हिंदी का फैलता आकाश
गूगल ने इंटरनेट पर अधिक से क्षेत्रीय सामग्री उपलब्ध कराने के लिए हिंदी में भी वॉइस सर्च की सुविधा उपलब्ध कराने की पहल करके हिंदी के विस्तार को एक नया आयाम दे दिया है। इस पहल से इंटरनेट का दायरा तो बढ़ेगा ही, हिंदी का आकाश और अधिक विस्तृत होगा। स्वाभाविक है कि हिंदी की संघर्ष यात्रा नए पड़ाव पर पहुंचेगी। भाषा और संस्कृति के अंतरसंबंध को समाज विशेष के संदर्भ में ही समझा जा सकता है और भाषा और संस्कृति को समझे बिना किसी समाज को समझना असंभव है। 'हिंदी' शब्द 'हिंदुस्तान के अंदर रहने वालों' और 'हिंदी भाषा' दोनों ही अथरें में प्रयुक्त है। हिंदी/हिंदुस्तानी और 'हिंदवी' के रूप में इसका संदर्भ प्राप्त होता है। हिंदी ब्रज, अवधी, मैथिली, भोजपुरी, राजस्थानी, बुंदेली, कुमायुंनी, हरियाणवी, दखिनी, मगही, कन्नौजी और छत्ताीसगढ़ी आदि तमाम सहभाषाओं से भी उदारतापूर्वक शब्द ग्रहण करती रही है। इसमें अरबी, फारसी, उर्दू और अंग्रेजी के भी अनेकानेक शब्द, मुहावरे और लोकोक्तियां भी शामिल हैं। हिंदी आर्यभाषा तो है, पर बहुक्षेत्रीय है और अनेक भाषाओं और बोलियों का समुच्चय है। इनके प्रभावों के कारण हिंदी विलक्षण रूप से बहुलता वाली भाषा बन जाती है।
भारत में जन्मी, पली और बढ़ी हिंदी देश की संस्कृति का अंग भी है और उसके निर्माण में भी उसकी प्रमुख भूमिका है। धर्म, जाति, क्षेत्र जैसी बाधाएं लांघती हिंदी में अमीर खुसरो, कबीर, सूर, तुलसी, जायसी, मीरा, रैदास, रसखान, भारतेंदु, प्रेमचंद, प्रसाद, निराला जैसे तमाम रचनाकारों का समावेश है। बल्लभाचार्य, रामानुज, विट्ठलदास, रामानंद, केरल के स्वाती तिरुनाल, महाराष्ट्र के संत देवराज, तंजौर के साहजी, मछलीपत्तानम के आंदेल पुरुषोत्ताम ने हिंदी में काव्य-रचना की। गुजरात के नरसी मेहता, महाराष्ट्र के नामदेव और ज्ञानेश्वर, पंजाब के गुरुनानक देव, असम के शंकरदेव, बंगाल के चैतन्य महाप्रभु, गुजरात के महर्षि दयानंद और उत्तार दक्षिण के तमाम सूफी संतों ने हिंदी माध्यम से ही देश के जन-जन तक अपनी बात निवेदित की। इन महान संतों की पदयात्रा और उनकी साखियों, पदों और वाणियों के माध्यम से हिंदी पूरे देश में विचरण करती रही। साथ ही आम जनों के तीर्थाटन, व्यापार, भ्रमण, नौकरी, अध्ययन आदि के कारण भी विभिन्न क्षेत्रों में निरंतर आवाजाही होती रही और हिंदी व्यक्तियों, समुदायों, संस्थाओं के बीच रिश्ते बनाने में भी सहायक हुई। 1915 में दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद गांधीजी ने देश का दौरा किया। उन्हें लगा कि हिंदी ही ऐसी भाषा है जो ज्यादातर लोगों के द्वारा बोली और समझी जाती है। हिंदी जोड़ने का काम करती है। गांधीजी ने हिंदी को संपर्क भाषा के रूप में स्वतंत्रता आंदोलन का हिस्सा बनाया। वे सरल हिंदी को चाहते थे। उनके शब्दों में हिंदी उस भाषा का नाम है जिसे हिंदू और मुसलमान कुदरती तौर पर बगैर प्रयत्न के बोलते हैं। हिंदुस्तानी और उर्दू में कोई फर्क नहीं है। देवनागरी में लिखी जाने पर वह हिंदी और फारसी लिपि में लिखी जाने पर वह उर्दू हो जाती है। भारतीय संसद ने 14 सितंबर 1949 को इसे राजभाषा स्वीकार किया, पर औपनिवेशिक मानसिकता और सीमित स्वाथरें के चलते हिंदी का प्रचार-प्रसार अभी तक वांछित स्तर तक नहीं हो पाया। संविधान के अनुच्छेद 343 में 'राजभाषा' के रूप में उल्लिखित और अनुच्छेद 351 में वर्णित संविधान की 8वीं अनुसूची में समाविष्ट है। हिंदी लगभग पचास करोड़ जनों की मातृभाषा है, साहित्यिक भाषा है और जातीय भाषा है। नागरी लिपि में लिखी जाने वाली कई अन्य भाषाएं भी हिंदी के निकट हैं।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिंदी के विकास में प्रवासी भारतीयों की विशेष भूमिका रही है। वे भारत से बाहर भारत की भाषा-संस्कृति को जीवंत किए हुए हैं। अप्रवासी भारतवंशी बिहार, पूर्वी उत्तार प्रदेश से खेती के लिए शर्तबंदी श्रमिकों के रूप में मॉरीशस, त्रिनिडाड, दक्षिण अफ्रीका, गुयाना, सूरीनाम तथा फिजी में गए। इन अप्रवासी भारतीयों की संस्कृति और अस्मिता की पहचान के रूप में भोजपुरी और अवधी के मिश्रित रूप वाली हिंदी ही आधार बनी रही। वह फिजी में 'फिजी हिंदी', सूरीनाम में 'सरनामी', दक्षिण अफ्रीका में 'नेताली' और उज्बेकिस्तान और कजाकिस्तान में 'पार्या' कहलाई। हिंदी के अध्ययन में विदेशी विद्वानों ने भी गंभीर रुचि दिखाई है। हिंदी का प्रथम इतिहास एक फ्रांसीसी ने लिखा। भारतीय भाषाओं का सर्वेक्षण अंग्रेज जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन द्वारा किया गया और प्रथम शोध प्रबंध अंग्रेज जेआर कारपेंटर ने तुलसीदास पर किया। विदेशियों ने सृजनात्मक साहित्य भी रचा है। विदेश में हिंदी की पत्र-पत्रिकाओं का भी प्रकाशन हो रहा है। मॉरीशस का 'बसंत', इग्लैंड की 'पुरवाई', अमेरिका का 'सौरभ' और 'विश्वविवेक' तथा नार्वे का 'शांतिदूत' प्रमुख प्रकाशन हैं। अनेक भाषाओं के द्विभाषी शब्दकोश भी तैयार हुए हैं। प्रवासी भारतीयों द्वारा महत्वपूर्ण लेखन हो रहा है। वे हिंदी को भारतीय अस्मिता का प्रतीक मानते हैं। अनेक रचनाओं का विदेशी भाषाओं में अनुवाद हुआ है। कंप्यूटर और इंटरनेट के चलते हिंदी की वैश्रि्वक धरातल पर उपस्थिति हो रही है, जैसा कि गूगल की पहल से स्पष्ट होता है। अखबारों के ई-संस्करण भी हो रहे हैं। आज हिंदी थाईलैंड, संयुक्त राज्य अमेरिका, तथा इंग्लैंड आदि अनेक देशों में भी प्रयुक्त है। संख्या की दृष्टि से चीनी और अंग्रेजी के बाद इसी की स्थिति है।
साहित्य की दृष्टि से हिंदी भाषा सृजनधर्मी, लचीली और संप्रेषण लायक हुई है। संचार माध्यमों में हिंदी प्रभावी हो रही है। उसके उपयोग के क्षेत्र बढ़े हैं और अभिव्यक्ति-सामर्थ्य का विस्तार हुआ है। दोहों, छंदों से चलकर मुक्त छंद नई कविता तक हिंदी की यात्रा उल्लेखनीय है। फिल्म, संगीत, नृत्य और अन्य कलाओं की दुनिया में हिंदी की महत्वपूर्ण उपस्थिति है। हिंदी क्षेत्र में हिंदी उच्च शिक्षा की भाषा बन रही है। हिंदी साहित्य आधुनिकता और उसके बाद के विमर्श से भी रूबरू है। आज 'हिंग्लिश' जन्म ले रही है और सरल बनाने के नाम पर हिंदी अंग्रेजी जैसी बनाई जा रही है। संस्कृतनिष्ठ हिंदी भी अबूझ होने के कारण प्रयोग से बाहर हो जाती है। हिंदी भारत की सांस्कृतिक विरासत की वाहिका और सामाजिक स्मृति का कोष है। वह भारत के लिए एक महत्वपूर्ण खिड़की है, जिसे खुला रखना आवश्यक है। हमें विश्वास है कि भाषा के प्रति गंभीर रुख अपनाया जाएगा और हिंदी को समर्थ बनाया जाएगा।
गिरीश्वर मिश्र
[लेखक महात्मा गांधी हिंदी विवि के कुलपति हैं]
गूगल ने इंटरनेट पर अधिक से क्षेत्रीय सामग्री उपलब्ध कराने के लिए हिंदी में भी वॉइस सर्च की सुविधा उपलब्ध कराने की पहल करके हिंदी के विस्तार को एक नया आयाम दे दिया है। इस पहल से इंटरनेट का दायरा तो बढ़ेगा ही, हिंदी का आकाश और अधिक विस्तृत होगा। स्वाभाविक है कि हिंदी की संघर्ष यात्रा नए पड़ाव पर पहुंचेगी। भाषा और संस्कृति के अंतरसंबंध को समाज विशेष के संदर्भ में ही समझा जा सकता है और भाषा और संस्कृति को समझे बिना किसी समाज को समझना असंभव है। 'हिंदी' शब्द 'हिंदुस्तान के अंदर रहने वालों' और 'हिंदी भाषा' दोनों ही अथरें में प्रयुक्त है। हिंदी/हिंदुस्तानी और 'हिंदवी' के रूप में इसका संदर्भ प्राप्त होता है। हिंदी ब्रज, अवधी, मैथिली, भोजपुरी, राजस्थानी, बुंदेली, कुमायुंनी, हरियाणवी, दखिनी, मगही, कन्नौजी और छत्ताीसगढ़ी आदि तमाम सहभाषाओं से भी उदारतापूर्वक शब्द ग्रहण करती रही है। इसमें अरबी, फारसी, उर्दू और अंग्रेजी के भी अनेकानेक शब्द, मुहावरे और लोकोक्तियां भी शामिल हैं। हिंदी आर्यभाषा तो है, पर बहुक्षेत्रीय है और अनेक भाषाओं और बोलियों का समुच्चय है। इनके प्रभावों के कारण हिंदी विलक्षण रूप से बहुलता वाली भाषा बन जाती है।
भारत में जन्मी, पली और बढ़ी हिंदी देश की संस्कृति का अंग भी है और उसके निर्माण में भी उसकी प्रमुख भूमिका है। धर्म, जाति, क्षेत्र जैसी बाधाएं लांघती हिंदी में अमीर खुसरो, कबीर, सूर, तुलसी, जायसी, मीरा, रैदास, रसखान, भारतेंदु, प्रेमचंद, प्रसाद, निराला जैसे तमाम रचनाकारों का समावेश है। बल्लभाचार्य, रामानुज, विट्ठलदास, रामानंद, केरल के स्वाती तिरुनाल, महाराष्ट्र के संत देवराज, तंजौर के साहजी, मछलीपत्तानम के आंदेल पुरुषोत्ताम ने हिंदी में काव्य-रचना की। गुजरात के नरसी मेहता, महाराष्ट्र के नामदेव और ज्ञानेश्वर, पंजाब के गुरुनानक देव, असम के शंकरदेव, बंगाल के चैतन्य महाप्रभु, गुजरात के महर्षि दयानंद और उत्तार दक्षिण के तमाम सूफी संतों ने हिंदी माध्यम से ही देश के जन-जन तक अपनी बात निवेदित की। इन महान संतों की पदयात्रा और उनकी साखियों, पदों और वाणियों के माध्यम से हिंदी पूरे देश में विचरण करती रही। साथ ही आम जनों के तीर्थाटन, व्यापार, भ्रमण, नौकरी, अध्ययन आदि के कारण भी विभिन्न क्षेत्रों में निरंतर आवाजाही होती रही और हिंदी व्यक्तियों, समुदायों, संस्थाओं के बीच रिश्ते बनाने में भी सहायक हुई। 1915 में दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद गांधीजी ने देश का दौरा किया। उन्हें लगा कि हिंदी ही ऐसी भाषा है जो ज्यादातर लोगों के द्वारा बोली और समझी जाती है। हिंदी जोड़ने का काम करती है। गांधीजी ने हिंदी को संपर्क भाषा के रूप में स्वतंत्रता आंदोलन का हिस्सा बनाया। वे सरल हिंदी को चाहते थे। उनके शब्दों में हिंदी उस भाषा का नाम है जिसे हिंदू और मुसलमान कुदरती तौर पर बगैर प्रयत्न के बोलते हैं। हिंदुस्तानी और उर्दू में कोई फर्क नहीं है। देवनागरी में लिखी जाने पर वह हिंदी और फारसी लिपि में लिखी जाने पर वह उर्दू हो जाती है। भारतीय संसद ने 14 सितंबर 1949 को इसे राजभाषा स्वीकार किया, पर औपनिवेशिक मानसिकता और सीमित स्वाथरें के चलते हिंदी का प्रचार-प्रसार अभी तक वांछित स्तर तक नहीं हो पाया। संविधान के अनुच्छेद 343 में 'राजभाषा' के रूप में उल्लिखित और अनुच्छेद 351 में वर्णित संविधान की 8वीं अनुसूची में समाविष्ट है। हिंदी लगभग पचास करोड़ जनों की मातृभाषा है, साहित्यिक भाषा है और जातीय भाषा है। नागरी लिपि में लिखी जाने वाली कई अन्य भाषाएं भी हिंदी के निकट हैं।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिंदी के विकास में प्रवासी भारतीयों की विशेष भूमिका रही है। वे भारत से बाहर भारत की भाषा-संस्कृति को जीवंत किए हुए हैं। अप्रवासी भारतवंशी बिहार, पूर्वी उत्तार प्रदेश से खेती के लिए शर्तबंदी श्रमिकों के रूप में मॉरीशस, त्रिनिडाड, दक्षिण अफ्रीका, गुयाना, सूरीनाम तथा फिजी में गए। इन अप्रवासी भारतीयों की संस्कृति और अस्मिता की पहचान के रूप में भोजपुरी और अवधी के मिश्रित रूप वाली हिंदी ही आधार बनी रही। वह फिजी में 'फिजी हिंदी', सूरीनाम में 'सरनामी', दक्षिण अफ्रीका में 'नेताली' और उज्बेकिस्तान और कजाकिस्तान में 'पार्या' कहलाई। हिंदी के अध्ययन में विदेशी विद्वानों ने भी गंभीर रुचि दिखाई है। हिंदी का प्रथम इतिहास एक फ्रांसीसी ने लिखा। भारतीय भाषाओं का सर्वेक्षण अंग्रेज जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन द्वारा किया गया और प्रथम शोध प्रबंध अंग्रेज जेआर कारपेंटर ने तुलसीदास पर किया। विदेशियों ने सृजनात्मक साहित्य भी रचा है। विदेश में हिंदी की पत्र-पत्रिकाओं का भी प्रकाशन हो रहा है। मॉरीशस का 'बसंत', इग्लैंड की 'पुरवाई', अमेरिका का 'सौरभ' और 'विश्वविवेक' तथा नार्वे का 'शांतिदूत' प्रमुख प्रकाशन हैं। अनेक भाषाओं के द्विभाषी शब्दकोश भी तैयार हुए हैं। प्रवासी भारतीयों द्वारा महत्वपूर्ण लेखन हो रहा है। वे हिंदी को भारतीय अस्मिता का प्रतीक मानते हैं। अनेक रचनाओं का विदेशी भाषाओं में अनुवाद हुआ है। कंप्यूटर और इंटरनेट के चलते हिंदी की वैश्रि्वक धरातल पर उपस्थिति हो रही है, जैसा कि गूगल की पहल से स्पष्ट होता है। अखबारों के ई-संस्करण भी हो रहे हैं। आज हिंदी थाईलैंड, संयुक्त राज्य अमेरिका, तथा इंग्लैंड आदि अनेक देशों में भी प्रयुक्त है। संख्या की दृष्टि से चीनी और अंग्रेजी के बाद इसी की स्थिति है।
साहित्य की दृष्टि से हिंदी भाषा सृजनधर्मी, लचीली और संप्रेषण लायक हुई है। संचार माध्यमों में हिंदी प्रभावी हो रही है। उसके उपयोग के क्षेत्र बढ़े हैं और अभिव्यक्ति-सामर्थ्य का विस्तार हुआ है। दोहों, छंदों से चलकर मुक्त छंद नई कविता तक हिंदी की यात्रा उल्लेखनीय है। फिल्म, संगीत, नृत्य और अन्य कलाओं की दुनिया में हिंदी की महत्वपूर्ण उपस्थिति है। हिंदी क्षेत्र में हिंदी उच्च शिक्षा की भाषा बन रही है। हिंदी साहित्य आधुनिकता और उसके बाद के विमर्श से भी रूबरू है। आज 'हिंग्लिश' जन्म ले रही है और सरल बनाने के नाम पर हिंदी अंग्रेजी जैसी बनाई जा रही है। संस्कृतनिष्ठ हिंदी भी अबूझ होने के कारण प्रयोग से बाहर हो जाती है। हिंदी भारत की सांस्कृतिक विरासत की वाहिका और सामाजिक स्मृति का कोष है। वह भारत के लिए एक महत्वपूर्ण खिड़की है, जिसे खुला रखना आवश्यक है। हमें विश्वास है कि भाषा के प्रति गंभीर रुख अपनाया जाएगा और हिंदी को समर्थ बनाया जाएगा।
गिरीश्वर मिश्र
[लेखक महात्मा गांधी हिंदी विवि के कुलपति हैं]