Sunday 30 December 2012

गीत गुनगुनाऊं या इंसानियत का मर्सिया!

गीत गुनगुनाऊं या इंसानियत का मर्सिया!
-विकास मिश्र
कुछ समझ नहीं आ रहा है कि 2012 की विदाई वेला में उपलब्धियों के गीत गुनगुनाऊं या इंसानियत का मर्सिया (शोक गीत) गाऊं? जीवन संगीत में सफलताओं के सुर सजाऊं या फिर जो शूल चुभे हैं जेहन में, उसके दर्द से बिलबिलाऊं? मंगल पर यान उतारने की स्वप्नदर्शी भारतीय घोषणा और नासा के अंतरीक्ष यान क्यूरियोसिटी को मंगल पर उतारने में भारतीय वैज्ञानिक अमिताभ घोस की महत्वपूर्ण भूमिका पर सीना फुलाऊं या फिर देश की बहन और बेटियों को केवल देह समझकर बोटी नोचने वाले दरिंदों की काली करतूतों पर शर्मशार हो जाऊंर्?
वाकई..! कुछ समझ नहीं आ रहा है!
हां, दहकते सवालों से जेहन जरूर जल रहा है. फफोले भी उग आए हैं लेकिन मरहम लगाने वाली व्यवस्थाकहीं नजर नहीं आती. नजर आती है अराजकता की आग जो दावानल बनकर सबकुछ खाक कर देने पर उतारू है. यह अराजकता गली मोहल्ले से लेकर दिल्ली की चमचमाती सड़कों तक तांडव कर रही है. दिल्ली में ही नहीं बल्कि हमारे और आपके भीतर भी कोहराम मचा रही है. तब यह सवाल झकझोरता है कि इस साल हमने 5000 किलो मीटर तक मार करने में सक्षम परमाणु मिसाइल अग्नि-5 तो तैयार कर लिया लेकिन खुद के भीतर भ्रष्टाचार, दुराचार और अनाचार का जो दानव बैठा है, उसे मारने के लिए हमने क्या किया? क्या उसे सरकार मारेगी? क्या वह केवल कानून के डंडे से खत्म होगा? नहीं, वह व्यवस्थाहमारे भीतर से पैदा होनी चाहिए. 2012 में ही रीलिज हुई फिल्म फेरारी की सवारीयाद है आपको? फिल्म का नायक शरमन जोशी अनजाने में लाल सिग्नल के पार चला जाता है. अगले चौराहे पर रुकता है और एक ट्रेफिक वाले से जिद करता है कि वह उसका चालान बना दे. ट्रैफिक जवान कहता है कि किसी ने देखा नहीं तो चालान क्यों कटवाने पर उतारू हो? नायक अपने बेटे की ओर इशारा करता है कि इसने तो देखा है! ..इस फिल्म से कितने लोगों ने सीख ली? यदि सीख ली होती तो चौराहों पर अराजकता कुछ कम जरूर हुई होती! क्या चौराहे पर हम नियमों का सम्मान तभी करेंगे जब पुलिस का जवान मौजूद होगा?
यह सवाल खुद से पूछना चाहिए कि हम डंडे का सम्मान करते हैं या कानून का?
..और उस डंडे से भी सवाल पूछने को जी चाहता है जो
व्यवस्था के हाथों मेंहै. सवाल बहुत सीधा सा है-तुम निरपराधों और अपने हक की आवाज बुलंद करने वालों का सिर ही क्यों तोड़ते हो? तुम उन दरिंदों पर क्यों नहीं बरसते जो बहेलिया बनकर अस्मत की चीरफार करने के लिए बेखौफ घूम रहे हैं! तुमने सत्ता की चाकरी को ही नियती क्यों मान लिया है? क्या कभी सोचा है तुमने कि अपराधियों पर क्यों खौफ नहीं है तुम्हारा? अरे, अपनी मर्जी के मुताबिक कानून की ऐसी तैसी करोगे, कानून से जब तुम ही खिलवाड़ करोगे तो तुम्हारा खौफ कैसे रहेगा?वर्ष 2012 की विदाई से ठीक पहले बलात्कार की एक घटना ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया. बलात्कार की दुर्भाग्यजनक वारदात कोई पहली बार नहीं हुई है. हर रोज होती और समाज से लेकर सरकार तक की आंखों पर धृतराष्ट्र का चश्मा चढ़ा रहता है. दिल्ली की घटना ने युवाओं का खून खौला दिया इसलिए मामला जरा गर्म हो गया. लड़कियों और महिलाओं की सुरक्षा को लेकर सरकार पर दबाव भी है और शायद कुछ कानून भी बन जाए. लेकिन क्या यह सच नही है कि इस देश में पूरी व्यवस्था के साथ बलात्कार हो रहा है? थोड़ी सभ्य भाषा में आप इसे छलात्कार कह सकते हैं. हर कोई व्यवस्था को छलने में लगा है. देश की जैसे किसी को फिक्र ही नहीं है! जिन पर राम जैसा बनने की जिम्मेदारी थी, उनमें से कुछ पालायन कर गए और बाकी रावण बने बैठे हैं!
निदा फाजली के शब्दों में..
तुलसी तेरे राम के कमती पड़ गए बाण
गिनती में बढ़ने लगी रावण की संतान!
तो सवाल यह है कि समाज को रावण की संतानों से मुक्ति कौन दिलाएगा? क्या हम किसी और राम या किसी और गांधी का इंतजार करते रहें? नहीं, किसी का इंतजार करने की जरूरत नहीं है. जरूरत है खुद को राम और गांधी के रास्ते पर ले जाने की! इस देश के युवाओं में राम की मर्यादा और गांधी का आदर्श पा लेने की असीम संभावनाएं भी हैं और क्षमता भी है. बस दुर्भाग्य इतना है कि युवाओं की इस फौज का स्वाभिमान अभी पूरी तरह जागा नहीं है. 2012 के अंतिम दिनों में इसकी झलक भर मिली है. यदि हर गांव, हर कस्बे और हर शहर में युवा इसी तरह जागरुक हो गया तो फिर किसी माई के लाल में हिम्मत नहीं है कि वह बहन और बेटी की अस्मत के साथ खिलवाड़ कर ले!
निदा फाजली के इस शेर पर गौर फरमाइए..
जलती तपती धूप में झुलस रहा था गांव
छोटी सी इक बीज में छुपी हुई थी छांव
इस देश का युवा वही बीज है जिसके भीतर छांव छिपी है. उम्मीद करें कि आने वाले वर्षो में बीज अंकुरित हो और सघन छांव वाला वृक्ष बन जाए!
(लेखक
लोकमत समाचारके संपादक हैं)(लोकमत समाचार के रविवारीय परिशिष्ट
लोकरंगमें 30 दिसंबर 2012 को प्रकाशित) 

Saturday 29 December 2012

जीवन और साहित्य में घृणा का स्थान

-प्रेमचंद
निंदा, क्र ोध और घृणा ये सभी दुर्गुण हैं, लेकिन मानव जीवन में से अगर इन दुर्गुणों को निकल दीजिए, तो संसार नरक हो जाएगा. यह निंदा का ही भय है, जो दुराचारियों पर अंकुश का काम करता है. यह क्र ोध ही है, जो न्याय और सत्य की रक्षा करता है और यह घृणा ही है जो पाखंड और धूर्तता का दमन करती है. निंदा का भय न हो, क्र ोध का आतंक न हो, घृणा की धाक न हो तो जीवन विश्रृंखल हो जाय और समाज नष्ट हो जाय. इनका जब हम दुरु पयोग करते हैं, तभी ये दुर्गुण हो जाते हैं, लेकिन दुरु पयोग तो अगर दया, करु णा, प्रशंसा और भिक्त का भी किया जाय, तो वह दुर्गुण हो जाएंगे.
अंधी दया अपने पात्र को पुरु षार्थ-हीन बना देती है, अंधी करु णा कायर, अंधी प्रशंसा घमंडी और अंधी भिक्त धूर्त.
प्रकृति जो कुछ करती है, जीवन की रक्षा ही के लिए करती है. आत्म-रक्षा प्राणी का सबसे बड़ा धर्म है और हमारी सभी भावनाएं और मनोवृत्तियां इसी उद्देश्य की पूर्ति करती हैं. कौन नहीं जानता कि वही विष, जो प्राणों का नाश कर सकता है, प्राणों का संकट भी दूर कर सकता है. अवसर और अवस्था का भेद है.
मनुष्य को गंदगी से, दुर्गन्ध से, जघन्य वस्तुओं से क्यों स्वाभाविक घृणा होती है? केवल इसलिए कि गंदगी और दुर्गन्ध से बचे रहना उसकी आत्म-रक्षा के लिए आवश्यक है. जिन प्राणयिों में घृणा का भाव विकिसत नहीं हुआ, उनकी रक्षा के लिए प्रकृति ने उनमें दबकने, दम साथ लेने या छिप जाने की शिक्त डाल दी है. मनुष्य विकास-क्षेत्र में उन्नति करते-करते इस पद को पहुंच गया है कि उसे हानिकर वस्तुओं से आप ही आप घृणा हो जाती है. घृणा का ही उग्र रूप भय है और परिष्कृत रूप विवेक. ये तीनों एक ही वस्तु के नाम हैं, उनमें केवल मात्ना का अंतर है.
तो घृणा स्वाभाविक मनोवृति है और प्रकृति द्वारा आत्म-रक्षा के लिए सिरजी गई है. या यों कहो कि वह आत्म-रक्षा का ही एक रूप है. अगर हम उससे वंचित हो जाएं, तो हमारा अस्तित्व बहुत दिन न रहे. जिस वस्तु का जीवन में इतना मूल्य है, उसे शिथिल होने देना, अपने पांव में कुल्हाड़ी मारना है. हममें अगर भय न हो तो साहस का उदय कहां से हो. बल्कि जिस तरह घृणा का उग्र रूप भय है, उसी तरह भय का प्रचंड रूप ही साहस है. जरूरत केवल इस बात की है कि घृणा का परित्याग करके उसे विवेक बना दें. इसका अर्थ यही है कि हम व्यक्तियों से घृणा न करके उनके बुरे आचरण से घृणा करें.
धूर्त से हमें क्यों घृणा होती है? इसलिए कि उसमें धूर्तता है. अगर आज वह धूर्तता का परित्याग कर दे, तो हमारी घृणा भी जाती रहेगी. एक शराबी के मुंह से शराब की दुर्गन्ध आने के कारण हमें उससे घृणा होती है, लेकिन थोड़ी देर के बाद जब उसका नशा उतर जाता है और उसके मुंह से दुर्गन्ध आना बंद हो जाती है, तो हमारी घृणा भी गायब हो जाती है. एक पाखंडी पुजारी को सरल ग्रामीणों को ठगते देखकर हमें उससे घृणा होती है, लेकिन कल उसी पुजारी को हम ग्रामीणों की सेवा करते देखें, तो हमें उससे भिक्त होगी. घृणा का उद्देश्य ही यह है कि उससे बुराइयों का परिष्कार हो.
पाखंड, धूर्तता, अन्याय, बलात्कार और ऐसी ही अन्य दुष्प्रवृत्तियों के प्रति हमारे अंदर जितनी ही प्रचंड घृणा हो, उतनी ही कल्याणकारी होगी. घृणा के शिथिल होने से ही हम बहुधा स्वयं उन्हीं बुराइयों में पड़ जाते हैं और स्वयं वैसा ही घृणति व्यवहार करने लगते हैं. जिसमें प्रचंड घृणा है, वह जान पर खेलकर भी उनसे अपनी रक्षा करेगा और तभी उनकी जड़ खोदकर फेंक देने में वह अपने प्राणों की बाजी लगा देगा. महात्मा गांधी इसलिए अछूतपन को मिटाने के लिए अपने जीवन का बलिदान कर रहे हैं कि उन्हें अछूतपन से प्रचण्ड घृणा है.
जीवन में जब घृणा का इतना महत्व है, तो साहित्य कैसे उसकी उपेक्षा कर सकता है, जो जीवन का ही प्रतिबिंब है? मानव-हृदय आदि से ही सुऔर कुका रंगस्थल रहा है और साहित्य की सृष्टि ही इसलिए हुई कि संसार में जो सु या सुंदर है और इसलिए कल्याणकर है, उसके प्रति मनुष्य में प्रेम उत्पन्न हो और कु या असुंदर और इसलिए असत्य वस्तुओं से घृणा. साहित्य और कला का यही मुख्य उद्देश्य है. कु और सु का संग्राम ही साहित्य का इतिहास है. नवीन साहित्य समाज का खून चूसनेवालों, रंगे सियारों, हथकंडाबाजों और जनता के अज्ञान से अपना स्वार्थ सिद्ध करनेवालों के विरु द्ध उतने ही जोर से आवाज उठा रहा है और दीनों, दलितों, अन्याय के हाथ सताए हुए के प्रति उतने ही जोर से सहानुभूति उत्पन्न करने का प्रयत्न कर रहा है।
(हिन्दी समय डॉटकॉम से साभार)

Saturday 8 December 2012

बारह वर्षों बाद 2012-13 में होगा कुम्भ मेला

भारत की ह्दयस्थली सोम, वरुण प्रजापति ब्रह्मा की तपोभूमि, रिषियों मुनियों की यज्ञ स्थली इलाहाबाद में गंगा-यमुना तथा पौराणिक सरस्वती नदियों के संगम तट पर वर्ष 2012-13 में लगने वाले विश्व प्रसिद्ध कुम्भ मेला की तैयारियां शुरु हो गई हैं.
हिमालय की कोख से अवतरित गंगा एवं यमुना के अद्भुत मिलन तथा अदृष्य सरस्वती के संगम तट पर प्रत्येक वर्ष माघ में डेढ़ माह तक चलने वाला माघमेला छह वर्ष पर अर्धकुम्भ तथा 12 वर्षों पर कुम्भ मेले का आयोजन होता है.
नक्षत्रों के अनुसार 2012-13 के माघ मास में यहां कुम्भ मेला आयोजित होगा जिसमें देश के सुदूर अंचलों के साथ ही विदेशों से श्रद्धालु बडी संख्या में सिरकत करेंगे. ऐसी मान्यता है कि प्रयागराज, इलाहाबाद को हिमालय के पंच प्रयागों देवप्रयाग, रुद्रप्रयाग, कर्ण प्रयाग, नन्द प्रयाग एवं प्रयागराज में श्रेष्ठ माना गया है. इसीलिए इसे तीर्थराज प्रयाग की संज्ञा दी गई है.
संगम तट पर गंगा तथा यमुना नदियों के दोनों ओर कुम्भ मेला के लिए प्रशासनिक कार्यों की शुरुआत हो गई और अस्थाई निर्माण कार्य चल रहे हैं.
कुम्भ मेले के आयोजन का प्रावधान कब से है इस बारे में विद्वानों में अनेक भ्रांतियां हैं. वैदिक और पौराणिक काल में कुम्भ तथा अर्धकुम्भ स्नान में आज जैसी प्रशासनिक व्यवस्था का स्वरुप नहीं था.
कुछ विद्वान गुप्त काल में कुम्भ के सुव्यवस्थित होने की बात करते हैं। परन्तु प्रमाणित तथ्य सम्राट शीलादित्य हर्षवर्धन 617-647.के समय से प्राप्त होते हैं. बाद में श्रीमद आघ जगतगुरु शंकराचार्य तथा उनके शिष्य सुरेश्वराचार्य ने दसनामी सन्यासी अखाड़ों के लिए संगम तट पर स्नान की व्यवस्था की.

आस्था का पर्व कुम्भ


अखाड़ों के जुलूस होते हैं श्रद्धा का केंद्र
आस्था के पर्व कुम्भ या महाकुम्भ पर विभिन्न साधु-सन्तों के अखाड़ों के भव्य जुलूस लोगों की श्रद्धा और आकर्षण का केंद्र होते हैं.
अखाड़ों का पेशवाई (मेला क्षेत्र में प्रवेश) का जुलूस हो या फिर स्नान पर्वो के जुलूस, इन्हें देखकर श्रद्धालुओं में आस्था का सैलाब उमड़ता है. कुम्भ पर अखाड़ों की शोभायात्र, पताकाओं और अपने प्रतीकों से युक्त अनुशासित होकर बैण्ड बाजों की धुन पर रंगबिरंगी छटा बिखेरती कुछ ऐसे निकलती है कि लोग उनके दर्शन कर धन्य हो जाते हैं.
सभी मठों और मतों के सन्यासी अन्य दिनों चाहे जहां रमते रहे हों, लेकिन कुम्भ. अर्धकुम्भ और महाकुम्भ पर्व पर तीर्थराज प्रयाग में त्रिवेणी तट पर उनके दर्शन अवश्य होते हैं. गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती के पावन तट पर अगले माह शुरू होने जा रहे महाकुम्भ के लिए अखाड़ों का आना शुरू हो गया है.
पंचदशनाम, जूना, आवाहन और पंचअग्नि अखाड़ों ने गुरुवार को कुम्भ मेला क्षेत्र में संगम की रेती पर धर्मध्वजा फहराकर अपनी छावनी का निर्माण शुरू कर दिया है. संगम तट पर कुम्भ मेला क्षेत्र के सेक्टर-4 में आवंटित भूमि पर अगहन कृष्णपक्ष भैरव अष्टमी गुरुवार को वैदिक मंत्रोच्चार के बीच इन अखाड़ों ने कलश स्थापना कर महाकुम्भ 2013 में अपनी उपस्थिति दर्ज करा दी है.
महानिर्वाणी और निरंजनी अखाड़ों ने भी मेला क्षेत्र में भूमि पूजन कर दिया है तथा भव्य तैयारी शुरू हो गई है. अन्य अखाड़े भी शीघ्र ही मेला क्षेत्र में भूमि पूजन तथा धर्मध्वजा फहराने की तैयारी कर रहे हैं.
महाकुम्भ मेला मकर संक्रान्ति के स्नान पर्व 14 जनवरी से शुरू हो रहा है और उस दिन अखाड़ों का पहला शाही स्नान होगा.
श्री पंचायती महानिर्वाणी और श्री पंचअटल अखाड़ा 31 दिसंबर को अपनी उपस्थिति दर्ज कराएगा. दरअसल मठ और अखाड़ों का एक अलग इतिहास है. शुरू से ही ये सांस्कृतिक और धार्मिक व्यवस्था को सुचारू रुप से संचालित और व्यवस्थित करते हुए समाज को दिशानिर्देश देते रहे हैं.
मठ एक सामाजिक व्यवस्था है और आदि शंकराचार्य ने मठीय व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने के लिए देश की चारों दिशाओं में प्रमुख तीर्थ स्थानों चार मठों पूर्व में पुरी गोवर्धन पीठ, पश्चिम में द्वारिका, दक्षिण में श्रंगेरी और उत्तर में ज्योतिष पीठ की स्थापना की थी.
अखाड़े मठों के ही एक विशिष्ट अंग हैं. अखाड़ों के संन्यासी एक ओर जहां शास्त्रों में पारंगत होते थे, वहीं वह शस्त्र चलाने में भी निपुण थे.
कुम्भ मेला के संदर्भ में अखाड़ों का तात्पर्य साधुओं के संगठित समुदाय से है, जिनकी अपनी विशिष्ट परम्पराएं तथा रीतिरिवाज होते हैं.
साधुओं के तीन प्रमुख सम्प्रदाय दसनामी संन्यासी अथवा नागा संन्यासी, दूसरा वैरागी तथा तीसरा उदासीन है. दसनामी संन्यासियों के विभिन्न मठों के आधार पर दस नामकरण गिरि, पुरी, भारतीय, वन, अरण्य, पर्वत, सागर, तीर्थ, आश्रम एवं सरस्वती बताए गए हैं. इसी कारण इन्हें दसनामी साधु भी कहा जाता है.
दसनामी संन्यासी शिव के उपासक होते हैं और ये मुख्यत: माला धारण करते हैं. स्नान के पूर्व ये संन्यासी अपनी शस्त्र यात्र को स्नान कराते हैं. इसके बाद इनके प्रमुख मण्डलेश्वर आदि स्नान करते हैं. नागा संन्यासियों के सात अखाड़े महानिर्वाणी, अटल, निरंजनी, आनन्द, जूना, आवाहन तथा पंचअग्नि हैं.
वैरागी अखाड़े श्री विष्णु के उपासक होते हैं और ये मुख्यत: पांच सम्प्रदायों माधव, विष्णुस्वामी अथवा पुपिटमार्ग, वल्लभाचार्य, निम्बार्क तथा रामानुज में विभाजित हैं. इनमें भी रामानुज के सात अखाड़े निर्वाणी, दिगम्बरी, निर्मोही, खाकी, निरावम्बी, संतोषी और निर्वाण अखाड़े हैं.
उदासीन अखाड़े के मत के साधु खुद को उदासी कहते हैं. इनके तीन अखाड़े बड़ा पंचायती उदासीन अखाड़ा, नया पंचायती उदासीन अखाड़ा तथा निर्वाणी अखाड़ा हैं.
हर कुम्भ, अर्धकुम्भ एवं महाकुम्भ पर अखाड़ों का दर्शनीय रूप दिखाई पड़ता है. इस महाकुम्भ में भी विभिन्न ध्वजा, पताकाओं के साथ शिविरों में धूनी रमाए अग्नि के सामने भजन कीर्तन में लीन साधु-सन्तों के दर्शन होंगे. इनके द्वारा विभिन्न प्रकार के यज्ञों और भण्डारों का आयोजन किया जाता है. इसे देखकर लगता है कि संन्यासियों और महात्माओं का संसार कुछ अलग ही है.

Sunday 2 December 2012

नर्मदा-क्षिप्रा सिंहस्थ लिंक परियोजना

नर्मदा-क्षिप्रा सिंहस्थ लिंक परियोजना
मालवा अंचल के लिए वरदान
भोपाल : मंगलवार, 27 नवम्बर, 2012
मध्यप्रदेश का मालवा क्षेत्र लंबे समय से गम्भीर जल संकट से जूझ रहा है. बढ़ती आबादी, तेजी से घटते वन और भूजल के अनियंत्रित दोहन जैसे कारणों से पिछले तीन दशक में मालवा क्षेत्र का भू-जल स्तर तेजी से घटा है. जानकारों का मत है कि यदि ऐसी ही परिस्थिति बनी रही तो आने वाले समय में मालवा क्षेत्र के रेगिस्तान बन जाने का भय है. सत्तर के दशक में मालवा की जल समस्या का समाधान सदा प्रवाहित नर्मदा से करने का विचार सामने आया. आने वाले समय में इस विचार को मूर्त रूप देने के लिए नर्मदा का तीन मिलियन एकड़ फीट पानी उद्वहन कर मालवा पठार में किसी उपयुक्त स्थान पर छोड़ने की कल्पना भी की गई. इस पर साल-दर-साल विचार होता रहा, परन्तु कोई सार्थक योजना नहीं बनाई जा सकी.
मालवा अंचल की सूखती क्षिप्रा, गम्भीर, कालीसिंध और पार्वती निदयों की स्थिति और मालवा के जिलों में गम्भीर पेयजल संकट से चिन्तित शिवराज सिंह चौहान ने मुख्यमंत्री पद सम्भालते ही इस विषय को अपनी प्राथमिकताओं में सिम्मलित किया और कल्पना को मूर्त रूप देने का कार्य आरम्भ हुआ. परियोजना के बारे में समय-समय होने वाले विचार-विमर्श के निष्कर्ष में मुख्यमंत्री ने तय किया कि मालवा के जल संकट का एकमात्र विकल्प नर्मदा का जल ही हो सकता है. मुख्यमंत्री की इस मुद्दे पर सतत चिंता के परिणामस्वरूप मालवा को नर्मदा से जोड़ने की प्रस्तावित चार योजना की ध्वजवाहक नर्मदा-क्षिप्रा सिंहस्थ लिंक परियोजना की रूपरेखा बनी, जिससे कम समय में क्षिप्रा में नर्मदा जल प्रवाहित कर देवास एवं उज्जैन सहित क्षिप्रा के किनारे बसे गांवों को पेयजल एवं उद्योगों को पानी की आपूर्ति चालू की जा सके और आगे बड़ी योजनाओं का मार्ग प्रशस्त हो सके. विगत 08 अगस्त 2012 को नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण की राज्य मंत्रलय में समीक्षा बैठक में मुख्यमंत्री ने योजना को सैद्धांतिक स्वीकृति देकर मालवा के जल संकट के स्थाई हल का मार्ग प्रशस्त कर दिया. इसीके परिणामस्वरूप कल्पना योजना में तब्दील हुई और अब इसका निर्माण कार्य आरम्भ हो रहा है.
परियोजना का स्वरूप
परियोजना के अंतर्गत ओंकारेश्वर सिंचाई परियोजना के चौथे चरण में उद्वहन नहर के लिए सिसलिया तालाब में छोड़े जाने वाले नर्मदा जल में से पांच क्यूमेक जल का उद्वहन कर इन्दौर जिले के उज्जैनी ग्राम के पास क्षिप्रा नदी के उद्गम में डाला जाएगा. यहां से नर्मदा का जल क्षिप्रा में प्रवाहित होकर उज्जैन तक पहुंचेगा. आरिम्भक अनुमानों के अनुसार लगभग 49 कि.मी. की दूरी एवं 348 मीटर ऊंचाई तक जल का उद्वहन किया जाएगा. इसके लिए चार स्थल पर जल उद्वहन के विद्युत पम्पों की स्थापना की जाएगी. सम्पूर्ण योजना की प्रशासकीय स्वीकृति 432 करोड़ रुपए है.
रिकार्ड अविध में निर्माण का संकल्प
परियोजना के स्वरूप और मालवा क्षेत्न की पेयजल आवश्यकताओं की उच्च प्राथमिकता को ध्यान में रखते हुए मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान ने परियोजना को एक वर्ष में पूरा करने का संकल्प व्यक्त किया है. संकल्प को नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण ने चुनौती के रूप में स्वीकार करते हुए इसके निर्माण की रूपरेखा निर्धारित कर ली है.
नर्मदा मालवा लिंक अभियान के लाभ
मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान द्वारा नर्मदा से मालवांचल के विकास की परिकल्पना को साकार करने के जिस अभियान का 29 नवंबर को शुभारंभ किया है, उसके पूर्ण हो जाने पर मालवा क्षेत्र की कायापलट सुनिश्चित है.
इस अभियान के प्रथम चरण में ओंकारेश्वर परियोजना के सिसलिया तालाब से नर्मदा जल का क्षिप्रा में प्रवाह होगा. आगामी चरणों में महेश्वर से नर्मदा जल उद्वहन कर गम्भीर नदी में, इंदिरा सागर जलाशय से नर्मदा जल उद्वहन कर कालीसिंध और पार्वती नदी में प्रवाहित किया जाएगा. परियोजनाओं के पूर्ण हो जाने पर -
मालवा क्षेत्र के 17 लाख एकड़ में सिंचाई सुलभ होगी. इससे मालवा क्षेत्र में कृषि विकास के नए आयाम खुलेंगे.
वर्षों से पीने के पानी की समस्या से जूझते मालवा क्षेत्न की पेयजल समस्या का स्थाई समाधान होगा. मालवा की नदियों में प्रवाहित होता नर्मदा का जल 70 कस्बे और 3000 गांव की प्यास बुझाएगा.
नर्मदा जल की उपलब्धता से मालवांचल में औद्योगिक विकास की गति तेज होगी. वर्तमान और भावी सैकड़ों उद्योगों को जल उपलब्ध हो सकेगा.
नर्मदा क्षिप्रा सिंहस्थ लिंक परियोजना के मुख्य बिन्दु-
उद्वहन द्वारा जल की मात्ना : 5.0 क्यूबिक मीटर
राइजिंग मेन की कुल लम्बाई : 49.00 किलोमीटर
उद्वहन की कुल ऊँचाई : 348.00 मीटर
विद्युत मोटर पम्प्स: चार स्टेज पम्पिंग
योजना की प्रशासकीय स्वीकृति : 432 करोड़ रु पए
नर्मदा-क्षिप्रा का संगम स्थल होगा आकर्षण का केन्द्रसिसलिया तालाब से जल उद्वहन कर इन्दौर जिले के उज्जैनी ग्राम के निकट क्षिप्रा उद्गम तक ले जाने के पूर्व एक आकर्षक कुण्ड में छोड़ा जाएगा. प्रस्तावित 10 3 15 मीटर चौड़ाई और लगभग 2.5 मीटर गहरे इस कुण्ड से दस किलोमीटर लंबी पक्की नहर से होकर नर्मदा जल क्षिप्रा उद्गम तक पहुंचेगा. कुण्ड और क्षिप्रा उद्गम तक की नहर के भाग को आकर्षक स्वरूप दिया जाएगा.
परियोजना के लाभनर्मदा का 5 क्यूमेक पानी जब क्षिप्रा उद्गम में प्रवाहित होगा तो यह सिंहस्थ के दौरान जल उपलब्धता सुनिश्चित करने के साथ ही उज्जैन नगर की वर्तमान और भावी जल आवश्यकता की पूर्ति करेगा. इस जल से देवास नगर की वर्तमान और भावी पेयजल आवश्यकता की पूर्ति होगी. इसके साथ ही देवास स्थित उद्योगों की जल आवश्यकता, देवास-इन्दौर रोड उपनगरीय जल आवश्यकता की पूर्ति और क्षिप्रा उद्गम से उज्जैन के बीच 150 से अधिक गांव की पेयजल आवश्यकता की पूर्ति होगी.
नर्मदा का जल क्षिप्रा में प्रवहमान होने से क्षेत्न का नीचे जाता भू-जल स्तर नीचे जाने से रुकेगा और रिचार्ज होकर भू-जल स्तर में बढ़ोत्तरी होगी. इससे क्षेत्र के कुओं, ट्यूबवेल्स और सूखे तालाब रिचार्ज होंगे. कुओं का जल-स्तर ऊपर आ जाने से पानी निकालने में बिजली की खपत कम होगी. कई छोटे उद्योगों को जल उपलब्ध करवाया जा सकेगा. परियोजना का एक उल्लेखनीय लाभ यह होगा कि प्रत्येक 12 वर्ष में उज्जैन में होने वाले विश्व प्रसिद्ध सिंहस्थ मेले में आने वाले लाखों श्रद्धालुओं के पवित्र स्नान और अन्य जल आवश्यकताओं की पूर्ति हो सकेगी.
 
 

Thursday 29 November 2012

देश की भाषाओं की शक्ति और श्रेष्ठता पहचानने की जरूरत

देश की भाषाओं की शक्ति और श्रेष्ठता
पहचानने की जरूरत
भाषाएँ जनसंवाद की माध्यम हैं, सामाजिक-आर्थिक विकास की संवाहक हैं और इसके साथ ही इनमें समाज और संस्कृतियों को निकट लाने और उनमें एकात्मता के भाव भरने की भी अद्भुत ताकत है. इनकी इस ताकत को विकास एवं सामाजिक समन्वय के अन्य घटकों अथवा कारकों से कम नहीं आंका जा सकता. भारतीय समाज की अनेक विशेषताओं में यह एक महत्वपूर्ण विशेषता है कि हमारा यह समाज बहुभाषिक भी है. किंतु अपनी भाषाओं की इस ताकत का सदुपयोग हम नहीं कर पाये हैं.
भारतीय भाषाओं की शक्ति और श्रेष्ठता की पहचान कर पाने में हमारी विफलता भी हमारे विकास की गति को अवरुद्ध कर रहा है. केंद्र सरकार और राज्यों के बीच भी संपर्क भाषा अंग्रेजी को बना दिए जाने से निजी क्षेत्र और वाणिज्य-व्यापार के क्षेत्र में भी अंग्रेजी ही संपर्क भाषा बन गई है.
यह तथ्य है कि समर्थकों की ताकतवर लॉबी होने और पिछले सवा सौ वर्षो से सत्ता का समर्थन प्राप्त होने के बावजूद अंग्रेजी भी आज तक हमारे देश में सर्वव्यापकनहीं बन पाई. लेकिन एक सच्चाई यह भी है हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी अथवा अन्य दूसरी भारतीय भाषा में भी सर्वव्यापकता एवं सर्वग्राह्यता का अभाव है.
भाषाएँ जितनी समृद्ध होती हैं, उनका समाज उतना ही सुसंस्कृत, गतिमान और सशक्त होता है. भाषा की समृद्धि उसकी ग्रहणशीलता पर निर्भर होती है. एक भाषा जब अन्य भाषाओं के शब्द और गुणधर्म ग्रहण करती है, तभी वह सर्वसामान्य के लिए स्वीकार्य बनती हैं. साथ ही उसमें सर्वव्यापकता के गुण भी आते हैं. ऐसी सर्वव्यापक भाषाएँ ही समाज या राष्ट्र के प्रत्येक वर्ग के साथ सफल संवाद स्थापित कराती हैं और समाज या राष्ट्र के सामाजिक-आर्थिक विकास के लाभ तीव्र गति से सामान्य जन तक भी पहुँचाती हैं.
भाषा की सर्वव्यापकता, उसकी ग्रहणशीलता के मामले में अंग्रेजी को इसका उदाहरण माना जा सकता है. समस्त यूरोपीय और एशियाई भाषाओं की शक्ति ग्रहण कर उसने अपने को इतना समृद्ध बनाया है कि आज वह पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति का वाहन बन विश्व भर में छा गई है और हमारे देश की अस्मिता पर कुंडली जमा कर बैठ गई है. इस कारण हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी समेत भारत की सभी पंद्रह राजभाषाएँ पंगु ही बनी हुई है. यही कारण है कि देश की तीन-चौथाई जनता देश के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र में निर्णायक भूमिका निभा पाने से अभी तक वंचित हैं. भाषाओं को समृद्ध, सर्वग्राह्य और सर्वव्यापक बनाने के लिए भाषा समन्वयएक सशक्त मार्ग है. भाषा समन्वय की यह अवधारणा देश की संस्कृति को गतिमान बनाने तथा राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता को सुदृढ़ बनाने के साथ-साथ आर्थिक-सामाजिक विकास को भी तीव्रतर करने में सहायक होगी.
भारत में हिन्दी समेत पंद्रह राजभाषाएँ हैं, जिनका अपना समृद्ध साहित्य भंडार है. इन भाषाओं को बोलने वालों की संख्या भी करोड़ों में हैं. भौगोलिक, सामाजिक और धार्मिक जैसी अनेक परिस्थितियाँ हैं, जिनके कारण ये सभी भाषाएँ एक दूसरे के काफी करीब भी हैं. यदि इन सभी भाषाओं को एक दूसरे की शक्ति हासिल हो जाए तो ये अपने आप समृद्ध हो ही जाएँ और सर्वव्यापकता का गुणधर्म में भी इनमें समा सकती है. इसके साथ ही अंग्रेजी का सशक्त विकल्प भी ये बन सकती हैं. लेकिन इसके लिए समन्वय की एक आधारशिलातैयार करने की जरूरत है. क्या यह संभव नहीं है?हमारा विश्वास है कि यह संभव है और ऐसा हो सकता है. जरूरत होगी- एक साधारण सी ईमानदार कोशिश की. आखिर स्वयं हिन्दी भी और उर्दू भी- ऐसे ही समन्वय की ही तो उपज हैं. हिन्दी समेत सभी भारतीय भाषाएँ इसी समन्वय की प्रक्रिया का हिस्सा बना दी जाएँ, अर्थात इनकी शक्ति के समन्वय का सुनियोजित प्रयास शुरू किया जाए तो ये सभी भाषाएँ न केवल सर्वव्यापी और सर्वग्राह्य बन जाएंगी, बल्कि इस सद्प्रयास के कुछ अन्य ऐसे परिणाम भी सामने आएंगे, जो हमारे देश की एकता और अखंडता को और अधिक मजबूत बनाएंगे, क्षेत्रीय असमानता दूर करने में सहायक होंगे और सभी प्रांतों के अलग अलग भाषा-भाषियों के बीच बेहतर संवाद भी स्थापित करेंगे. यह स्थितियाँ सामाजिक और सांस्कृतिक समन्वय को भी पुष्ट करेंगी. साथ ही व्यापार एवं व्यवसाय के विकास को भी तीव्र और स्वस्थ बनाएंगी.

अब प्रश्न यह उठता है कि भारतीय भाषाओं के समन्वय की प्रक्रिया और दिशा क्या हो, इसका मार्ग क्या हो? देश के बुद्धिजीवियों के लिए भाषायी समन्वय की प्रक्रिया, दिशा और मार्ग ढूंढ़ना और निर्धारित करना एक चुनौती है. इसके लिए विचार मंथनआरंभ करना जरूरी हो गया है. इस दिशा में सोचने की प्रक्रिया आरंभ होते ही जल्द ही कोई सुगम मार्ग भी निकल सकता है. भाषाओं के समन्वय का यह कार्य निम्नलिखित उद्देश्यों की पूर्ति कर सकेगा-1. सभी भारतीय भाषाएँ और अधिक समृद्ध होंगी, क्योंकि एक दूसरे का गुणधर्म और शब्दों को अपनाएंगी. इससे यह सभी सर्वव्यापक और सर्वग्राह्य बन सकेंगी,
2. देश के अलग-अलग प्रांतों के भाषा-भाषी मौजूदा संवादहीनता की स्थिति से उबर सकेंगे और भाषायी विद्वेष की भावना समाप्त होगी,
3. देश में एकात्मता की भावना सुदृढ़ होगी, सामाजिक सौहार्द बढ़ेगा और संस्कृति एवं परपंराओं का भी बेहतर समन्वय हो सकेगा,
4. क्षेत्रीय आर्थिक असमानता दूर करने में मदद मिलेगी और आर्थिक-सामाजिक व्यवहार में पैदा हो रही अड़चनें समाप्त होंगी. इससे देश का आर्थिक विकास तीव्र होगा एवं
5. भाषायी अवरोध के कारण आर्थिक उपलब्धियों के न्यायपूर्ण बंटवारे में जो व्यवधान होता है, वह समाप्त होगा. ये उपलब्धियाँ सभी समाज के निचले स्तर तक पहुँचेगी और व्यवसाय एवं व्यापार का दायरा बढ़ेगा.
अब भाषा समन्वय की दिशा, प्रक्रिया और मार्ग की पड़ताल भी हम करें. एक विचारणीय प्रारूप यह भी है-

1. राष्ट्रीय स्तर पर केंद्र सरकार राष्ट्रीय भाषा समन्वय आयोग का गठन करें, जो राष्ट्रीय स्तर पर समस्त भारतीय भाषाओं के सामान्य व्यवहार के शब्दों का मानकीकरण कर दे और इन शब्दों को सभी भारतीय भाषाओं में प्रयुक्त करने को बढ़ावा दे. दूरदर्शन एवं अन्य जनसंचार माध्यम इसमें सहायक बन सकते हैं.
2. सभी राज्य सरकारें, राज्य भर भी
राज्य भाषा समन्वय आयोगका गठन कर भाषायी समन्वयके कार्य को गति प्रदान करें. राज्य सरकारें अपने पड़ोसी राज्यों की भाषाओं के साथ तालमेल बिठाने की प्रक्रिया को तीव्र बना सकती हैं.
3. देश के सभी राजनीतिक दल राष्ट्रीय एकता के लिए भाषाओं के समन्वय के महत्व को ध्यान में रख कर अपनी भाषा नीति में भारतीय भाषाओं के समन्वयकी अवधारणा को शामिल करें.
4. सभी भारतीय भाषाओं के साहित्यकार, पत्रकार एवं अन्य क्षेत्र के बुद्धिजीवी अपनी भाषा समृद्ध बनाने और दूसरी भाषाओं से आत्मिक संबंध बढ़ाने के उद्देश्य से अपनी-अपनी रचनाओं में अन्य भारतीय भाषाओं के शब्दों, मुहावरों, कहावतों आदि को उदारता से स्थाना देना आरंभ करें एवं
5. सभी भारतीय भाषाओं के साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं अन्य संगठन भी भारतीय भाषाओं के समन्वय की दृष्टि से अपनी भाषा में अन्य भारतीय भाषाओं के शब्दों के प्रयोग को उदारतापूर्वक बढ़ावा दें.
हिन्दी सहित हमारी सभी प्रादेशिक भाषाओं में विपुल साहित्य रचे गये हैं. हमारे लेखकों, चिंतकों और कलाकारों ने अपनी मौलिक रचनाओं, अनुवादों, फिल्मों तथा रंगमंचों से सभी भारतीय भाषाओं को समृद्ध किया है. लेकिन यह सारी उपलब्धियाँ अंग्रेजी के मुकाबले हिन्दी सहित अन्य सभी भारतीय भाषाओं को कोई विशेष स्थान नहीं दिला पाया है.
अभी भी समय है कि हम हिन्दी समेत अपने देश की अन्य भाषाओं को जोड़ने की दिशा में गंभीरता से प्रयास करें और इन्हें समृद्ध बना कर अपनी सौ करोड़ की आबादी के स्वर को विश्वमंच पर शक्तिशाली बनाएँ.
अन्य भारतीय भाषाओं के विकास अथवा समन्वय के संदर्भ में न केवल शासकीय स्तर पर बल्कि जनसामान्य के स्तर पर भी संवादहीनता जैसी स्थिति है. यह स्थिति हमारी राष्ट्रीय एकता के लिए घातक तो है ही, हमारे सामाजिक-आर्थिक विकास का भी अवरोधक है. भाषा समन्वय की अवधारणा सभी भारतीय भाषाओं को समृद्ध, सर्वग्राह्य और सर्वव्यापक बना कर देश की एकता एवं अखंडता को सुदृढ़ बनाने के साथ-साथ आर्थिक-सामाजिक विकास को भी तीव्रतर करेगी. साथ ही अंग्रेजी का बेहतर विकल्प भी बन सकेंगी.
-कल्याण कुमार सिन्हा

Friday 23 November 2012

विशाल हृदय, स्नेही अभिभावक बाबूजी

जन्म दिवस 25 नवंबर पर विशेष
वह सही अर्थो में श्रीमंत थे. विशाल हृदय अर्थात बड़े दिल वाले, स्नेही, और समाज के प्रत्येक घटक के लोगों की चिंता करने वाले एक समर्पित समाज सेवी के रूप में उनकी पहचान रही. कांग्रेस पार्टी के विभिन्न उच्च पदों पर, विभिन्न शासकीय संस्थाओं के शीर्ष पदों पर और महाराष्ट्र शासन के दो दशकों तक मंत्री रहे बाबूजी हमेशा अपनी पहचान एक सामाजिक कार्यकर्ता की बनाए रखने में ही गौरवान्वित महसूस करते रहे. उन्होंने अपने जीवन में पद, प्रतिष्ठा, यश, सम्मान अथवा अधिकारिता, जो कुछ भी पाया, उससे बढ़कर उन्होंने महाराष्ट्र को और खास कर विदर्भ को एवं यहां के लोगों को केवल दिया, दिया और दिया ही.
मराठी के महाकवि स्व. सुरेश भट ने बाबूजी स्व. जवाहरलाल दर्डा की स्मृति में 18 दिसंबर 1999 को लोकमतमें प्रकाशित अपने सारासारस्तंभ में कहा है- ‘..आमचे बाबूजी हृदयाने श्रीमंत होते. ते लक्ष्मीपुत्र, लक्ष्मीदास नव्हते. ते खानदानीश्रीमंत नव्हते. पण ते लक्ष्मीपतीहोते! धन फक्त घेण्यासाठीच नव्हे, तर देण्यासाठी सुद्धा असते, हे ते जाणत. खरोखरच आमच्या बाबूजी सारखे बाबूजीच! अशी श्रीमंतविभूति कचितच जन्मते! खानदानीपणा तर वागणुकीने ठरतो.’ (हमारे बाबूजी विशाल हृदय वाले थे. वे लक्ष्मीपुत्र थे, लक्ष्मी के दास नहीं थे. वे खानदानीअमीर नहीं थे. किंतु वे लक्ष्मीपतिथे! वे जानते थे कि धन केवल कमाने (पाने) के लिए ही नहीं, दान के लिए भी होता है. सच्चे अर्थ में हमारे बाबूजी जैसे बाबूजी! ही थे. ऐसे विशाल हृदय (श्रीमंत) व्यक्तित्व विरले ही पैदा होते हैं! आदमी का बड़प्पन उसके आचरण से ही झलकता है.)
25 नवंबर सन् 1997 को मुंबई में उनका अवसान हुआ. यह दिन इस बात का साक्षी बना कि कैसे अपने इस विशाल हृदय राजनेता और सुहृदय अभिभावक सरीखे व्यक्तित्व को खोने से संपूर्ण विदर्भ स्तंभित था. उनका पार्थिव शरीर मुंबई से नागपुर लाया गया. लोकमत भवन परिसर पर उनके निकटवर्ती रहे लोगों के अलावा हजारों की संख्या में जनसमुदाय देर रात तक अपने प्रिय नेता के अंतिम दर्शनार्थ प्रतीक्षारत था. सम्पूर्ण नागपुर जिला ही नहीं विदर्भ के सुदूर क्षेत्रों के लोग उनके निधन की खबर मिलते यहां रात्रि तक पहुंच गए थे. लोकमत भवन में अंतिम दर्शन के लिए रखे उनके पार्थिव पर अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करने को लोग बेताब थे. हर वर्ग और समुदाय के लोग देर रात बाबूजी के अंतिम दर्शन के लिए कतारबद्ध खड़े थे. देर रात उनका पार्थिव उनकी जन्मभूमि यवतमाल के लिए रवाना हुआ.
दूसरे दिन यवतमाल के गांधी भवन में प्रात से ही उनके अंतिम दर्शन के लिए मानो संपूर्ण विदर्भ उमड़ा चला आ रहा था. यवतमाल तो उनकी जन्मभूमि और आरंभिक कर्मभूमि ही थी. जिले के कोने-कोने से लोग अपने प्रिय बाबूजी को श्रद्धांजलि अर्पित करने और उनका अंतिम दर्शन करने आ चुके थे. वहां अकोला, बुलढाणा, वाशिम, अमरावती आदि जिलों के लोगों का भी तांता गांधी भवन में लगा था. गांधी भवन से उनके जन्मस्थल होते हुए उनकी अंत्ययात्र जब दर्डा उद्यान के निकट निर्धारित समाधि स्थल के लिए निकली तो उसमें मानो जनसागर उमड़ता नजर आ रहा था. शहर के तमाम नर-नारी हपने सच्चे हितैषी को अपनी मौन श्रद्धांजलि दे रहे थे. यह बाबूजी के सच्चे श्रीमंत होने का ही नहीं, जन-जन के आदरणीय होने का भी प्रत्यक्ष प्रमाण था. उनकी इस अंत्ययात्र में हर वर्ग, हर समुदाय और हर मजहब के लोग शरीक थे.
बाबूजी दूरद्रष्टा और अत्यंत परिपक्व राजनीतिक विचारधारा के राजनेता थे. कांग्रेस के समाजवादी कार्यक्रमों को शासन में रहकर क्रियान्वित करने के साथ ही उन्होंने देश के विकास के लिए खुली अर्थव्यवस्था और उदारीकरण की जरूरत भी महसूस की थी. उनका स्पष्ट मत था कि
समाजवाद साध्य नहीं, साधन है. यह संतमार्ग है. इस मार्ग से तेजी से परिवर्तन नहीं होगा. बदलती हुई परिस्थिति में परिवर्तन अपरिहार्य हो गया है. ज्ञान, विज्ञान, अनुसंधान, गुणवत्ता और स्पर्धा के दौर में हमें टिकना है तो खुली अर्थव्यवस्था का मार्ग हमें स्वीकार करना ही पड़ेगा.बाबूजी देश के विकास को तीव्रतर करने के हामी थे. उनका मत था कि जब कड़ी मेहनत से इजराइल को मरुस्थल से नंदनवन बनाया जा सकता है तब हमारा देश जो पहले कभी नंदनवन था, उसे अब मरुस्थल बनता हम कैसे देख सकते हैं.उनका कहना था, आजादी के पहले त्याग की जरूरत थी. अब काम की जरूरत है. कड़ी मेहनत और गुणवत्ता की बदौलत ही हम टिक सकते हैं.सन् 1952 में साप्ताहिक लोकमतऔर सन् 1971 में नागपुर से दैनिक लोकमतके प्रकाशन के पीछे उनका मुख्य उद्देश्य समाज को साम्प्रदायिक और प्रतिक्रियावादी ताकतों से बचाना और देश के नवनिर्माण में प्रगतिशील गांधीवादी विचारधारा की महत्ता स्थापित करना था. इस महान उद्देश्य से निकला लोकमतउनकी कर्मठता और दूरदृष्टि से आज राज्य के हर गांव, हर चौपाल की आवाज बन गया है. कुल 13 संस्करणों के साथ आज यह दैनिक समाचारपत्र महाराष्ट्र की धड़कन माना जाने लगा है.महाकवि स्व. सुरेश भट ने करीब से उन्हें देखा और जाना था. उनका कथन है कि
बाबूजी यदि राजनीति में नहीं होते और लोकमतके संपादक नहीं होते तो निश्चय ही वे मराठी के एक बड़े कवि होते.उनका मराठी प्रेम सर्वविदित है. वे बहुत ही अच्छी मराठी बोलते थे. उनका राष्ट्रभाषा हिन्दी से लगाव भी जगजाहिर है. यही कारण था कि सन् 1989 में हिन्दी दैनिक लोकमत समाचारका प्रकाशन नागपुर से और सन् 1992 में औरंगाबाद से आरंभ हुआ. अकोला संस्करण सन् 1999 में शुरू हुआ. अब तो सोलापुर, जलगांव और महाराष्ट्र संस्कारधानी कही जाने वाली पुणो से भी इसका प्रकाशन शुरू हो चुका है. हिन्दी का यह समाचार पत्र लोकमत समाचारअपने कुल पांच संस्करणों के साथ महाराष्ट्र के हिन्दी भाषियों में लोकप्रिय एवं गौरवशाली स्थान बना चुका है. उनकी प्रेरणा ही थी कि सन् 1987 में अंग्रेजी दैनिक
लोकमत टाइम्सपहले औरंगाबाद से और बाद में सन् 1992 में नागपुर से निकलना शुरू हुआ. यह तीनों दैनिक आज महाराष्ट्र की जनता के लिए उनके गांधीवादी आदर्शो और जनचेतना का वाहक बन चुके हैं.
लोकमत पत्र समूहके यह तीनों दैनिक पत्र आज बाबूजी की विचारधारा को अपना कर उनके इच्छा के अनुरूप जनसेवा को ध्येय बना कर कार्य कर रहे हैं.-कल्याण कुमार सिन्हा

Wednesday 21 November 2012

कसाब को फांसी

कसाब को फांसी
26 नवंबर 2008 के मुंबई हमले में संलिप्त आतंकवादियों में से एकमात्र जीवित पकड़े गए अजमल कसाब को अंतत: बुधवार को फांसी दे दी गई. चार बरस पहले पाकिस्तान स्थित आतंकी संगठन लश्कर-ए-तैयबा के 10 आतंकवादियों ने देश की वाणिज्यिक राजधानी पर वहशियाना हमला कर 166 लोगों की जान ले ली थी.
इस हमले की गिरफ्त से मुंबई को मुक्त कराने में 60 घंटे का समय लगा और इस दौरान नौ आतंकियों को मार गिराया गया. दसवां हमलावर अजमल कसाब था. राष्ट्रपति ने गत चार नवंबर को उसकी दया याचिका को ठुकरा दिया था. इन चार वर्षो में पाकिस्तान की कुख्यात सरकारी गुप्तचर एजेंसी आईएसआई प्रायोजित इस वहशी आतंकवादी को भारतीय न्याय व्यवस्था के तहत अपने बचाव का पूर्ण मौका दिया गया किंतु भारतीय जांच एजेंसियों द्वारा न्यायालय में प्रस्तुत तमाम पुख्ता सबूतों के आधार पर न्यायालय ने उसे फांसी की सजा सुनाई. जिसकी पुष्टि देश के उच्चतम न्यायालय ने भी कर दी थी. अंत में उसने दया याचिका राष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत की थी, लेकिन केंद्रीय गृह मंत्रलय और महाराष्ट्र सरकार की अनुशंसाओं के मद्देनजर राष्ट्रपति ने उसकी दया याचिका खारिज कर उसकी फांसी की सजा बरकरार रखी.
इस आतंकी की फांसी पर देश भर में खुशी फैल गई है. सत्तारूढ़ कांग्रेस और आम लोगों ने जहां कसाब की फांसी का स्वागत किया है, वहीं विरोधी दलों ने इसे देर से लिया गया फैसला निरूपित करने से चूक नहीं की है. इंडिया अगेन्स्ट करपशन के नेता एवं सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे ने तो यहां तक कह दिया कि कसाब को चौराहे पर फांसी दी जानी चाहिए थी.
लेकिन अब इससे संतोष कर लेने और खुश हो जाने से काम नहीं चलेगा. इसके साथ ही अब देश को और अधिक सावधान रहने की जरूरत है. इस फांसी की सजा पर पाकिस्तान ने कहा है कि भारत के राष्ट्रपति ने कसाब की दया याचिका खारिज करने में जल्दबाजी की. साथ ही कहा कि पाकिस्तान की जेल में बंद भारतीय नागरिक सरबजीत की दया याचिका पर भी इसका असर पड़ने से इंकार नहीं किया जा सकता है. इससे पूर्व पाकिस्तान ने कसाब की फांसी संबंधी भारत के राजदूत द्वारा सौंपे गए नोटभी स्वीकार करने से भी पहले तो इन्कार कर दिया था. बाद में मेल और फैक्स से नोट भेजे जाने पर उसने स्वीकार किया.
पाकिस्तान के इस रवैये के साथ ही हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि इस आतंकवादी को प्रशिक्षित कर मुंबई भेजने वाले आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तोयबा संस्थापक हाफिज मो. सईद पाकिस्तान में आज भी सम्मानजनक हैसियत प्राप्त है. लश्कर कमांडर जकीउर्रहमान लखवी भले ही पाकी जेल में है, लेकिन उनका प्रभाव सरकार और पाकिस्तानी सेना पर अभी भी बना हुआ है. सरकार और सेना अभी भी इन्हें देश के हीरो सा सम्मान देने से बाज नहीं आ रहे. पाकिस्तानी अदालत में इनके खिलाफ मुंबई हमला से संबंधित मुकदमा मजाक की तरह चल रहा है. इसमें आईएसआई समेत सईद और लखवी के खिलाफ भारत की ओर से दिए गए अनेक पुख्ता सबूतों को पाकिस्तानी हुक्मरान अपर्याप्त बता कर दर किनार करते जा रहे हैं पाकिस्तान का यह रवैया नजरंदाज नहीं जा सकता.
हाल ही में हमारे पूवरेत्तर राज्य के लोग, जो देश के दूसरे हिस्सों बेंगलुरु, चेन्नई, पुणो आदि शहरों में आजिविका कमा रहे हैं अथवा वहां के छात्र, जो इन शहरों में पढ़ाई कर रहे हैं, उन्हें एसएमएस भेज कर जिस तरह दिग्भ्रमित कर उनमें दहशत फैलाने का जो षडयंत्र किया गया, जांच एजेंसियों ने पाया कि उस एसएमएस भेजे जाने का केंद्र पाकिस्तान ही था. अर्थात एक ओर अंतर्राष्ट्रीय दबावों के कारण पाकिस्तान भले ही कुछ झुका नजर आता है, लेकिन ऐसे षडयंत्रों को रोकने का वह कोई उपाय नहीं कर रहा है.
इन सब बातों से पाकिस्तान पर इस बात का भरोसा नहीं किया जा सकता कि वह आतंकवादियों पर अंकुश लगाने और भारत के खिलाफ उनके अभियानों को रोकने की जहमत उठाएगा. वह तो अपनी गुपतचर एजेंसी की इन करतूतों के बचाव में ही ज़ुटा नजर आता है. इसलिए यह नहीं समझ लिया जाना चाहिए कि कसाब को फांसी दे देने से आतंकवादी डर गए हैं और आईएसआई आगे कोई और चाल चलने से बाज आएगा.
-कल्याण कुमार सिन्हा

सूर्योपासना : वैदिक मान्यताएं

सूर्योपासना : वैदिक मान्यताएं
यह मानव शरीर पंच तत्व से बना है. इन पंच तत्वों के पांच देवता हैं. इस कथन की पुष्टि निम्नलिखित श्लोक से होती है-
आकाशस्य घियो विष्णुरगAेश्चेव माहेश्वरी।
वायो, सूर्य, क्षितेरिशो जीवनस्य गणधिप॥
आयुर्वेद के अनुसार शरीर के इन तत्वों में से किसी एक की विकृति से नाना प्रकार के रोग जन्म लेते हैं. इसका वर्णन चरक और सुश्रुत ग्रंथों में है. ऋगवेद के अनुसार सूर्य आत्मा जगतस्थस्थुपश्चअर्थात सूर्य ही ज्योतिरूप विभूषित है. इसका यह भी प्रमाण है
तथ्द्रास्कराय विद्राहे प्रकाशाय धीमाहि तन्नो मानु प्रचोदयात।
ब्रrा, विष्णु और महेश रूपी शक्तित्रयी सूर्य के अंगस्वरूप हैं. अथर्ववेदीय सूर्यापरिषद के अनुसार असावदित्यो ब्रrअर्थात सूर्य ही ब्रrा स्वरूप प्राणी जगत के संचालक हैं. चरक और सुश्रुत ग्रंथ के अनुसार वायु के देवता भी सूर्य हैं.
वैज्ञानिक धरातल के आधार पर इस पृथ्वी पर जीवन का स्नेत भी सूर्य है. सूर्य की अनुपस्थिति में जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती. सूर्य किरण में बहुत ऐसे तत्व हैं, जिससे स्वस्थ जीवन का श्रृजन होता है. उपरोक्त शब्दावली से यह प्रमाणित होता है की सूर्य को एक महत्वपूर्ण तथा शक्तिशाली देवता के रूप में माना गया है.
सूर्य पूजा की पौराणिक परंपरा
वैदिक काल से ही पूजा की परंपरा रही है. पंचमहाभूत, पंचदेवता और पंचोपासना में अधिदेवता स्वरूप गणोश, शक्ति, शिव, विष्णु और सूर्य की परम्परा रही है. वैदिक और पौरणिक साहित्य में त्रिकाल संध्या, जलाजली, जप-तप, व्रत अध्र्यार्पण आदि सहित तांत्रिक उपासना में भी सूर्य पूजा निरंतर स्थापित रही है. डॉ. भगवत शरण उपाध्याय के अनुसार महाभारत के समय से ही सूर्य पूजा की परंपरा रही है. कुषाण सम्राट स्वंय सूर्योपासक थे. इसी प्रकार कनिष्ठ (78ई.) के पूर्वज भी शिव तथा सूर्य के उपासक थे.
भारत के वृहत इतिहास में श्रेनेत्र पाण्डेय ने लिखा है कि गुप्त सम्राटों के समय में सूर्य, विष्णु और शिव की उपासना होती थी. कुमार गुप्त (414-55ई) स्वंय कार्तिकेय के उपासक थे और स्कन्दगुप्त (456-67ई.) बुलन्दशहर के इंद्रपुर में सूर्य मंदिर बनवाया था. हर्षचरित में वर्णित है कि राजा हर्ष की सूर्योपासना चरम थी और वे सूर्य के नियमित उपासक थे. प्रतिहार शासन में भी सूर्य पूजा का वर्णन मिलता है.
लोक आस्था का यह पर्व पौराणिक काल से ही पूरी श्रद्धा और भक्तिभाव से मनाया जाता है. सूर्य की उपासना के इस पर्व का सबसे पहले उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है. ऐसी कई कथाएं प्रचलित हैं जिनमें सूर्य की महिमा और छठ पर्व को करने के विधान बताए गए हैं. विष्णुपुराण, भगवतपुराण, ब्रह्मपुराण में भी छठ पर्व का उल्लेख मिलता ही है. छठ व्रतका इन पुराणों में उल्लेख तो है ही, इसका उल्लेख ऋृगवेद में भी है. इसे लेकर कई कथाएं प्रचलित हैं रामायण काल से लेकर महाभारत काल तक इसका उल्लेख मिलता है.
सूर्यपूजा का महत्व
रामायाण और महाभारत काल में श्री हनुमान के गुरु द्वारा उन्हें व्याकरण की शिक्षा देने तथा कुंती पुत्र कर्ण का नाम केवल सूर्यपुत्र के रूप में आता है, अपितु कर्ण की सूर्य भक्ति का भी वर्णन है. द्रौपदी के अक्षय पात्र और कृष्ण जांबावली के पुत्र साम्ब का कुष्ठ रोग मुक्ति का प्रसंग भी उस काल की सूर्याेपासना का ही प्रमाण है. कौरव और पांडव के पितृपुरुष के रूप में भी सूर्य का वर्णन मिलता है.
भगवान राम जब लंका विजय कर अयोध्या लौटे थे तब उन्होंने कार्तिक मास की षष्ठी को सूर्य की आराधना की थी. महाभारत काल में भी कुंती ने सूर्य की उपासना का यह पर्व किया था. पांडवों के वनवास के दौरान उनकी मंगलकामना के लिए द्रौपदी ने कार्तिक मास के षष्ठी को सूर्य की उपासना का व्रत रखा था.
एक और कथा के अनुसार भगवान कृष्ण के पुत्र शाम्ब कुष्ठ रोग से पीडित हो गए थे तब उन्होंने पूरी निष्ठा के साथ भगवान सूर्य की तीन दिन तक उपासना की थी. पुराणों में वर्णित एक और कथा के अनुसार राजा प्रियव्रत ने भी सूर्य की उपासना की थी.
अस्ताचल और उदयाचल सूर्य को नमन करने से स्वास्थ्य पर भी अच्छा प्रभाव पड़ता है, जो इस पर्व के वैज्ञानिक महत्व को दर्शाता है. कुछ क्षण सूर्य पर एक टक कर दृष्टि करने से त्रटक सिद्धिप्राप्त होने का वर्णन है. सूर्य वंश के प्र्वतक मनु को सूर्य भगवान ने स्वयं कर्मयोग की शिक्षा दी थी. कथाओं के अनुसार कुंती ने इसी दिन पुत्र लिए सायंकाल सूर्य को अध्र्य देकर पुत्र की कामना की और दूसरे दिन सूर्य ने कुंती को पुत्र प्रदान किया था.
पूजन की विधि
लोकमान्यता के अनुसार सूर्यपूजन छठ व्रतके रूप में प्रथमत द्रौपदी ने अपने पुत्रों के लिए की थी. स्मृति कौस्तुक तथा पुरुषार्थ चिंतामणी के अनुसार कार्तिक शुक्ल पक्ष को सूर्य जब वृश्चिक राशि में हो और मंगल दिन हो तो वह तिथि महाषष्टी है. ब्रrा पुरुषार्थ विधान है कि दिन का उपवास षष्ठी की अगिAपूजा तथा अगिAमहोत्सव के रूप में मनाया जाए.
मत्स्य पुराण में साठ व्रतों में इसका भी उल्लेख है. छठ यानी षष्ठ, प्रकृति के षष्ठ अंश की देवी है. इनका अमरनाथ देवसेना है. इस व्रत को सूर्य का व्रत माना गया है. पंचमी को उपवास तथा षष्ठी को सूर्य पूजा के उपरांत सप्तमी को व्रत का पारण के कार्तिक माह के साथ शुरू होता है.
इस व्रत की शुरूआत पंचमी तिथि से होती है. जिसे क्षेत्रीय भाषा में खरना या लोहड नाम से जाना जाता है. इसी दिन से व्रती उपवास करती है. बिना जल ग्रहण किए शाम को गुड़ या गóो का रस तथा नये चावल की खीर प्रसाद के रूप में सभी ग्रहण करते हैं. षष्ठी के दिन पुन उपवास कर फल, पकवान, मेवा, नारियल, औषधि फल इत्यादि को सूप में सजाकर संध्या काल सूर्य देव की पूजा नदी या जलाशय में सूर्यास्त से पूर्व दूध एवं जल से अध्र्य देकर की जाती है. सप्तमी को पुन: प्रात: सूर्योदयकाल में सूर्य की पूजा, पूर्व संध्या की तरह दूध और जल से अध्र्य देकर की जाती है. तत्पश्चात अगिA को साक्षी मान पूजन कर पावन व्रत की समाप्ति की जाती है.
-कल्याण कुमार सिन्हा

Monday 1 October 2012

कमजोर की उपेक्षा से आदमी स्वयं कमजोर हो जाता है

बुजर्ग दिवस’ 1 अक्तूबर पर कुरआन का संदेश
पवित्र कुरआन यह कहता है कि वृद्ध एवं कमजोर की मदद करो, भूखों को खाना खिलाओ, बेसहारों का सहारा बनो और हजरत मोहम्मद (स) यह कहते हैं कि कमजोरों और माजूरों (विकलांग) की वजह से अल्लाह तुम्हारी मदद करता है. तुम्हारी रिज्क में बरकत देता है, दुश्मनों से तुम्हारी हिफाजत करता है. मेरे भाइयों, अगर हम गौर करें तो हमारे आसपास हमारे घर में, हमारे समाज और हमारे मुल्क में ऐसे कमजोर, माजूर, बेसहारा, दबे-कुचले मजलूम लोग मिल जाएंगे, जिनकी मदद और खिदमत करके हम ऊंचे मकाम और कामयाबी की मंजिलों को पा सकते हैं.. मगर अफसोस कि हम ऐसा नहीं कर रहे हैं, जिसकी वजह से चारों तरफ से परेशानी और मुसीबतों ने हमें घेर लिया है. इन्सान ही नहीं पूरा मुल्क परेशान है. इस परेशानी का हल खुदा ने बताया है.
आइए हम घर से बात शुरू करते हैं कि हम घर में क्यों परेशान हैं. पवित्र कुरआन और प्रेषित मोहम्मद (स) यह कहते हैं कि जिस घर में कमजोर, जईक (वृद्ध) लोगों के साथ अच्छा बर्ताव न हो, उनकी इज्जत न हो, उनको सही खाना न दिया जाए, उनका सही ख्याल न रखा जाए, उन्हें यूं ही छोड़ दिया जाए, उनकी दवाओं का ख्याल न रखा जाए उस घर से अल्लाह बरकतों को उठा लेता है. रिज्क की तंगी आ जाती है. मेहनत करने के बावजूद भी कारोबार में नफा नजर नहीं आता. दुश्मनों के मुकाबले में अल्लाह की मदद नहीं मिलती, अफसोस की बात है कि आज तालीम होने के बावजूद पढ़े-लिखे समाज में एजूकेटेड घरानों में भी कमजोरों, जईफों, माजूरों के साथ जो बर्ताव किया जा रहा है, उसे देखकर रुह कांप जाती है.
मां-बाप अगर बूढ़े हो गए तो बहू का मामला तो दूर पढ़ी-लिखी औलाद भी उन्हें बोझ समझ रही है. पवित्र कुरआन कहता है कि मां-बाप से ऊंची आवाज में बात करना तो बहुत दूर, उनका उफ और हूं भी न कहो. आज औलाद उन्हें डांट कर खामोश बैठा रही है. उनको खाना वक्त पर देना, मांगने पर उन्हें चाय पेश करना औलाद के लिए बड़ा मुश्किल हो गया है. बच्चे यह भूल गए कि ये वो मां-बाप हैं, जो खुद भूखे रह जाते थे और मुङो खिलाते थे. होना तो यह चाहिए कि बेटा यह कहे कि मेरी मां तूने जो तकलीफें उठाई हैं, वो मुङो याद हैं, वह तेरा रात-रात भर मेरे लिए जागना, मुङो बुखार आ जाए तो तेरा मेरे लिए तड़पना, मुङो आंचल में लेकर सर्दी और गर्मी के थपेड़ों से बचाना, सब मुङो याद है. मां मैं तेरी खिदमत करुंगा, तेरी खिदमत ही में मेरी जन्नत है. तू राजी, तो रब राजी, तू खुश तो सारी बरकतें मेरे घर में रहेंगी..
मेरे भाइयों, कुछ घराने ऐसे भी है, जहां खुदा ने माजूर बच्चे भी पैदा किए हैं, वह खुद का राज हैं, लेकिन अल्लाह ने अपने प्रेषित की जबान से पूरी दुनिया के इन्सानों तक यह पैगाम पहुंचाया कि सुनो. तुम्हें कमज़ोरों की वजह से रिज्क (रोजी-रोटी) दिया जाता है. अल्लाह की रहमतें तुम्हारे घरों में आती है और अल्लाह हर मोड़ पर तुम्हारी मदद करता है और हजरत मोहम्मद (स) यह भी फरमाया कि बहुत लोग ऐसे भी हैं, जो दिखने ने बड़े बुरे हाल में नजर आएंगे. बिखरे हुए बाल, फटे-पुराने पैबंद लगे लिबास में नज़र में आएंगे. जिनको लोग धक्के देकर या जबान के तीर बरसाकर अपनी दुकानों और घरों के दरवाजे से हटा देंगे. मगर याद रख. वह फकीर और परेशान हाल लोग खुदा के नजदीक इतना ऊंचा मकाम रखते हैं कि वह जो कसम खा ले, खुदा उसको पूरा कर देता, उनके जबानों से निकले अलफाज किसी को उजाड़ देते हैं या बसा देते हैं. उनकी नाकद्री न करो, उनका वजूद पूरी कायनात के लिए बरकत का जरिया हैं.
हजरत मोहम्मद (स) ने यह भी कहा कि ऐ लोगों, खुदा से डरो, जुल्म मत करो, किसी को हकीर मत समझो. जो लोग अपने आपको बड़ा उंचा और दूसरों को हकीर समझते हैं, उनको नसीहत की कि यह अल्लाह को पसंद नहीं.. और हजरत मोहम्मद (स) ने यह कहा कि जिस कौम, जिस समाज के लोग कमजोरों का हक मारते हैं, मैं उन्हें यह समझाता हूं कि कमजोरों पर जुल्म करनेवाले भी कमजोर हो जाते हैं. उनकी ताकद और कूवत, शानों-शौकत खत्म हो जाती है. आज यह हम अपनी आंखों से देख रहे हैं कि जिस घर में कमजोरों पर जुल्म हो वह घर कमजोर हो जाता है. जिस समाज में कमजोरों पर जुल्म हो वह समाज भी कमजोर हो जाता है... और मुल्क में कमजोरों पर जुल्म किया जाए वह मुल्क भी कमजोर हो जाता है. बड़े-बड़े सुपर पावर समङो जाने वाले मुल्क, कमजोरों को दबाने की वजह से अंदर से कमजोर और खोखले हो चुके हैं.
जो मुल्क दूसरे मुल्कों को कमजोर बनाना और देखना चाहते हैं, वह मुल्क अपने ही बनाए और बचे हुए हथियारों से खुद अपनी तबाही का मंजर देख रहे हैं. जिन लोगों को और जिस टीम को उन्होंने हथियार और माली मदद देकर दूसरे मुल्कों को तोड़ने और तबाह करने के लिए मजबूत किया था, आज वही लोग, वही टीम अब उनकी तबाही का जरिया बन गई है. जिस मुल्क में कमजोरों को और कमजोर किया जाए उनका हक न दिया जाए, उनकी इज्जत,आबरू, जान, माल महफूज न हो तो फिर बहुत जल्द वह मुल्क भी बहुत जल्द कमजोर हो जाता है. इसलिए.. मेरे भाइयों.. खुदा के इस पैगाम को समझो कि अपने आपको मजबूत ताकतवर, इज्जतदार और बड़े ऊंचे मकाम पर देखना चाहते हो तो फिर दूसरे को भी इस मकाम तक पहुंचाने की कोशिश करो. आज हो यह रहा है कि हम दूसरों को गिरा और घटाकर अपने आपको ऊंचा बनाना चाहते हैं, नतीजा निकलता है कि हम इतना नीचे गिर जाते हैं कि उठ नहीं पाते. अल्लाह हम सबको समझ नसीब फरमाए.

नशा पिलाकर गिराना तो सबको आता है
मजा तो तब है कि गिरते को थाम लो साकी

Sunday 30 September 2012

सोशल मीडिया से बढ़ते खतरे


लन्दन की एक अदालत द्वारा ललित मोदी के खिलाफ दिया गया फैसला सोशल मीडिया के अतिरेकियों के लिए कड़ी चेतावनी है. आईपीएल के पूर्व आयुक्त ललित मोदी ने वर्ष 2010 में ट्विटर पर न्यूजीलैंड के क्रि केटर क्रि स केयर्न्‍स पर मैच फिक्सिंग का आरोप लगाया था. तेज गेंदबाज केयर्न्‍स ने ललित मोदी पर लन्दन में मानहानि का मुकदमा दर्ज कर दिया, जिसका निर्णय 27 मार्च 2012 को आया है. लन्दन के उच्च न्यायालय ने क्रि स क्रेयन्स की दलील को स्वीकार करते हुए ललित मोदी को चार लाख नब्बे हजार पौंड का मुआवजा अदा करने का आदेश दिया.
सोशल नेटवर्किग ने दुनिया में एक अलग समाज की रचना कर दी है. विश्व के करीब सात अरब लोगों में से 1.2 अरब लोग इन्टरनेट का इस्तेमाल करते हैं. उसमें से तकरीबन 82 फीसदी लोग सोशल नेटवर्किग के माध्यम से एक दूसरे से अपने विचार बांटते हैं. भारत में करीब साढ़े चार करोड़ लोग सोशल नेटवर्किग से जुड़े हुए हैं और हर एक साल बाद इसमें 30 फीसदी नए लोग जुड़ जाते हैं. इसका इस्तेमाल करने वालों की बढ़ती हुई संख्या के साथ ही इसके दुरूपयोग करने वालों की तादाद भी बढ़ती जा रही है.
एक दूसरे पर कीचड़ उछालना तो अब आम बात है. व्यापक पैमाने पर देश की सुरक्षा के लिए भी खतरे पैदा किए जाने लगे हैं. कोई सन्देह नहीं कि सोशल मीडिया का इस्तेमाल करने वालों को वही अधिकार हासिल हैं, जो प्रिन्ट मीडिया या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े लोगों को हैं, इसीलिए सोशल मीडिया पर भी वही पाबंदियां लगाई जा सकती हैं, जो अभिव्यक्ति के दूसरे माध्यमों पर लगाई जाती हैं. उन्हें भी संविधान के अनुच्छेद 19(1) अ के अन्तर्गत अभिव्यक्ति का अधिकार हासिल है. इसलिए इस अधिकार पर संविधान के अनुच्छेद 19(2) में दर्ज आधारों पर प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है. मानहानि से लेकर देशद्रोह तथा लोक शान्ति भंग करने जैसे मामलों में सोशल मीडिया से जुड़े मुल्जिमों के ऊपर उसी तरह फौजदारी मुकदमे दर्ज हो सकते हैं. इसके अलावा इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी एक्ट के अध्याय 11 में तकरीबन 18 साइबर अपराधों का वर्णन है, जिसके आधार पर दोषी लोगों को दण्डित किया जा सकता है. दीवानी अदालतों में भी मुकदमा दर्ज करके गलती करने वाले से उसी तरह से मुआवजा वसूला जा सकता है, जैसे दूसरे दीवानी मामलों में होता है. ललित मोदी के खिलाफ दिया गया निर्णय इसका ताजातरीन उदाहरण है.
सोशल मीडिया के दुरूपयोग से निपटने का एक तरीका तो यह है कि सरकार या अन्य एजेंसियों द्वारा सम्बिन्धत वेबसाइटों को समय-समय पर निर्देश जारी करके इस तरह की आपित्तजनक सामग्री को हटाने को कहती है. सरकार को इस तरह का निर्देश जारी करने का अधिकार है और यदि सोशल मीडिया से जुड़े हुए लोगों को यह गैर-कानूनी लगता है, तो उन्हें इसको चुनौती देने का अधिकार है.
सोशल मीडिया का सबसे जटिल पहलू यह है कि लोग एक-दूसरे से इस तरीके से जुड़े होते हैं कि इसके कुप्रभावों का अंदाजा नहीं लग पाता और जब तक जानकारी मिलती है, तब तक काफी नुकसान हो चुका होता है. आतंकी और आपराधिक गतिविधियों पर अंकुश लगाने की नीयत से इन पर प्रकाशन पूर्व सेंसरशिप जैसी व्यवस्था करने का भी सुझाव दिया गया. चीन ने इस दिशा में काफी हद तक सफलता भी पाई है, लेकिन लोकतांत्रिक देशों का ताना-बाना अलग होता है, इसलिए हर काम को संविधान की कसौटी पर परखना जरूरी होता है. पारम्परिक तौर पर अभिव्यक्ति की आजादी पर पूर्व सेंसरशिप नहीं लगाई जा सकती. प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के मामले में यह सिद्धान्त पूरे तौर पर स्थापित हो चुका है. फिल्मों को इसका अपवाद जरूर रखा गया. के.ए. अब्बास बनाम भारत संघ के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फिल्मों की सेंसरशिप को जायज ठहराया था. अदालत ने कहा था कि फिल्में ऐसा माध्यम हैं, जो लोगों के मन-मिस्तष्क पर गहरा असर डालती हैं तथा एक बार समाज के बीच वितरित हो जाने के बाद उन्हें वापस लेना सम्भव नहीं हो सकता. अत: उस सम्भावित खतरे से बचने के लिए फिल्मों पर सेंसरशिप की जा सकती है. सोशल मीडिया के मामले में भी इसी आधार पर पाबंदियां लगाने का सुझाव दिया जा रहा है. इसके लिए इन्टरनेट कम्पनियों से ऐसा ढांचा विकिसत करने का सुझाव है, जिसमें प्रकाशित की जाने वाली सामग्री किसी दूसरे व्यक्ति के पास पहुंचने से पहले उसकी जांच की जा सके. सोशल मीडिया की आजादी के झंडाबरदार इसका विरोध कर रहे हैं.
इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी एक्ट की धारा 79 में सूचनाओं का आदान-प्रदान करने वाले इन्टरमीडियरीज को कुछ मामलों में सुरक्षा प्रदान की गई है. इसमें कहा गया है कि सूचना का आदान-प्रदान का माध्यम बनने वाले इन्टरमीडियरीज यदि केन्द्र सरकार के निर्देशों का पालन करने तथा अपने कर्त्तव्यों के निर्वहन में सम्यक सावधानी बरतते हैं, तो वे दूसरों द्वारा प्रकाशित आपित्तजनक सामग्री के लिए दोषी नहीं माने जाएं. केन्द्र सरकार द्वारा 11 अप्रैल 2011 को जारी अधिसूचना में सम्यक सतर्कता को परिभाषित करने की कोशिश की गई है. इसके नियम 3(3) में इण्टरमीडियरी से अपेक्षा की गई है कि वह जानबूझकर ऐसी कोई सूचना प्रकाशित नहीं करेगा या सम्प्रेषण के लिए स्वीकार नहीं करेगा, जो देश की अखण्डता के विरुद्ध हो गया, जिसका प्रकाशन विधि विरुद्ध हो. इसके अलावा नियम 3(4) में इण्टरमीडियरी से यह भी अपेक्षा की गई है कि स्वयं जानकारी होने या किसी अन्य द्वारा सूचना देने के 36 घण्टे के अन्दर नियम 3(2) में प्रतिबिन्धत सूचना को हटाएगा.
बेशक, सोशल मीडिया का दुरूपयोग रोकने के लिए हमारे देश में कानूनी ढांचा उपलब्ध है, किन्तु उसका सम्यक व न्यायपूर्ण उपयोग करने की आवश्यकता है, ताकि अभिव्यक्ति की आजादी और सरकारी नियंत्नण में सामंजस्य बना रहे. सरकार के लिए यह चुनौती है और उसकी परीक्षा भी.

प्रोफेसर हरबंश दीक्षति
वरिष्ठ विधि विशेषज्ञ व प्राचार्य

(साभार : ‘रफ्तार.कॉम’ सर्च इंजन)

Monday 10 September 2012

जीत ली जंग


फिर दिखी सत्याग्रह की ताकत

मध्य प्रदेश के खंडवा जिले के घोघल गांव में नर्मदा नदी में पिछले 17 दिनों से जल सत्याग्रह पर बैठे आंदोलनकारियों की मांगों और समस्याओं को सुलझाने की दिशा में सोमवार को प्रदेश सरकार को अपनी जिम्मेदारी का अहसास हुआ और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने समस्याओं को 90 दिनों में सुलझाने के लिए एक पांच सदस्यीय उच्चस्तरीय समिति गठित करने की सोमवार को घोषणा की. इसके साथ ही जल सत्याग्रहियों ने अपना आंदोलन समाप्त कर दिया है.
इससे पूर्व शनिवार को मुख्यमंत्री की ओर से मिलने गए दो मंत्रियों को सत्याग्रहियों ने बैरंग वापस लौटा दिया था. उन्होंने आंदोलनकारियों से दो दिनों का समय मांगा था और अपना आंदोलन समाप्त करने की शर्त उनके सामने रखी थी.
आंदोलनकारियों की एकजुटता और अपने प्रति हो रहे अन्याय के खिलाफ उनका यह संघर्ष अद्भुत रहा और तमाम लोकतांत्रिक तौर-तरीकों पर आस्था रखने वालों के लिए अनुकरणीय बन गया है. निश्चित रूप से यह आंदोलन काबिले तारीफ रहा. सुदूर ग्रामीण क्षेत्र की हमारी जनता ने उसी साहस और दृढ़ता को अपनाते हुए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के सत्याग्रह की प्रेरक ताकत से आज एक बार फिर देश और दुनिया को परिचित करा दिया है.
पिछले माह 25 अगस्त से पूरे सत्रह दिन तक घोघलगांव और उसके आस-पास के 51 ग्रामीण, जिनमें वृद्ध पुरुषों के साथ-साथ महिलाएं भी शामिल थीं, नर्मदा में दिन के 22 घंटे गर्दन और नाक तक पहुंचते जल स्तर का सामना करते रहे. वे नदी में ही डटे रह कर 20 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में सिंचाई के लिए और 120 मेगावाट बिजली पैदा करने के लिए बांध में जल भराव की सरकारी जिद का मुकाबला करते रहे. सत्याग्रही अपने विस्थापन की समस्या के निदान की मांग उच्चतम न्यायालय के फैसले के अनुरूप करने के लिए यह सत्याग्रह कर रहे थे.
गंदे पानी में रह कर आंदोलन करने से उनके पूरे शरीर की क्या गत बन रही थी और उनके स्वास्थ्य पर कितना बुरा असर पड़ता रहा, इसकी उन्होंने जरा भी परवाह नहीं की. अंतत: उन्होंने प्रदेश की भाजपा सरकार को इस बात के लिए विवश कर दिया कि वह उनकी पीड़ा समङो एवं संवेदनशीलता का परिचय दे. उनकी न्यायसंगत मांग पूरी करे. सूबे की शिवराज सरकार अब तैयार हो गई है कि वह विस्थापित हो रहे आंदोलनकारियों को जमीन के बदले जमीन देगी और बांध का जल स्तर 189 मीटर तक ही रखा जाएगा.
खंडवा का यह ग्राम घोघल गांव एक सप्ताह से देश में चर्चा का विषय बन गया था. यहां 51 लोगों में महिलाएं और बुजुर्ग भी थे, पिछले 17 दिनों से लगातार पानी में बैठकर शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन कर रहे थे. पानी में रहने से उनकी चमड़ी गलने लगी थी. पानी से संक्र मण हो रहा था और पानी बढ़ने से डूबने का खतरा भी बना हुआ था. नाउम्मीदी से मुरझा रहे सत्याग्रहियों के चेहरे जीत से खिल गए. छोटे से गांव के कमजोर समङो जानेवाले मजबूत इरादों के लोगों ने अंतत: जीत दर्ज कर ली.
: कल्याण कुमार सिन्हा

Wednesday 25 July 2012

कूद पड़ं मैं भी संसद में बम लेकर

कवि दयाशंकर तिवारी मौनकी एक रचना
मौननागपुर.


कूद पड़ं मैं भी संसद में बम लेकर

बार बार मन में आता है एक निर्णय निर्मम लेकर
भगतसिंह सा कूद पड़ं मैं भी संसद में बम लेकर
जो रक्ताक्षर करते आए सत्ता की दीवारों पर
कब सत्ता की नजर पड़ी है उन बेबस लाचारों पर
राजमहल स्वारथ से आते झोपड़ियों के द्वारों पर
विजय चुनाव में रचते जाते दौलत के अंबारों पर
 
व्यक्तिवाद की तूती बोले अंकुश लगा विचारों पर
जनता के प्रतिनिधि नाच रहे हैं पद के घृणित इशारों पर
 
अब तक धोखा खाया है करके यकीन मुख्तारों पर
जनता तो है मोम की गुड़िया मचल रही अंगारों पर
 
चाटुकार बन गई कलम विश्वास न कर अखबारों पर
इन्होंने लिखना छोड़ दिया बेबस हालात के मारों पर
कब तक जनता धोखा खाए लोकतंत्र का भ्रम लेकर
भगतसिंह सा कूद पड़ं मैं भी संसद में बम लेकर
बार बार मन में आता है एक निर्णय निर्मम लेकर
भगतसिंह सा कूद पड़ं मैं भी संसद में बम लेकर
सत्ता बहुमत के मसनद बैठी झूम रही बेख्याली में
सुविधा की मदिरा बंटती है मदहोशों की प्याली में
हमने अंधों को खड़ा कर दिया बगिया की रखवाली में
चोरों के हाथ की छाप पड़ी है चमन की डाली डाली में
भारत था सोने का पंछी अब बदल गया कंगाली में
सुख से जीने वालों का जीवन बदला बदहाली में
छप्पन भोग सजे नेता- खाते चांदी की थाली में
भूखा बचपन जूठन ढूंढे कचराघर में नाली में
जनता का हक निगल के नेता अब मशगूल जुगाली में
देश गरीबी के दलदल में सत्ता लिप्त दलाली में
 
दोराहे पर खड़ी है जनता अपनी आंखें नम लेकर
भगतसिंह सा कूद पड़ं मैं भी संसद में बम लेकर
बार बार मन में आता है एक निर्णय निर्मम लेकर
भगतसिंह सा कूद पड़ं मैं भी संसद में बम लेकर

-दयाशंकर तिवारी

Wednesday 4 July 2012

अखिलेश का ‘यू टर्न’

बदहाल राज्य के मुख्यमंत्री के हसीन सपने

देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में विकास के लिए धन नहीं है. केंद्र सरकार पर इस बात का दवाब डाला जा रहा है कि राज्य को विशेष पैकेज के अंतर्गत 90,000 करोड़ रुपए उपलब्ध कराए जाएं और दूसरी तरफ क्षेत्र के विकास की विधायक निधि से हर एक विधायक को 20 लाख रुपए तक का वाहन खरीदने की इजाजत दे दिया गया था. इससे प्रदेश के 403 विधानसभा सदस्यों और 100 विधान परिषद सदस्यों को 20-20 लाख रुपए वाहन खरीदने के लिए दी जाने वाली इस अनुमति से राज्य कोष पर 80.60 करोड़ रुपए का बोझ बढ़ जाता.

विधायकों को यह तोहफा देने वाले थे देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव. मंगलवार को राज्य विधानसभा सत्र के समापन के साथ ही उन्होंने इस आशय की घोषणा कर दी थी. प्रखर समाजवादी नेता मुलायम सिंह यादव के होनहार पुत्र की इस घोषणा के साथ ही देश भर में इस निर्णय की आलोचना होने लगी तो वरिष्ठ समाजवादी पार्टी नेता एवं प्रदेश के मंत्री आजम खान ने उनका बचाव करते हुए यह दलील दे दिया कि यह प्रावधान उन विधायकों के लिए है, जो स्वयं अपने लिए वाहन नहीं खरीद सकते.
लेकिन राज्य के विपक्षी विधायकों ने स्वयं इसका जिस प्रकार विरोध किया, संभवत: युवा मुख्यमंत्री को वैसी उम्मीद नहीं थी. वे तो यह उम्मीद लगाए बैठे थे कि राज्य के सारे विधायक उनके मुरीद हो जाएंगे. लेकिन कांग्रेस, भाजपा और बसपा के विधायकों ने घोषणा कर दी कि वे
 फजीहतकराने के बाद यू टर्नलेते हुए अपना यह निर्णय उन्होंने वापस ले लिया. लेकिन अपने युवा नेता के बचाव में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी को जो सफाई देनी पड़ी है, उससे अखिलेश की काबीलियत और प्रशासनिक क्षमता पर शक पैदा हो गया है.
शुक्र है, आलोचना और उनके इस निर्णय पर आने वाली प्रतिक्रियाओं का असर उन पर पड़ा और 24 घंटे के भीतर चतुर्दिक
 ‘‘राष्ट्रपति चुनाव में तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी के साथ रहने की घोषणा के एक दिन बाद ही सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव ने जिस तरह पलटी मार दी थी. वह भी इस बात का प्रमाण है कि सत्तारूढ़ दल अपने फैसले पर रोल बैकका आदी है.’’
सपा नेता मोहन सिंह ने इस फैसले का ठीकरा राज्य के वरिष्ठ अफसरों के सिर फोड़ते हुए कहा है कि राज्य के कई अधिकारी मुख्यमंत्री को अनाप-शनाप सलाह देकर ऐसी घोषणा करा लेते हैं. अर्थात सपा की इस सफाई से यही संदेश गया है कि उत्तर प्रदेश सरकार में फैसले वहां के अफसर ले रहे हैं और मुख्यमंत्री उनकी घोषणा कर रहे हैं.

ऐसे फैसलों की फेहरिश्त में, जो सरकार को आलोचनाओं के कारण वापस लेना पड़ा है, यह विधायकों को वाहन दिलाने वाला संभवत: दूसरा फैसला है. हाल ही में नोएडा और गाजियाबाद के मॉल में बिजली नहीं देने की घोषणा भी उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से की गई थी, लेकिन आलचनाओं के बाद सरकार को तुरंत पलटना पड़ा.
राज्य में पूर्ववर्ती मायावती सरकार द्वारा जनता के करोड़ों के धन को अपनी मूर्तियां लगवाने और पार्क बनाने पर खर्च करने का हश्र अखिलेश यादव को समझ में नहीं आया. पिछले चुनाव में अपनी पार्टी की जीत को वे संभवत: अपना करिश्मा मान बैठे हैं. यदि ऐसा है तो स्वयं उन्हें और उनकी पार्टी को एक बार आत्मचिंतन कर लेना चाहिए.
क्योंकि अखिलेश यादव के लगातार ऐसे अनेक कदमों ने प्रदेश की जनता को यह सोचने पर बाध्य कर दिया है कि क्या वे इतने नासमझ हैं? रही सही कसर पार्टी ने पूरी कर दी है, यह बता कर कि मुख्यमंत्री से ऐसे फैसले राज्य के कुछ अफसर करवा लेते हैं.

बिना विचारे किए गए फैसले बदलने ही पड़ते हैं. गलती महसूस हो जाने पर फैसला बदल लेना अक्लमंदी की बात है. लेकिन राजनीति में ऐसा करते रहना आत्मघाती साबित होता है. पिछले ही महीने समाजवादी पार्टी के सव्रेसर्वा राज्य और केंद्र में रहे पूर्व मुख्यमंत्री एवं मंत्री मुलायम सिंह यादव द्वारा देश के महत्वपूर्ण मामले में अचानक पलटी मार देना, लोगों ने भूलाया नहीं है.

राष्ट्रपति उम्मीद्वार की तलाश के दौरान बंगाल की मुख्यमंत्री ए;न तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष ममता बनर्जी के साथ नई दिल्ली में प्रेस कांफ्रेंस आयोजित कर राष्ट्रपति के उम्मीद्वार के रूप में प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह, पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम एवं पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी का नाम सुझाने वाले मुलायम सिंह यादव ने दूसरे ही दिन कैसी पलटी मारी. यह भला भूलने वाली बात है.

प्रदेश की दूसरी प्रमुख विपक्षी पार्टी भाजपा ने इस तीर को अपने तरकश से निकाल कर इसका उपयोग कर चुकी है. पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष डॉ. लक्ष्मीकांत बाजपेयी ने यह प्रचारित करने में देर नहीं लगाई कि
फोकटमें ऐसी गाड़ी नहीं लेंगे.

Saturday 30 June 2012

सेवा कर : मंहगाई की एक और सौगात

लोगों की खाल खींचने में कोई कोताही नहीं कर रही सरकार

मंहगाई से त्राहि त्राही कर रही जनता पर अभी मंहगाई की मार कहां पड़ी है, वित्त मंत्रालय से जाते जाते आम आदमी की ऐसी तैसी करने में प्रणव दादा का जहरीले बजट  कम नही था. अब भी लोगों की खाल खींचने में कोई कोताही नहीं कर रही सरकार.
बहरहाल महंगाई की असली चुभन अब महसूस होगी. पहली जुलाई रविवार से कोचिंग क्लासेस व प्रशिक्षण केंद्र से लेकर होटल में खाने-पीने और हवाई यात्रा तक सभी पर महंगाई टूट पड़ेगी. फिलहाल, रेल माल ढुलाई व यात्री किराए में रविवार से सेवाकर लगने को लेकर भ्रम की स्थिति बनी हुई है. रेलमंत्री मुकुल राय ने कहा है कि रेलवे एक जुलाई से माल भाड़ा और यात्री किराए पर सेवाकर नहीं लगाएगा. इस बाबत उन्होंने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिखा है, जिनके हाथों में ही इस समय वित्त मंत्रालय की कमान भी है. नई सेवा कर व्यवस्था के लागू होने के साथ ही आज  यानी एक जुलाई से कई सेवाएं महंगी हो जाएंगी और लोगों को इनके लिए 12 प्रतिशत की दर से सेवा कर चुकाना पड़ेगा.
हालांकि नकारात्मक सूची में शामिल 38 सेवाओं पर नई व्यवस्था का असर नहीं होगा. यह सूची भी एक जुलाई से ही प्रभावी मानी जाएगी. इस सूची में शामिल सेवाओं के अलावा अंतिम संस्कार से जुडी सेवाएं भी इसके दायरे में नहीं आएंगी. दूसरी ओर जिन सेवाओं को नई व्यवस्था के दायरे में लाया गया है उनमें कोचिंग और प्रशिक्षण संस्थान शामिल हैं. हालांकि स्कूलों, विश्वविद्यालय स्तर की शिक्षा तथा व्यावसायिक शिक्षा को इससे छूट दी गई है.
नई कर व्यवस्था की सबसे बडी़ खामी यह है कि इसमें रेल माल ढुलाई तथा रेल यात्री किरायों पर सेवा कर को लेकर असमंजस की स्थिति बनी हुई है. अभी तक ऐसी सेवाओं की कुल संख्या 119 है. इसके साथ ही एक नकारात्मक सूची भी तैयार की गई है, जिसमें वर्णित सेवाओं को सेवा कर के दायरे से बाहर रखा गया है. सेवाकर के दायरें को बढा़ने के पीछे सरकारी मंशा वस्तु एंव सेवा कर (जीएसटी) को लागू करने की दिशा में एक कदम और आगे बढ़ना है. सरकार ने इस साल के बजट में सेवाकर का दायरा बढ़ाते हुए सेवाकर की परिभाषा को व्यापक बनाया है. अब तक 119 सेवाएं ‘सकारात्मक सूची’ में शामिल थी और उन्हीं पर सेवाकर लगाया जाता रहा. सेवाकर के दायरे को व्यापक बनाने का सरकार का नया कदम वस्तु एवं सेवाकर (जीएसटी) की दिशा में एक कदम और आगे बढ़ने के तौर पर देखा जा रहा है.
सरकार व स्थानीय प्राधिकरणों को एयरक्राफ्ट की मरम्मत और रखरखाव के लिए दी जाने वाली सेवाओं को भी नकारात्मक सूची में रखा गया है. इसी तरह वकीलों द्वारा दूसरे वकीलों और दस लाख रुपये तक का टर्नओवर रखने वाले व्यावसायिक संस्थानों को भी सेवाकर के दायरे से मुक्त रखा गया है. सार्वजनिक शौचालय भी इसके दायरे में नहीं रहेंगे. जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय नवीकरण मिशन [जेएनएनयूआरएम] व राजीव आवास योजना जैसी स्कीमों को भी नकारात्मक सूची में रखा गया है. वित्त मंत्रालय ने चालू वित्त वर्ष में सेवाकर से 1.24 लाख करोड़ रुपये जुटाने का लक्ष्य रखा है.

Wednesday 27 June 2012

क्रूर पाकिस्तानी मजाक

पाकिस्तान की सरकार ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि वह विश्वास के योग्य नहीं है. कट्टरपंथियों, सेना और आतंकवादी गिरोहों के साथ-साथ अपनी कुख्यात गुप्तचर एजेंसी आईएसआई के गिरफ्त में वहां की सरकार भारत के लिए ही नहीं, पूरी दुनिया के लिए भी भरोसेमंद नहीं रही है. मौत की सजा का सामना कर रहे एक भारतीय कैदी की रिहाई की पाकिस्तान सरकार की घोषणा के कुछ घंटों बाद ही पहली घोषणा को पलटकर एक अन्य भारतीय कैदी की रिहाई की बात करना उसके लिए अंतरराष्ट्रीय शर्मिदगी जैसी बात है, लेकिन शायद उसके लिए इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. रक्षा विशेषज्ञों का अनुमान गलत नहीं है. उनका मानना है कि यह
पाकिस्तान में 1990 में बम विस्फोट की कई घटनाओं में संलिप्तता को लेकर जबरन दोषी ठहराए गए और मौत की सजा का सामना कर सरबजीत सिंह को कल ही पाकिस्तान सरकार द्वारा रिहा करने की खबर आने के कुछ ही घंटे बाद राष्ट्रपति के प्रवक्ता फरहतुल्ला बाबर ने बताया कि अधिकारी सुरजीत सिंह नाम के एक अन्य भारतीय कैदी को रिहा करने के लिए कदम उठा रहे हैं, जो जासूसी के मामले में जेल में बंद था.
पाकिस्तान का यह
सरबजीत सिंह की रिहाई पर सरकार का रुख पलटने के एक दिन बाद आज पाकिस्तान ने सफाई पेश करते हुए कहा कि उन्हें रिहा करने की कोई योजना नहीं थी और इस मुद्दे पर सेना के किसी भी दबाव से इनकार किया.
पाकिस्तान के गृह मंत्री रहमान मलिक ने संवाददाता सम्मेलन में यह पूछे जाने पर कि क्या सरबजीत को रिहा करने की योजना सेना के दबाव में टाली गई, कहा कि इस मुद्दे पर सरकार में कोई चर्चा भी नहीं की गई. मलिक ने कहा,
गौरतलब है कि कल सरबजीत सिंह को रिहा किए जाने की खबरों के कुछ ही घंटे बाद पाकिस्तान ने सफाई दी कि उसने एक अन्य भारतीय कैदी सुरजीत सिंह को रिहा करने के कदम उठाए हैं, जो तीन दशक से जेल में बंद है.
पाकिस्तानी मीडिया ने कल खबरें जारी की थीं कि राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी ने सरबजीत की मौत की सजा को उम्रकैद में तब्दील कर दिया है और सजा पूरी होने की स्थिति में उसे रिहा करने का आदेश दिया है, लेकिन बाद में मीडिया ने सरकार द्वारा कल मध्य रात्रि के बाद जारी किए गए स्पष्टीकरण को
घालमेलजानबूझकर हो सकता है. भारत में 26/11 के मुंबई हमले के प्रमुख अभियुक्तों में एक अबु जंदाल की गिरफ्तारी से पाकी सेना और आईएसआई सकते में हैं. माना जा रहा है कि दबाव बढ़ाने के लिए उन्होंने रिहाई रुकवाई होगी. यू टर्नसरबजीत और उसके परिजनों के साथ नहीं भारत के साथ भी यह एक क्रूर मजाकहै. हालांकि उसकी जगह छूटने वाला दूसरा कैदी पंजाब का फरीदकोट निवासी सुरजीत सिंह भी भारतीय है और वह भी पिछले 31 सालों से पाकिस्तानी कैद में झूठे आरोप में बंद है. सुरजीत को पूर्व सैन्य शासक जिया-उल-हक के कार्यकाल के दौरान जासूसी के आरोप में गिरफ्तार किया गया था. उसकी मौत की सजा तत्कालीन राष्ट्रपति गुलाम इश्हाक खान ने 1989 में आजीवन कारावास में तब्दील कर दी थी और उसने भी अपने कारावास की सजा पूरी कर ली है. उसे हर हाल में पाकिस्तान को छोड़ना ही था. लेकिन अपने आतंकवादी गिरोह के अबु जंदाल के भारत की गिरफ्त में आ जाने की खबर से पाकिस्तानी सेना और आईएसआई को सांप सूंघ गया और सौदेबाजी के लिए ही वहां की सरकार ने सरबजीत को रिहा करने की अपनी नीयत बदल ली.हमने तो अभी सरबजीत को माफी भी नहीं दी है-हर बात में सेना को न घसीटें. सेना की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है और बनी रहेगी. सेना ने कभी हस्तक्षेप नहीं किया. वह कभी रिहा नहीं किए गए.उन्होंने यह भी कहा कि सरकार ने अभी सरबजीत की माफी पर कोई कदम नहीं उठाया है.यू-टर्नकी संज्ञा दी.

Sunday 24 June 2012

मगरमच्छों, कछुओं की तरह अंडे देते थे डायनासोर

इंदौर : मध्यप्रदेश की नर्मदा घाटी में बिखरे जुरासिक खजानेको ढूंढ़ निकालने वाले एक खोजकर्ता समूह ने दावा किया है कि मगरमच्छों और कछुओं के अंडे देने का तरीका सरीसृप वर्ग के अपने पुरखोंयानी डायनासोरों से काफी हद तक मेल खाता है. मंगल पंचायतन परिषदके प्रमुख विशाल वर्मा ने आज कहा, नर्मदा घाटी में आज से कम से कम साढ़े छह करोड़ साल पहले पाए जाने वाले डायनासोर सरीसृप वर्ग के ठंडे रक्त वाले जीव थे. ये विशाल जानवर मगरमच्छ और कछुए जैसे सरीसृपों की तरह ही अंडे दिया करते थे.उन्होंने कहा कि जिस तरह मगरमच्छ और कछुए अपने जलीय आवासों से निकलकर जलाशयों और समुद्र के रेतीले किनारों पर अंडे देते हैं, उसी तरह डायनासोर भी अपनी रिहाइश की थलीय जगहों से अलग ऐसे ही तटों पर अंडे देने पहुंचते थे.
वर्मा ने कहा,
वर्मा ने बताया कि अंडे देते वक्त डायनासोर ऐसी जगह चुनते थे, जो परभक्षियों की पहुंच से दूर और मौसम की उथल-पुथल से महफूज होती थी.
डायनासोरों की कई प्रजातियों की मादाएं नदियों और सरोवरों के रेतीले तटों पर अंडे देने के लिए लंबी यात्रएं भी करती थीं.उन्होंने बताया कि डायनासोर आम तौर पर किसी बड़े जलाशय या नदी के किनारे रेतीली और रवेदार मिट्टी में अंडे देते थे. अंडा देने की जगह डायनासोर और उनके समूह के आकार के मुताबिक विस्तृत होती थी.
वर्मा के मुताबिक उन्हें इन घोंसलों में डायनासोर के सौ से ज्यादा अंडों के जीवाश्म मिले थे. इनमें सबसे दुर्लभ घोंसला वह है, जिसमें इस विलुप्त जीव के करीब 15 अंडों के जीवाश्म एक साथ मिले थे.
उन्होंने बताया कि वह अब तक डायनासोर के 150 से ज्यादा अंडांे के जीवाश्म ढूंढ़ चुके हैं. बहरहाल, आज यह यकीन करना बेहद मुश्किल है कि वर्तमान नर्मदा घाटी में कभी डायनासोर की सल्तनत थी.
उन्होंने बताया कि नर्मदा घाटी में इस विलुप्त प्राणी के जो जीवाश्मीकृत अंडे अब तक मिले हैं, उनमें से करीब 90 प्रतिशत अंडे सौरोपॉड परिवार के डायनासोराें के हैं.
वह बताते हैं कि इस परिवार के डायनासोर शाकाहारी थे और उनकी ऊंचाई 20 से 30 फुट होती थी. ये डायनासोर तत्कालीन रेतीले इलाकों में दूरस्थ इलाकों से अंडे देने आते थे.
वर्मा ने कहा,
वर्मा के मुताबिक भारतीय डायनासोर के जीवाश्मीकृत अंडे और घोंसले मिलने का क्षेत्र करीब 10,000 वर्ग किलोमीटर में फैला है. इन अंडों की आयु 6. 5 करोड़ वर्ष से 6- 8 करोड़ वर्ष आंकी गई है.
उन्होंने बताया कि डायनासोर के जीवाश्मीकृत अंडे और घोंसले खासकर उन जगहों पर पाए गए हैं, जहां सहस्त्रब्दियों पहले ज्वालामुखी विस्फोट हुआ करते थे.
मंगल पंचायतन परिषदने तब पहली बार दुनिया भर का ध्यान खींचा था, जब इस खोजकर्ता समूह ने वर्ष 2007 के दौरान नजदीकी धार जिले में डायनासोर के करीब 25 घोंसलों के रूप में बेशकीमती जुरासिक खजाने की चाबी ढूंढ़ निकाली थी.हमारे पास इस बात के पर्याप्त सबूत हैं कि चट्टानों की जिन परतों में डायनासोर के अंडों के जीवाश्म दबे मिले हैं, वे बार-बार बाढ़ से प्रभावित होती रही हैं. इन जीवाश्मीकृत अंडों के आस-पास छोटे एवं गोल पत्थरों और बजरी का मिलना यह साबित करता है कि डायनासोर के घांेसलों के पास बाढ़ का पानी घुस आया करता था.उन्होंने बताया कि डायनोसोर के अंडे, मिट्टी और गाद से ढंके होने के कारण शिकारियों एवं दूसरे दुश्मनों से छिपे रहते थे और इन पर बैक्टीरिया का भी असर नहीं हो पाता था.

कबीर-नानक की मिलनस्थली पर बन रहा दुनिया का अजूबा


अमरकंटक : अमरकंटक घने जंगलों, नदियों, मंदिरों और गुफाओं का पर्याय एक रमणीक स्थल मात्र नहीं, बल्कि अध्यात्म व साहित्य साधना की मिलनस्थली भी है, जहां कबीर व गुरु नानक के बीच संवाद हुआ. जहां घने जंगलों के दरख्तों से गिरे सूखे पत्ताें की खड़खड़ तथा नर्मदा, सोन नदी के उद्गम से निकलने वाले पानी की कलकल ध्वनि में आध्यात्मिक संगीत के सुर सुने जा सकते हैं. जहां घने जंगलों में हठयोगी बाहरी दुनिया से बेखबर जहां-तहां धूनी रमाए देखे जा सकते हैं. इसी पवित्र नगरी में दुनिया के एक अनूठे मंदिर का निर्माण हो रहा है.
जैन तपस्वी संत आचार्य विद्यासागर की प्रेरणा से अमरकंटक में अष्टधातु की दुनिया की सबसे बड़ी मूर्ति प्रतिष्ठित की जा रही है.
दुनिया में अपनी तरह की अनूठी तथा एक रिकार्ड कायम करने वाली मूर्ति के भव्य मंदिर का निर्माण इस समय जोर-शोर से चल रहा है. लगभग दस फुट ऊंची प्रथम जैन र्तीथकर भगवान आदिनाथ की यह मूर्ति 28,000 किलोग्राम वजनी है तथा इसे अष्टधातु के ही 24000 किलोग्राम वजनी कमल सिंहासन पर प्रतिष्ठित किया गया है. मंदिर को गुजरात के मशहूर अक्षरधाम मंदिर की स्थापत्य शैली के अनुरूप बनाया जा रहा है और इसके स्थापत्य की विशेषता है कि इसे बिना इस्पात तथा सीमेंट के बनाया जा रहा है, ताकि वक्त की थपेड़ें इसका क्षय नहीं कर सकें और यह सदियों तक अक्षय बना रहे. इस विशाल मंदिर की ऊंचाई 144 फुट, लंबाई 424 फुट तथा चौड़ाई का दायरा 111 फुट है
न्यासी प्रमोद जैन के अनुसार इस मंदिर के निर्माण पर लगभग 25-30 करोड़ रुपया व्यय होगा तथा संभवत: अगले वर्ष के मध्य तक (2013) इसकी प्राण प्रतिष्ठा हो जाएगी. ऐसी संभावना है कि प्राण प्रतिष्ठा समारोह आचार्य श्री और उनके संघ के सानिध्य में होगा.
एक जैन श्रद्धालु के अनुसार मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ के संधिस्थल पर बसे इस क्षेत्र में विहार करते वक्त आचार्य भी यहां र्जे-र्जे में बसी आध्यात्मिकता से इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने यहां मंदिर बनवाने का निश्चय कर लिया और अब दुनिया का एक अनूठा आध्यात्मिक व धार्मिक केंद्र यहां निर्मित हो रहा है और घने जंगलों में मंदिर के घंटों के स्वर यहां के अद्भुत माहौल को और भी अद्भुत बना देंगे.
गहराती शाम में निर्माणाधीन मंदिर से कुछ दूरी पर घने जंगलों में कबीर चबूतरे पर धूनी जमाए साधुओं द्वारा गाए जा रहे कबीर के भजन माहौल को और भी विस्मयकारी कर देते हैं. कबीर चौरा, चबूतरों पर कबीर व गुरुनानक के चित्र शायद उसी संवाद को जीते से लगते हैं.

Saturday 23 June 2012

धर्म का बढ़ता व्यापार

धर्म का व्यापार अथवा धर्म के नाम पर व्यापार कोई नई बात नहीं है. संचार माध्यमों और मीडिया प्रसारण के इस युग में धर्म को माध्यम बना कर ऐसे पाखंड प्रचारित किए जा रहे हैं कि भविष्य के प्रति आशंकित लोगों को अपने भविष्य सुधारने के लिए इन जालों में फंसते देर नहीं लगती.
धर्म का गुण है अनेक को अपनी छत्रछाया में लेना और सबको विकास की राह दिखाना. लेकिन धर्म के नाम पर आज हमें जो प्रयास नजर आते हैं, उनमें विभिन्न समुदाय-वर्गो को सामाजिक सरोकारों से जुड़ने की प्रेरणा देने के बजाय अपने व्यावसायिक हितों को साधने का साधन बनाने की कोशिशें ही कोशिशें दीख पड़ती हैं. ऐसे लोगों ने धर्म को व्यापार बना दिया है, वे भगवान को अपनी जेब में रखना चाहते हैं और अवसर मिलते ही उसे भुनाना भी चाहते हैं.
ऐसी चाहत आज बढ़ती ही जा रही है. यह धन कमाने का सर्वाधिक सरल और सुगम मार्ग बन गया है. इस सरलता और सुगमता का माध्यम लोगों की अंधी आस्था और आसानी से जीवन में सबकुछ हासिल कर लेने की लालच है.
टीवी चैनलों पर ऐसे दैवीय यंत्रों की भरमार दिखाई पड़ती है जो यह दावा करते हैं कि उनके उपयोग से जिंदगी में खुशहाली आ जाएगी. इनकी श्रेष्ठता और सत्यता साबित करने के लिए फिल्म और टेलीविजन के सितारों की भी मदद ली जाने लगी है. पिछले कुछ सालों में, कुछ हिंदी टेलीविजन चैनलों ने कुछ पाखंडी धर्म गुरुओं के गोरखधंधों का पर्दाफाश करने का दावा किया है, जबकि उनका यह प्रयास संदेह के घेरे से बाहर नहीं है.
अधिकांश मामलों में इन धर्म गुरुओं के बारे में यह आरोप लगाए गए हैं कि इन लोगों ने व्यक्तिगत लाभ और पैसा कमाने के लिए लोगों की धार्मिक भावनाओं से खिलवाड़ किया है. आर्थिक दोहन, यौन शोषण, संकुचित सोच और अंधविश्वास ने हर तरह के अपराधों को बढ़ावा दिया है फिर वह व्यक्तिगत हिंसाचार हो या फिर सामूहिक हत्या या आतंकवाद. इनकी पुनरावृत्ति पूरे देश में और हर धर्म में होती दिखाई पड़ती है. नि:संदेह, धर्म के मामले में यह पूरी तस्वीर नहीं है, लेकिन फिर भी हमारा ध्यान आकर्षित करने के लिए इसमें पर्याप्त महत्वपूर्ण पहलू तो हैं ही.
पूरे विश्व में, व्यक्तियों में धर्म की श्रेष्ठता के प्रति आस्था और उसका व्यक्तिगत जीवन पर असर बढ़ने के बजाय धार्मिक प्रथा-परंपराओं के स्वरूप में बदलाव आता जा रहा है. भारत में, आर्थिक सुधारों और उससे उत्पन्न हुई संपन्नता ने धार्मिक भावनाओं को कमजोर करने के बजाय और प्रबल किया है. उसके प्रमाण हमारे चारों ओर पसरे हुए हैं.
विभिन्न टेलीविजन चैनल गुरुओं को ब्रांडबनाने में लगे हुए हैं. धार्मिक उत्सवों को प्रमुखता से दिखाया जा रहा है. हमारे रोजमर्रा के जीवन में भी धार्मिक अनुष्ठानों का बड़ा महत्व नजर आने लगा है. मंदिरों में खूब भीड़भाड़ नजर आती है, खासतौर पर परीक्षा के दिनों में.
बात केवल ईश्वर से अपने सुख और कल्याण के लिए व्यक्तिगत प्रार्थना तक सीमित नहीं रह गई, बल्कि अब तो ऐसी कई कहानियां सुनने को मिल जाती हैं, जिनमें ईश्वर के प्रकोप से बचने और वरदान पाने के लिए कुछ भक्त विचित्र प्रायश्चित करते हैं. इनकी वजह से मनुष्य मात्र का नुकसान भी होता है.
प्रार्थना एक ऐसा अस्त्र माना जाता है जो असंभव को संभव कर सकता है. मानव मात्र अपने साथ घटने वाली अनपेक्षित, बुरी घटनाओं से इसी प्रार्थना के सहारे बचना चाहता है. प्रार्थना में ईश्वर से फरियाद के साथ-साथ बाध्यकारी मांग भी शामिल होती है. इसमें दासता का भाव भी निहित होता है और भावनाओं का अतिरेक भी.
परंपरागत तौर पर प्रार्थना या ईश्वर की आराधना में अपेक्षा की जाती है कि बिना किसी उम्मीद, सवाल-जवाब ऊपर वाले के समक्ष समर्पण. लेकिन अब लगातार इस बात को अनुभव किया जा रहा है कि भक्तों की मांगों ने आत्मसमर्पण को पिछवाड़े छोड़ दिया है. प्रार्थना, परिणाम पर निर्भर हो गई है.
तथाकथित धार्मिकता और असल धार्मिकता के बीच खाई बढ़ रही है. परिणामस्वरूप धर्म की सामाजिक उपयोगिता का ह्रास हो रहा है. धर्म, व्यक्तिगत विकास का माध्यम बनने के बजाय एक रिमोट कंट्रोल बन रहा है जिसे जो, जब, जहां चाहे अपने स्वार्थ के लिए घुमा लेता है.
जहां सच्ची धार्मिकता आत्मसुधार और बिना शर्त समर्पण के भाव पैदा करता है, वहीं आज धर्म से लोगों का रिश्ता अधिकाधिक मांगों भरा हो गया है, जिसमें स्वार्थ ही स्वार्थ है, समर्पण अथवा अर्पण का कहीं नामो निशान भी नजर नहीं आता.