Sunday 30 December 2012

गीत गुनगुनाऊं या इंसानियत का मर्सिया!

गीत गुनगुनाऊं या इंसानियत का मर्सिया!
-विकास मिश्र
कुछ समझ नहीं आ रहा है कि 2012 की विदाई वेला में उपलब्धियों के गीत गुनगुनाऊं या इंसानियत का मर्सिया (शोक गीत) गाऊं? जीवन संगीत में सफलताओं के सुर सजाऊं या फिर जो शूल चुभे हैं जेहन में, उसके दर्द से बिलबिलाऊं? मंगल पर यान उतारने की स्वप्नदर्शी भारतीय घोषणा और नासा के अंतरीक्ष यान क्यूरियोसिटी को मंगल पर उतारने में भारतीय वैज्ञानिक अमिताभ घोस की महत्वपूर्ण भूमिका पर सीना फुलाऊं या फिर देश की बहन और बेटियों को केवल देह समझकर बोटी नोचने वाले दरिंदों की काली करतूतों पर शर्मशार हो जाऊंर्?
वाकई..! कुछ समझ नहीं आ रहा है!
हां, दहकते सवालों से जेहन जरूर जल रहा है. फफोले भी उग आए हैं लेकिन मरहम लगाने वाली व्यवस्थाकहीं नजर नहीं आती. नजर आती है अराजकता की आग जो दावानल बनकर सबकुछ खाक कर देने पर उतारू है. यह अराजकता गली मोहल्ले से लेकर दिल्ली की चमचमाती सड़कों तक तांडव कर रही है. दिल्ली में ही नहीं बल्कि हमारे और आपके भीतर भी कोहराम मचा रही है. तब यह सवाल झकझोरता है कि इस साल हमने 5000 किलो मीटर तक मार करने में सक्षम परमाणु मिसाइल अग्नि-5 तो तैयार कर लिया लेकिन खुद के भीतर भ्रष्टाचार, दुराचार और अनाचार का जो दानव बैठा है, उसे मारने के लिए हमने क्या किया? क्या उसे सरकार मारेगी? क्या वह केवल कानून के डंडे से खत्म होगा? नहीं, वह व्यवस्थाहमारे भीतर से पैदा होनी चाहिए. 2012 में ही रीलिज हुई फिल्म फेरारी की सवारीयाद है आपको? फिल्म का नायक शरमन जोशी अनजाने में लाल सिग्नल के पार चला जाता है. अगले चौराहे पर रुकता है और एक ट्रेफिक वाले से जिद करता है कि वह उसका चालान बना दे. ट्रैफिक जवान कहता है कि किसी ने देखा नहीं तो चालान क्यों कटवाने पर उतारू हो? नायक अपने बेटे की ओर इशारा करता है कि इसने तो देखा है! ..इस फिल्म से कितने लोगों ने सीख ली? यदि सीख ली होती तो चौराहों पर अराजकता कुछ कम जरूर हुई होती! क्या चौराहे पर हम नियमों का सम्मान तभी करेंगे जब पुलिस का जवान मौजूद होगा?
यह सवाल खुद से पूछना चाहिए कि हम डंडे का सम्मान करते हैं या कानून का?
..और उस डंडे से भी सवाल पूछने को जी चाहता है जो
व्यवस्था के हाथों मेंहै. सवाल बहुत सीधा सा है-तुम निरपराधों और अपने हक की आवाज बुलंद करने वालों का सिर ही क्यों तोड़ते हो? तुम उन दरिंदों पर क्यों नहीं बरसते जो बहेलिया बनकर अस्मत की चीरफार करने के लिए बेखौफ घूम रहे हैं! तुमने सत्ता की चाकरी को ही नियती क्यों मान लिया है? क्या कभी सोचा है तुमने कि अपराधियों पर क्यों खौफ नहीं है तुम्हारा? अरे, अपनी मर्जी के मुताबिक कानून की ऐसी तैसी करोगे, कानून से जब तुम ही खिलवाड़ करोगे तो तुम्हारा खौफ कैसे रहेगा?वर्ष 2012 की विदाई से ठीक पहले बलात्कार की एक घटना ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया. बलात्कार की दुर्भाग्यजनक वारदात कोई पहली बार नहीं हुई है. हर रोज होती और समाज से लेकर सरकार तक की आंखों पर धृतराष्ट्र का चश्मा चढ़ा रहता है. दिल्ली की घटना ने युवाओं का खून खौला दिया इसलिए मामला जरा गर्म हो गया. लड़कियों और महिलाओं की सुरक्षा को लेकर सरकार पर दबाव भी है और शायद कुछ कानून भी बन जाए. लेकिन क्या यह सच नही है कि इस देश में पूरी व्यवस्था के साथ बलात्कार हो रहा है? थोड़ी सभ्य भाषा में आप इसे छलात्कार कह सकते हैं. हर कोई व्यवस्था को छलने में लगा है. देश की जैसे किसी को फिक्र ही नहीं है! जिन पर राम जैसा बनने की जिम्मेदारी थी, उनमें से कुछ पालायन कर गए और बाकी रावण बने बैठे हैं!
निदा फाजली के शब्दों में..
तुलसी तेरे राम के कमती पड़ गए बाण
गिनती में बढ़ने लगी रावण की संतान!
तो सवाल यह है कि समाज को रावण की संतानों से मुक्ति कौन दिलाएगा? क्या हम किसी और राम या किसी और गांधी का इंतजार करते रहें? नहीं, किसी का इंतजार करने की जरूरत नहीं है. जरूरत है खुद को राम और गांधी के रास्ते पर ले जाने की! इस देश के युवाओं में राम की मर्यादा और गांधी का आदर्श पा लेने की असीम संभावनाएं भी हैं और क्षमता भी है. बस दुर्भाग्य इतना है कि युवाओं की इस फौज का स्वाभिमान अभी पूरी तरह जागा नहीं है. 2012 के अंतिम दिनों में इसकी झलक भर मिली है. यदि हर गांव, हर कस्बे और हर शहर में युवा इसी तरह जागरुक हो गया तो फिर किसी माई के लाल में हिम्मत नहीं है कि वह बहन और बेटी की अस्मत के साथ खिलवाड़ कर ले!
निदा फाजली के इस शेर पर गौर फरमाइए..
जलती तपती धूप में झुलस रहा था गांव
छोटी सी इक बीज में छुपी हुई थी छांव
इस देश का युवा वही बीज है जिसके भीतर छांव छिपी है. उम्मीद करें कि आने वाले वर्षो में बीज अंकुरित हो और सघन छांव वाला वृक्ष बन जाए!
(लेखक
लोकमत समाचारके संपादक हैं)(लोकमत समाचार के रविवारीय परिशिष्ट
लोकरंगमें 30 दिसंबर 2012 को प्रकाशित) 

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