Friday 23 November 2012

विशाल हृदय, स्नेही अभिभावक बाबूजी

जन्म दिवस 25 नवंबर पर विशेष
वह सही अर्थो में श्रीमंत थे. विशाल हृदय अर्थात बड़े दिल वाले, स्नेही, और समाज के प्रत्येक घटक के लोगों की चिंता करने वाले एक समर्पित समाज सेवी के रूप में उनकी पहचान रही. कांग्रेस पार्टी के विभिन्न उच्च पदों पर, विभिन्न शासकीय संस्थाओं के शीर्ष पदों पर और महाराष्ट्र शासन के दो दशकों तक मंत्री रहे बाबूजी हमेशा अपनी पहचान एक सामाजिक कार्यकर्ता की बनाए रखने में ही गौरवान्वित महसूस करते रहे. उन्होंने अपने जीवन में पद, प्रतिष्ठा, यश, सम्मान अथवा अधिकारिता, जो कुछ भी पाया, उससे बढ़कर उन्होंने महाराष्ट्र को और खास कर विदर्भ को एवं यहां के लोगों को केवल दिया, दिया और दिया ही.
मराठी के महाकवि स्व. सुरेश भट ने बाबूजी स्व. जवाहरलाल दर्डा की स्मृति में 18 दिसंबर 1999 को लोकमतमें प्रकाशित अपने सारासारस्तंभ में कहा है- ‘..आमचे बाबूजी हृदयाने श्रीमंत होते. ते लक्ष्मीपुत्र, लक्ष्मीदास नव्हते. ते खानदानीश्रीमंत नव्हते. पण ते लक्ष्मीपतीहोते! धन फक्त घेण्यासाठीच नव्हे, तर देण्यासाठी सुद्धा असते, हे ते जाणत. खरोखरच आमच्या बाबूजी सारखे बाबूजीच! अशी श्रीमंतविभूति कचितच जन्मते! खानदानीपणा तर वागणुकीने ठरतो.’ (हमारे बाबूजी विशाल हृदय वाले थे. वे लक्ष्मीपुत्र थे, लक्ष्मी के दास नहीं थे. वे खानदानीअमीर नहीं थे. किंतु वे लक्ष्मीपतिथे! वे जानते थे कि धन केवल कमाने (पाने) के लिए ही नहीं, दान के लिए भी होता है. सच्चे अर्थ में हमारे बाबूजी जैसे बाबूजी! ही थे. ऐसे विशाल हृदय (श्रीमंत) व्यक्तित्व विरले ही पैदा होते हैं! आदमी का बड़प्पन उसके आचरण से ही झलकता है.)
25 नवंबर सन् 1997 को मुंबई में उनका अवसान हुआ. यह दिन इस बात का साक्षी बना कि कैसे अपने इस विशाल हृदय राजनेता और सुहृदय अभिभावक सरीखे व्यक्तित्व को खोने से संपूर्ण विदर्भ स्तंभित था. उनका पार्थिव शरीर मुंबई से नागपुर लाया गया. लोकमत भवन परिसर पर उनके निकटवर्ती रहे लोगों के अलावा हजारों की संख्या में जनसमुदाय देर रात तक अपने प्रिय नेता के अंतिम दर्शनार्थ प्रतीक्षारत था. सम्पूर्ण नागपुर जिला ही नहीं विदर्भ के सुदूर क्षेत्रों के लोग उनके निधन की खबर मिलते यहां रात्रि तक पहुंच गए थे. लोकमत भवन में अंतिम दर्शन के लिए रखे उनके पार्थिव पर अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करने को लोग बेताब थे. हर वर्ग और समुदाय के लोग देर रात बाबूजी के अंतिम दर्शन के लिए कतारबद्ध खड़े थे. देर रात उनका पार्थिव उनकी जन्मभूमि यवतमाल के लिए रवाना हुआ.
दूसरे दिन यवतमाल के गांधी भवन में प्रात से ही उनके अंतिम दर्शन के लिए मानो संपूर्ण विदर्भ उमड़ा चला आ रहा था. यवतमाल तो उनकी जन्मभूमि और आरंभिक कर्मभूमि ही थी. जिले के कोने-कोने से लोग अपने प्रिय बाबूजी को श्रद्धांजलि अर्पित करने और उनका अंतिम दर्शन करने आ चुके थे. वहां अकोला, बुलढाणा, वाशिम, अमरावती आदि जिलों के लोगों का भी तांता गांधी भवन में लगा था. गांधी भवन से उनके जन्मस्थल होते हुए उनकी अंत्ययात्र जब दर्डा उद्यान के निकट निर्धारित समाधि स्थल के लिए निकली तो उसमें मानो जनसागर उमड़ता नजर आ रहा था. शहर के तमाम नर-नारी हपने सच्चे हितैषी को अपनी मौन श्रद्धांजलि दे रहे थे. यह बाबूजी के सच्चे श्रीमंत होने का ही नहीं, जन-जन के आदरणीय होने का भी प्रत्यक्ष प्रमाण था. उनकी इस अंत्ययात्र में हर वर्ग, हर समुदाय और हर मजहब के लोग शरीक थे.
बाबूजी दूरद्रष्टा और अत्यंत परिपक्व राजनीतिक विचारधारा के राजनेता थे. कांग्रेस के समाजवादी कार्यक्रमों को शासन में रहकर क्रियान्वित करने के साथ ही उन्होंने देश के विकास के लिए खुली अर्थव्यवस्था और उदारीकरण की जरूरत भी महसूस की थी. उनका स्पष्ट मत था कि
समाजवाद साध्य नहीं, साधन है. यह संतमार्ग है. इस मार्ग से तेजी से परिवर्तन नहीं होगा. बदलती हुई परिस्थिति में परिवर्तन अपरिहार्य हो गया है. ज्ञान, विज्ञान, अनुसंधान, गुणवत्ता और स्पर्धा के दौर में हमें टिकना है तो खुली अर्थव्यवस्था का मार्ग हमें स्वीकार करना ही पड़ेगा.बाबूजी देश के विकास को तीव्रतर करने के हामी थे. उनका मत था कि जब कड़ी मेहनत से इजराइल को मरुस्थल से नंदनवन बनाया जा सकता है तब हमारा देश जो पहले कभी नंदनवन था, उसे अब मरुस्थल बनता हम कैसे देख सकते हैं.उनका कहना था, आजादी के पहले त्याग की जरूरत थी. अब काम की जरूरत है. कड़ी मेहनत और गुणवत्ता की बदौलत ही हम टिक सकते हैं.सन् 1952 में साप्ताहिक लोकमतऔर सन् 1971 में नागपुर से दैनिक लोकमतके प्रकाशन के पीछे उनका मुख्य उद्देश्य समाज को साम्प्रदायिक और प्रतिक्रियावादी ताकतों से बचाना और देश के नवनिर्माण में प्रगतिशील गांधीवादी विचारधारा की महत्ता स्थापित करना था. इस महान उद्देश्य से निकला लोकमतउनकी कर्मठता और दूरदृष्टि से आज राज्य के हर गांव, हर चौपाल की आवाज बन गया है. कुल 13 संस्करणों के साथ आज यह दैनिक समाचारपत्र महाराष्ट्र की धड़कन माना जाने लगा है.महाकवि स्व. सुरेश भट ने करीब से उन्हें देखा और जाना था. उनका कथन है कि
बाबूजी यदि राजनीति में नहीं होते और लोकमतके संपादक नहीं होते तो निश्चय ही वे मराठी के एक बड़े कवि होते.उनका मराठी प्रेम सर्वविदित है. वे बहुत ही अच्छी मराठी बोलते थे. उनका राष्ट्रभाषा हिन्दी से लगाव भी जगजाहिर है. यही कारण था कि सन् 1989 में हिन्दी दैनिक लोकमत समाचारका प्रकाशन नागपुर से और सन् 1992 में औरंगाबाद से आरंभ हुआ. अकोला संस्करण सन् 1999 में शुरू हुआ. अब तो सोलापुर, जलगांव और महाराष्ट्र संस्कारधानी कही जाने वाली पुणो से भी इसका प्रकाशन शुरू हो चुका है. हिन्दी का यह समाचार पत्र लोकमत समाचारअपने कुल पांच संस्करणों के साथ महाराष्ट्र के हिन्दी भाषियों में लोकप्रिय एवं गौरवशाली स्थान बना चुका है. उनकी प्रेरणा ही थी कि सन् 1987 में अंग्रेजी दैनिक
लोकमत टाइम्सपहले औरंगाबाद से और बाद में सन् 1992 में नागपुर से निकलना शुरू हुआ. यह तीनों दैनिक आज महाराष्ट्र की जनता के लिए उनके गांधीवादी आदर्शो और जनचेतना का वाहक बन चुके हैं.
लोकमत पत्र समूहके यह तीनों दैनिक पत्र आज बाबूजी की विचारधारा को अपना कर उनके इच्छा के अनुरूप जनसेवा को ध्येय बना कर कार्य कर रहे हैं.-कल्याण कुमार सिन्हा

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