Sunday 15 September 2013

तस्लीमा नसरीन: परिंदा जो शाम तक घर नहीं लौटा 


सांझ की ओर बढ़ती खामोश सी दोपहरी, नई दिल्ली के एक छोटे से कमरे में कुछ प्रबुद्ध महिलाओं के सामने बंगलादेश से निर्वासित चर्चित और विवादास्पद लेखिका तस्लीमा नसरीन अपनी अंग्रेजी कविता पढ़ रही है. कमरे में सन्नाटा है. काली बंगला साड़ी और  गले में मंगल सूत्र पहने. होंठों पर हल्की सी मुस्कान और चेहरें पर दृढ़ता के भाव के साथ औरतों पर कविता पढ़ती हुई तस्लीमा-

उन्होंने कहा, चुप, जबान बंद, 
सिर झुकाकर बैठो चिल्लाओ                  
रोती रहो, चीखती रहो.         
‘तो आखिर तुम्हारा जवाब क्या होना चाहिए’
अब तुम्हें खड़ा होना ही होगा, 
सीधा, एकदम सीधा गर्दन तनी, सिर ऊंचा,
तुम्हारे दिमाग में जो बवंडर चल रहा है          
बोलो, खुल कर बोलो. चिल्ला कर बोलो          
इतना तेज चिल्लाओ कि वे भागते नजर आएं.
तुम्हारी जबान खोलते ही वो तुम्हें बेशर्म कहेंगे, 
गाली देंगें, ध्यान रहे- तुम्हारी आजाद हवा को कैद 
करने के लिए उन्होंने एक शब्द गढ़ा है ‘बदचलन’ 
वो तुम्हें बदचलन कहेंगे.
लेकिन तुम हंसो, जोर से हंसो. 
जोरदार ठहाका लगाओ और 
कहो- ‘हां, हां मैं बदचलन हूं.’ 
भीड़ में जो मर्द होंगें, 
उनके माथे पर पसीने की बूंदे तैरने लगेंगी. 
भीड़ में बहुत पीछे, खामोश परकटी सी खड़ी 
औरतों की आंखों में एक ख्वाब तैरने लगेगा 
वो भी तुम्हारी जैसी ‘बदचलन’ होना चाहती है.’         
लड़कियों, उठो.’
-तस्लीमा नसरीन

अंग्रेजी में लिखी तस्लीमा की इस कविता का हिंदी अनुवाद कुछ इस तरह है. परंपरावादी सोच के खिलाफ बगावत तथा विचारों के खुलेपन को लेकर उनके वतन ने उन्हें पिछले 20 वर्ष से निर्वासित कर रखा है. बसेरे की तलाश में कभी वे इस देश तथा कभी उस देश में हैं. मानवता के आधार पर अक्सर भारत इनको आश्रय देता रहा है.भारत सरकार द्वारा जारी अस्थायी परमिट पर तस्लीमा इन दिनों भारत में है. निर्वासन की पीड़ा भोगते-भोगते शायद अपने देश को लेकर उनके भाव सपाट पड़ चुके हैं. बातचीत में वो कहती है, ‘वहां जाने की अब कहां कोई इच्छा है. कहां जा भी पाऊंगी. मां बाप मर गए. आखिरी वक्त उन्हें देखने के लिए जाने की मंजूरी नहीं मिल पाई. काफी दोस्त गुजर गए.’ बुदबुदाती सी आवाज में वो कहती है, लेकिन आवाज में वही दृढ़ता.
तस्लीमा नसरीन की विवादास्पद पुस्तक ‘लज्ज’ सहित उनकी कयी पुस्तकों पर बंगलादेश में पाबंदी लगी हुई है तथा कुछ देशों में उनकी विवादास्पद पुस्तकों के अंशों को सेंसर कर छापा गया है. अपने निजी जीवन के अंतरंग संबंधों को पन्नों पर उतारने तथा खुलेपन को लेकर भी न केवल परंपरावादी समाज, बल्कि समीक्षक भी उनकी आलोचना करते रहे हैं. धर्म को लेकर भी उनके विचारों को लेकर उन्हें अक्सर धर्मगुरु उनसे नाराज रहे हैं तथा कई बार फतवा जारी कर चुके हैं. लेकिन तस्लीमा का लेखन जारी है.
अलबत्ता बातचीत में वे राजनीति या संवेदनशील मसलों पर अपने विचार व्यक्त नहीं करना चाहतीं, लेकिन समाज में औरतों की स्थिति के बारे में बात करते समय आक्रोश साफ झलकता है. तस्लीमा कहती हैं, ‘मैं यहां भारत सरकार की मेहमान हूं, नहीं चाहती हूं कि मेरी वजह से कोई विवाद बने और सरकार परेशानी में पड़े.’
स्वीडन और यूरोपीय यूनियन की नागरिकता के बावजूद तस्लीमा भारत में ही रहना चाहती हैं. ‘यहां की लोकतांत्रिक व्यवस्था, आजादी, सुरक्षा और सबसे बड़ी बात यहां की संस्कृति से मैं अपने को ज्यादा जुड़ा मानती हूं.’ तस्लीमा के लिए पं. बंगाल और बंगलादेश अभी भी ‘बंगाल’ ही है. विभाजन के खिलाफ रही तस्लीमा कहती हैं, ‘बंटवारे से क्या संस्कृति बंट पाई. बंगाली न हिंदू हैं न मुसलमान. वो सिर्फ बंगाली हैं. ‘हिल्सा, रवीन्द्र संगीत, बंगला भाषा’ सभी तो एक है, फिर बंटवारा कहां है.’
पश्चिम बंगाल ने भी कुछ विवादों के बाद तस्लीमा नसरीन के अपने यहां आने पर रोक लगा रखी है. तस्लीमा कहती है ‘वहां मैं जाना चाहती हूं, रहना चाहती हूं, लेकिन वहां सरकार बदल जाने के बाद भी मुझ पर रोक जारी है, इसलिए जहां रहती हूं, वहीं बंगाल ढूंढ़ने की कोशिश करती हूं.’
तस्लीमा अब तक 37 पुस्तकें लिख चुकी है. उनकी कई पुस्तकों को अनेक अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं तथा कई भाषाओं में उनका अनुवाद हो चुका है. इनमें कविता संग्रह, उपन्यास, निबंध और आत्मकथा शामिल है.
तस्लीमा कहती है, ‘महिलाओं के विचारों को अभिव्यक्ति देना उन्हें संतोष देता है. यह अलग बात है, कई बार मेरे विचार समाज से मेल नहीं खाते.’ भारत में अपने प्रवास के बारे में तस्लीमा में बसी औरत कहती है ‘अकेलापन खलता तो है, लेकिन लेखन में व्यस्त रहती हूं. खाली वक्त में अपनी बिल्ली (नीलू) के साथ खेलती हूं. शायद उनके घर में पड़ी नीलू की अलग आराम कुर्सी एक औरत की पूरी कहानी बयान करती है.
तस्लीमा की कई पुस्तकों के प्रकाशक तथा एक प्रतिष्ठित प्रकाशन समूह की सदस्या अदिति महेश्वरी बताती है, ‘तस्लीमा जी अक्सर अपने सुरक्षाकर्मियों के लिए हिन्दी में पुस्तकें मंगवाती है और कहती है, मेरे बेटों के लिए भी फलां फलां किताबें भिजवा देना. उन्हें भी पढ़कर अच्छा लगेगा.
तस्लीमा का कहना है. आदर्श स्थिति तो वह होगी जब कोई भी कहीं रह सकेगा, कोई रोक टोक नहीं होगी. विश्व नागरिकता, लेकिन सरहदों की दीवारों का क्या, जहां मां बेटा, भाई-भाई अचानक खिंची भौगोलिक दीवारों से बंट जाते हैं. विश्व नागरिकता का सपना पाले तस्लीमा इस कड़वे सच को जानती भी है.
तस्लीमा के गले में पड़ा मंगल सूत्र चौंकाता है. पूछने पर कहती हैं, ‘मुङो इस पहनना अच्छा लगता है. यह किसी के कल्याण के लिए, मेरे मंगल के लिए है मेरी खुशी इससे झलकती है.’
शाम हो रही है पंछी चहचहा रहे हैं, घर लौट रहे हैं, ढलते सूरज की सिंदूरी किरण की झलक तस्लीमा के चेहरे पर पड़ रही है. अपने सुरक्षा कर्मियों से बंगला जबान में वह कुछ कह रही है. कार का दरवाजा खोलते-खोलते आकाश में बसेरों की तरफ लौटते परिंदों की तरफ देखती है. शायद सोच रही होगी ‘शाम ढल रही है, लेकिन मैं बसेरे पर लौटी नहीं हूं. कहां है मेरा बसेरा.’
तस्लीमा विवादों में घिरी एक लेखिका ही नहीं, एक इंसान भी है, एक औरत भी है.
-शोभना जैन

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