपान सेवा संचालित करती है. ये सांसद कई दिन से सदन में बिजली, पानी, साफ-सफाई, भोजन-व्यवस्था आदि से जुड़ी शिकायतें कर रहे थे. पिछले दिन इन्होंने प्रेसवार्ता बुलाई और फिर संवाददाताओं के साथ भोजन कक्ष में गए और वहां रखे बर्तन वगैरह उठा कर फेंकना शुरू कर दिया. वहां तैनात कर्मचारियों को अभद्र शब्द कहे. फिर रसोई में गए, जहां आइआरसीटीसी के आवासी प्रबंधक अरशद जुबैर कर्मचारियों को भोजन आदि से संबंधित निर्देश दे रहे थे. खबर है कि इन सांसदों ने उनकी गर्दन पकड़ी और उनके मुंह में जबरन रोटी ठूंस दी. जुबैर उस वक्त रोजे पर थे. उनकी धार्मिक भावना को जो ठेस पहुंची होगी, उसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है. जुबैर ने अपनी वर्दी पहन रखी थी और उस पर उनके नाम की पट्टिका भी लगी थी. फिर भी शिवसेना सांसदों ने उनके साथ यह दुर्व्यवहार किया तो यह कहना शायद गलत नहीं होगा कि ऐसा जानबूझ कर किया होगा. कुछ सांसदों की यह सफाई कि उन्हें पता नहीं था कि वह कर्मचारी मुस्लिम था, से उनका अपराध कम नहीं हो जाता. किसी के साथ भी इस तरह के व्यवहार आपराधिक ही माना जाएगा.  फर्ज कीजिये, गुस्से में उस कर्मचारी ने उनमें से किसी एक सांसद को बदले में एक चांटा ही जड़ दिया होता, तब? बात कहां से कहां जा पहुंचती!  

शिवसेना के नेताओं, कार्यकर्ताओं की उग्रता किसी से छिपी नहीं है, खासकर मुसलिम समुदाय के प्रति उनका बैर-भाव जब-तब उजागर होता रहा है. लेकिन पार्टी के सांसदों ने जिन्होंने संविधान की रक्षा की शपथ ली है और जिन पर कानून बनाने एवं उसके पालन का दायित्व है, उन्हें इस प्रकार के आपराधिक कृत्य करना क्या शोभा देता है? क्या उनकी निगाह में कानून का कोई मूल्य नहीं है? क्या अपने सांसद होने की गरिमा का इन्हें तनिक खयाल नहीं है? हालांकि इस घटना पर न्यू महाराष्ट्र सदन के आवासी आयुक्त ने आइआरसीटीसी और अरशद जुबैर से माफी मांग ली है, महाराष्ट्र के मुख्य सचिव ने घटना की जांच कराने के बाद उचित कार्रवाई का वचन भी दिया है. मगर इस तरह अरशद की भावनाओं को तो ठेस पहुंचीचोट पर मरहम नहीं लगाया जा सकता. इन दिनों रमजान चल रहा है और रोजा रखे किसी व्यक्ति के उपवास धार्मिक फर्ज होता है. ऐसे में इन सांसदों ने अरशद के मुंह में जबरन रोटी ठूंसी तो यह उनकी आस्था को चोट पहुंचाने के लिए ही किया होगा. इससे मुसलिम समुदाय के प्रति शिवसेना की नफरत की भावना एक बार फिर जाहिर हुई है. 

तो क्या सांसद बन जाने के बाद भी वे पूरे देश और पूरे समाज के लिए नहीं सोचते? वहां खानपान को लेकर एतराज को इस तरह जाहिर करना लोकतांत्रिक व्यवस्था में उनके विश्वास पर भी सवालिया निशान लगाता है. इसके लिए वे रसोई का ठेका किसी और कंपनी को दिलाने का सुझाव दे सकते थे. मुख्यमंत्री से शिकायत कर सकते थे, संसद में मामला उठा सकते थे, प्रधानमंत्री और रेलमंत्री से आईआरसीटीसी की शिकायत कर सकते थे. उनके पास इस समस्या से निपटने के ढेर सारे विकल्प थे, लेकिन उन्होंने इनमें से किसी विकल्प को नहीं चुना और ऐसा कृत्य किया, जो गुनाह या अपराध की श्रेणी में आता है. 

शिवसेना के लोग संयम नहीं जानते. जिस तरह वे जोर-जबर्दस्ती से अपनी बात मनवाने के आदी रहे हैं, पार्टी के सांसद भी उसी तरीके से न्यू महाराष्ट्र सदन में पेश आए. इस मामले में शिवसेना अफसोस जताने के बजाय अपने सांसदों की बदसलूकी को जायज ठहराने में लगी है. शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे  का इस मामले में यह कथन कि उनकी पार्टी हिन्दुत्ववादी होते हुए भी किसी धर्म का अपमान नहीं करती, उद्धव की यह टिप्पणी बहुत कुछ कह जाती है. शिवसेना का इतिहास बताता है की जब-जब वह सत्ता में होती है, तब-तब उसका रवैया ऐसा ही गैरजिम्मेदाराना हो जाता है. शिवशाही के दिनों में शिवसेना नेता और कार्यकर्ता इसी तरह सरकारी अधिकारियों और आम लोगों के साथ पेश आते थे. तब उनके ऐसे कृत्यों का समर्थन करते हुए सेना सुपीमों स्व. बालासाहब ठाकरे कहा करते थे कि 'हम ठोकतंत्र में विश्वास करते हैं.' आज लगता है सेना में वही सोच फिरसे काम करने लगा है. 

सेना आज केंद्र में सत्ता में आई है तो उसके पीछे नरेंद्र मोदी का करिश्मा है, मोदी की बदौलत ही आज वे इस मुकाम पर हैं. यह बात उन्हें और भाजपा को भी याद रखना चाहिए. भाजपा को अपनी ही पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी से सीखना चाहिए, जिन्होंने अपने सहयोगी दल के सेना सांसदों के इस आचरण को गलत बताने में एक मिनट का भी देर नहीं लगाया. आगामी विधानसभा चुनावों के बाद उद्धव महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बनाने के ख्वाब देख रहे हैं और भाजपा भी राज्य की सत्ता का स्वाद चखने को आतुर है तो दोनों को यह याद रखनी चाहिए कि पिछले लोकसभा चुनावों में ताजी के मुस्लिम मतदाताओं ने भी नरेंद्र मोदी और उन पर भरोसा कर उन्हें वह चुनाव ऐसे भारी बहुमत से जिताने में मदद की थी. मुस्लिमों के प्रति यदि उनका यही रवैया रहा तो सारे ख्वाब धरे रह जाएंगे. ऐसी गंभीर आपराधिक कृत्य कर भी माफी मांगने के बजाय दंभयुक्त बयानबाजी शोभा नहीं देता. 

शिवसेना को इस मामले को संवेदनशीलता के साथ लेना चाहिए और न केवल आइआरसीटीसी के आवासी प्रबंधक अरशद जुबैर से माफी मांगनी चाहिए, बल्कि अपने दोषी सांसदों पर अनुशासनात्मक कार्रवाई भी करनी चाहिए. ताकि भविष्य में  ऐसी गैरजिम्मेदारी का परिचय दुबारा न दे बैठें. उन्हें ध्यान देना चाहिए कि उनके सांसदों के इस कृत्य से पूरा देश आहत हुआ है. इस तरह का व्यवहार आपराधिक भी और सत्ता के दुरुपयोग का भी मामला है. देश इसे बर्दाश्त नहीं कर सकता. खास कर उन लोगों से जो सत्ता में बैठ कर भी ऐसे कृत्य करने से बाज नहीं आते. 

- कल्याण कुमार सिन्हा 

भ्रष्ट लोकसेवकों के खिलाफ जाग रही जनता



भ्रष्ट लोकसेवकों के खिलाफ जाग रही जनता 

अमरावती में एक ही दिन दो बड़े अधिकारियों समेत पांच रिश्वतखोरों को भ्रष्टाचार प्रतिबंधक ब्यूरो की अमरावती शाखा द्वारा गिरफ्तार किया जाना ब्यूरो की एक बड़ी सफलता है. राज्य के लोकसेवकों की रिश्वतखोरी और भ्रष्ट आचरण पर रोक लगाने के उद्देश्य से ब्यूरो ने राज्यव्यापी अभियान चला रखा है. प्रतिदिन राज्य के विभिन्न जिलों में अनेक लोकसेवक रिश्वत लेते गिरफ्तार किये जा रहे हैं. यह बात दिगर है कि ब्यूरो की जाल में फंसने वाली अधिकांश मछलियां छोटी ही हुआ करती हैं. फिर भी ब्यूरो की सक्रियता कायम है और राज्य में भ्रष्ट लोकसेवक पकड़े ही जा रहे हैं. 
महाराष्ट्र के भ्रष्टाचार प्रतिबंधक ब्यूरो को रोज-रोज राज्य भर में जो सफलता मिल रही है, उसके पीछे भ्रष्टाचार से तंग आ चुकी राज्य की जनता की जागरूकता ही है. भ्रष्टाचार प्रतिबंधक ब्यूरो को रोज-रोज राज्य भर में जो सफलता का श्रेय राज्य की जनता को भी दिया जाना चाहिए. 

राज्य में शायद ही कोई दिन ऐसा है, जिस दिन कोई रिश्वतखोर लोकसेवक न पकड़ा गया हो. ब्यूरो के इन सफल अभियानों के बावजूद भ्रष्ट लोकसेवकों में ब्यूरो की इन कार्रवाइयों का भय पैदा न हो पाना अत्यंत चिंता का विषय हो गया है. अमरावती के इन दो बड़े अधिकारियों में आदिवासी विकास विभाग के अपर आयुक्त और जिला स्वास्थ्य अधिकारी स्तर के अधिकारी का भी ऐसे रंगेहाथ रिश्वतखोरी के आरोप में गिरफ्तार होना, क्या इस बात का परिचायक नहीं है कि राज्य के हर स्तर के लोकसेवकों में अपने ओहदों का बेजा फायदा उठाते हुए केवल पैसा बनाने की होड़ सी मची हुई है, लोक-लाज और गिरफ्तारी की भी उन्हें कोई चिंता नहीं रह गयी है. 

भ्रष्ट तरीकों से अपने पदों का दुरूपयोग कर, राज्य की जनता की गाढ़ी कमाई की लूट कर एवं आम लोगों के जायज भुगतान के बदले उनका हक मार कर पैसे बनाने की ऐसी निर्लज्जता का कोई जवाब है? सरकार या ब्यूरो भले ही मान ले कि अब इसका उपाय नहीं है, क्या करें! लेकिन उपाय तो है. इन भ्रष्ट मानसिकता वाले लोकसेवकों को मौजूदा भ्रष्टाचार प्रतिबंधक कानून का भय इसलिए नहीं है, क्योंकि उन्हें पता है कि कैसे इस कानून को न केवल धता बताया जा सकता है, बल्कि उन्हें यह भी पता है कि कैसे इन आरोपों से बेदाग़ बरी हुआ जा सकता है. 

ऐसे भ्रष्ट लोकसेवक इस भ्रष्ट कमाई का ही उपयोग कर आसानी से बेदाग छूट जाने में सफल हो जाते हैं. और शान से दुबारा अपने उसी पद पर या पदोन्नत हो ऊंचे पद पर फिर से आसीन हो जाते हैं. इसका कारण है हमारे महाराष्ट्र राज्य के भ्रष्टाचार प्रतिबंधक कानून की कमजोरियां. पड़ोसी राज्य मध्यप्रदेश में यह कार्य लोकायुक्त के अधीन लोकायुक्त पुलिस यह काम करती है. मध्यप्रदेश सरकार ने उन्हें भ्रष्ट लोकसेवकों की चल-अचल सारी संपत्ति जब्त करने के कानून से लैस कर दिया है. उनकी संपत्ति तब-तक जब्त है, जब-तक न्यायालय से वह बेदाग़ बरी न हो जाता है. दोषी करार दिए जाने पर जेल की हवा तो उन्हें खानी पड़ती ही है, सम्पत्ति से हमेशा के लिए भी हाथ धोना पड़ता है. 

महाराष्ट्र में भी लोकायुक्त हैं, लेकिन दंतविहीन और संसाधनों से वंचित. अब समाजसेवी अन्ना हजारे की प्रेरणा से केंद्र सरकार ने भी काफी जद्दो-जहद के बाद लोकायुक्त कानून पारित कर दिया है, जो राज्यों के लिए भी है. हमारा राज्य इसे लागू करे तो शायद आजे इन भ्रष्ट लोकसेवकों में भय पैदा हो. कानून के डंडे में प्रहार की चोट तब शायद ऐसे तत्वों को महसूस होगी और लोक-लाज की चिंता होगी. 

यह सबको पता है कि भ्रष्टाचार की गंगोत्री सरकार में उच्च पदों पर बैठे लोकसेवकों के साथ-साथ जनप्रतिनिधियों एवं सरकार के मंत्रियों के कर-कमलों से ही होकर बहती है. लेकिन इनके खिलाफ जब भी सप्रमाण मामले सामने आते हैं, जांच समितियों के दस्तावेजों से बाहर निकल कर भी सत्ता के जलियारों में गुम हो जाते हैं.  भ्रष्टाचार की गंगोत्री बहती रहती है. लेकिन अब जल्द ही लोकायुक्त कानून के प्रहार की धमक की आवाज सत्ता के शिखर पर बैठे इन दिग्गजों पर भी सुनाई पड़ेगी. जनता जाग चुकी है. महाराष्ट्र के भ्रष्टाचार प्रतिबंधक ब्यूरो को रोज-रोज राज्य भर में जो सफलता मिल रही है, उसके पीछे भ्रष्टाचार से तंग आ चुकी राज्य की जनता की जागरूकता ही है. जनता भ्रष्टाचार के  शिकायत करना सीख चुकी है. जल्द ही इसका मुखर विरोध करना भी सीख जाएगी. यह दिन अधिक दूर नहीं है. 

- कल्याण कुमार सिन्हा 

Thursday, 5 June 2014

गरीब किसानों, पिछड़ों के मसीहा का निधन

नहीं रहा महाराष्ट्र का शीर्ष दबंग नेता 

महाराष्ट्र के शीर्ष राजनीतिक नेताओं में एक बड़ी शख्सियत केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री गोपीनाथ जी मुंडे का मंगलवार को नई दिल्ली में सड़क दुर्घटना में निधन न केवल महाराष्ट्र अथवा भारतीय जनता पार्टी के लिए, बल्कि देश के गरीब किसानों और ग्रामीण क्षेत्र के लिए बहुत बड़ी क्षति है. मुंडे देश के उन बड़े नेताओं में थे, जिन्होंने पिछड़े वर्ग और गरीब किसानों के लिए संघर्ष करते हुए क्षेत्र और प्रदेश की राजनीति के गलियारों से गुजरते हुए देश की राजनीति में अपनी पहचान बनाई. महाराष्ट्र के पिछड़े जिले बीड के परली गांव के अत्यंत पिछड़ा वंजारी समाज से आने वाले गोपीनाथजी बहुत ही गरीब परिवार से थे. सामाजिक शोषण और सामाजिक विषमताओं के बीच पल-बढ़ कर भी अपनी सामाजिक सरोकारों के लिए निष्ठा को लेकर कोई समझौता नहीं करने का माद्दा बहुत काम लोगों में ही देखने को मिलता है. मुन्डेजी की इसी निर्भीकता, दबंगता और गरीबों, पिछड़ों के हित में सतत संघर्षशीलता ने ही उन्हें महाराष्ट्र भाजपा का चेहरा बना दिया था. 

बीड जिला परिषद के सदस्य, महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री, लोकसभा में विपक्ष के उपनेता और अब केंद्र की मोदी सरकार में ग्रामीण विकास मंत्री बनने तक का उनका यह सफर उनके गरीब और पिछड़े वर्ग के लिए सतत संघर्ष से तैयार हुए मार्ग के पड़ाव थे, इनमें केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री अब उनका अंतिम पड़ाव बन गया. उन्होंने आज अपनी पार्टी भाजपा के लिए राज्य में जो स्थान बनाया, वह भी कम रोमांचक नहीं है. राज्य की राजनीति के धूमकेतु बन चुके शरद पवार, बालासाहेब ठाकरे, विलासराव देशमुख, सुशील कुमार शिंदे और नारायण राणे, छगन भुजबल जैसी समकालीन शख्सियतों से लगातार लोहा लेते हुए उन्होंने यह मुकाम हासिल किया था. इसमें उल्लेखनीय यह है कि उपरोक्त सारे नेता अपने-अपने जातीय समूहों की बड़ी जनसंख्या के बल पर राजनीति में छाये थे अथवा हैं, वहीं मुंडेजी का वंजारी समाज बीड ही क्या, राज्य भर में इसकी आबादी में कम है. ऐसे में मुन्डेजी ने गरीब किसानों, सभी पिछड़ा वर्ग को और यहां तक कि दलितों के बीच भी पैठ बनाई और स्वंय के साथ-साथ पार्टी को भी इनसे जोड़ा. 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के रास्ते भाजपा में वाले और महाराष्ट्र भाजपा का चेहरा बन चुके मुंडेजी की इस राजनीतिक यात्रा में उनके सबसे निकट सहयोगी उनके करीबी रिश्तेदार प्रमोद महाजन थे, जो वाजपेयी सरकार में केंद्रीय मंत्री बन भाजपा के राष्ट्रीय स्तर तक जा पहुंचे थे. दस वर्ष पूर्व जब एक पारिवारिक विवाद में अचानक उनकी ह्त्या हो गई, तो समझ जाने लगा था कि गोपीनाथजी का वर्चस्व अब राज्य की राजनीति में नहीं रह पायेगा. लेकिन प्रमोद महाजन के नहीं रहने के बावजूद उन्होंने न केवल अपने वर्चस्व को बढ़ाया, बल्कि पार्टी को भी जैसा आधार दिया और पार्टी के युवा चेहरों को आगे बढ़ाया, उसी का परिणाम है कि 2014 के हाल के लोकसभा चुनाओं में भी भाजपा को महाराष्ट्र में शानदार सफलता हासिल हो सकी. आगामी विधानसभा चुनावों के लिए भी भाजपा ने महाराष्ट्र में फिर से शानदार जीत दिलाने की जिम्मेदारी उन्हें सौंप चुकी थी. 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गोपीनाथजी को उनकी ग्रामीण विकास की व्यापक समझ और गरीबों एवं किसानों के उत्थान के लिए उनकी सोच को ही ध्यान में रखकर उन्हें अपनी कैबिनेट में ग्रामीण विकास मंत्री का पद सौंपा था. मुंडेजी अपनी इस बड़ी जिम्मेदारी को लेकर बड़े उत्साहित भी थे। उन्हें प्रधानमंत्री ने उनका मनचाहा दायित्व जो सौंपा था. सौ दिनों के अपने मंत्रालय की कार्ययोजना को भी अंतिम रूप देने में जुट गए थे और मोदीजी की अपेक्षाओं के अनुरूप मंत्रालय के कामकाज को गतिशील बनाने के मार्ग पर बढ़ चुके थे. 

मंगलवार को उनके गृह ग्राम बीड जिले के परली में पार्टी की ओर से उनके सम्मान में 'विजय रैली' का आयोजन किया था. उसी कार्यक्रम में शामिल होने के लिए वे नई दिल्ली से वे परली जाने के लिए इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय विमान तल के लिए निकले थे. लेकिन विधि का विधान कुछ और ही था. देश के ग्रामीण विकास में एक बड़ी भूमिका निभाने का उनका सपना, सपना ही रह गया. विमाव तल के मार्ग में ही एक सड़क दुर्घटना में उनका निधन हो गया. बीड की जनता ने अपने जिस प्यारे नेता को बड़ी आशा और विश्वास के साथ फिर से अपना प्रतिनिधि चुना था, जिसे आज  देश के मंत्री के रूप में रूबरू देखने की आस लगाए बैठे थे, जिनका वे सम्मान करने को लालायित थे, उनकी यह आस भी धारी की धारी रह गई. अब बुधवार को उन्हें मुंडेजी की मैयत में शामिल होकर अपने प्रिय नेता को अंतिम विदाई देने का असहनीय दर्द भी सहना पड़ेगा. 

जिन परिस्थितियों में उनके जैसे लोकप्रिय नेता की जान गई है, उसे देखते हुए इस घटना की की सीबीआई जांच की मांग अस्वाभाविक नहीं है. देश का दुर्भाग्य है कि देश के जमीन से जुड़े अनेक नेताओं की मौत ऐसी ही आक्समिक दुर्घटनाओं और षडयंत्रो के कारण अचानक हुई है. इंदिरा गांधी, माधवराव सिधिया, राजेश पायलट, राजेश्वर राव, राजीव गांधी, प्रमोद महाजन, राजशेखर रेड्डी आदि की कड़ी में गोपीनाथ मुंडेजी का नाम भी ऐसे ही दिवंगत होने वाले नेताओं के साथ जुड़ गया है. यदि आवश्यक लगे तो निश्चय ही मूंडे जी के निधन की जांच जरूर कराई जानी चाहिए. देश के इस बड़े नेता के आक्समिक निधन पर हम भी उन्हें हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं. 

- कल्याण कुमार सिन्हा