Saturday 29 December 2012

जीवन और साहित्य में घृणा का स्थान

-प्रेमचंद
निंदा, क्र ोध और घृणा ये सभी दुर्गुण हैं, लेकिन मानव जीवन में से अगर इन दुर्गुणों को निकल दीजिए, तो संसार नरक हो जाएगा. यह निंदा का ही भय है, जो दुराचारियों पर अंकुश का काम करता है. यह क्र ोध ही है, जो न्याय और सत्य की रक्षा करता है और यह घृणा ही है जो पाखंड और धूर्तता का दमन करती है. निंदा का भय न हो, क्र ोध का आतंक न हो, घृणा की धाक न हो तो जीवन विश्रृंखल हो जाय और समाज नष्ट हो जाय. इनका जब हम दुरु पयोग करते हैं, तभी ये दुर्गुण हो जाते हैं, लेकिन दुरु पयोग तो अगर दया, करु णा, प्रशंसा और भिक्त का भी किया जाय, तो वह दुर्गुण हो जाएंगे.
अंधी दया अपने पात्र को पुरु षार्थ-हीन बना देती है, अंधी करु णा कायर, अंधी प्रशंसा घमंडी और अंधी भिक्त धूर्त.
प्रकृति जो कुछ करती है, जीवन की रक्षा ही के लिए करती है. आत्म-रक्षा प्राणी का सबसे बड़ा धर्म है और हमारी सभी भावनाएं और मनोवृत्तियां इसी उद्देश्य की पूर्ति करती हैं. कौन नहीं जानता कि वही विष, जो प्राणों का नाश कर सकता है, प्राणों का संकट भी दूर कर सकता है. अवसर और अवस्था का भेद है.
मनुष्य को गंदगी से, दुर्गन्ध से, जघन्य वस्तुओं से क्यों स्वाभाविक घृणा होती है? केवल इसलिए कि गंदगी और दुर्गन्ध से बचे रहना उसकी आत्म-रक्षा के लिए आवश्यक है. जिन प्राणयिों में घृणा का भाव विकिसत नहीं हुआ, उनकी रक्षा के लिए प्रकृति ने उनमें दबकने, दम साथ लेने या छिप जाने की शिक्त डाल दी है. मनुष्य विकास-क्षेत्र में उन्नति करते-करते इस पद को पहुंच गया है कि उसे हानिकर वस्तुओं से आप ही आप घृणा हो जाती है. घृणा का ही उग्र रूप भय है और परिष्कृत रूप विवेक. ये तीनों एक ही वस्तु के नाम हैं, उनमें केवल मात्ना का अंतर है.
तो घृणा स्वाभाविक मनोवृति है और प्रकृति द्वारा आत्म-रक्षा के लिए सिरजी गई है. या यों कहो कि वह आत्म-रक्षा का ही एक रूप है. अगर हम उससे वंचित हो जाएं, तो हमारा अस्तित्व बहुत दिन न रहे. जिस वस्तु का जीवन में इतना मूल्य है, उसे शिथिल होने देना, अपने पांव में कुल्हाड़ी मारना है. हममें अगर भय न हो तो साहस का उदय कहां से हो. बल्कि जिस तरह घृणा का उग्र रूप भय है, उसी तरह भय का प्रचंड रूप ही साहस है. जरूरत केवल इस बात की है कि घृणा का परित्याग करके उसे विवेक बना दें. इसका अर्थ यही है कि हम व्यक्तियों से घृणा न करके उनके बुरे आचरण से घृणा करें.
धूर्त से हमें क्यों घृणा होती है? इसलिए कि उसमें धूर्तता है. अगर आज वह धूर्तता का परित्याग कर दे, तो हमारी घृणा भी जाती रहेगी. एक शराबी के मुंह से शराब की दुर्गन्ध आने के कारण हमें उससे घृणा होती है, लेकिन थोड़ी देर के बाद जब उसका नशा उतर जाता है और उसके मुंह से दुर्गन्ध आना बंद हो जाती है, तो हमारी घृणा भी गायब हो जाती है. एक पाखंडी पुजारी को सरल ग्रामीणों को ठगते देखकर हमें उससे घृणा होती है, लेकिन कल उसी पुजारी को हम ग्रामीणों की सेवा करते देखें, तो हमें उससे भिक्त होगी. घृणा का उद्देश्य ही यह है कि उससे बुराइयों का परिष्कार हो.
पाखंड, धूर्तता, अन्याय, बलात्कार और ऐसी ही अन्य दुष्प्रवृत्तियों के प्रति हमारे अंदर जितनी ही प्रचंड घृणा हो, उतनी ही कल्याणकारी होगी. घृणा के शिथिल होने से ही हम बहुधा स्वयं उन्हीं बुराइयों में पड़ जाते हैं और स्वयं वैसा ही घृणति व्यवहार करने लगते हैं. जिसमें प्रचंड घृणा है, वह जान पर खेलकर भी उनसे अपनी रक्षा करेगा और तभी उनकी जड़ खोदकर फेंक देने में वह अपने प्राणों की बाजी लगा देगा. महात्मा गांधी इसलिए अछूतपन को मिटाने के लिए अपने जीवन का बलिदान कर रहे हैं कि उन्हें अछूतपन से प्रचण्ड घृणा है.
जीवन में जब घृणा का इतना महत्व है, तो साहित्य कैसे उसकी उपेक्षा कर सकता है, जो जीवन का ही प्रतिबिंब है? मानव-हृदय आदि से ही सुऔर कुका रंगस्थल रहा है और साहित्य की सृष्टि ही इसलिए हुई कि संसार में जो सु या सुंदर है और इसलिए कल्याणकर है, उसके प्रति मनुष्य में प्रेम उत्पन्न हो और कु या असुंदर और इसलिए असत्य वस्तुओं से घृणा. साहित्य और कला का यही मुख्य उद्देश्य है. कु और सु का संग्राम ही साहित्य का इतिहास है. नवीन साहित्य समाज का खून चूसनेवालों, रंगे सियारों, हथकंडाबाजों और जनता के अज्ञान से अपना स्वार्थ सिद्ध करनेवालों के विरु द्ध उतने ही जोर से आवाज उठा रहा है और दीनों, दलितों, अन्याय के हाथ सताए हुए के प्रति उतने ही जोर से सहानुभूति उत्पन्न करने का प्रयत्न कर रहा है।
(हिन्दी समय डॉटकॉम से साभार)

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