Monday 16 September 2013

कुपोषण की सलीब पर मेलघाट के आदिवासी


मेलघाट! कुपोषण का पर्यायवाची बनता एकअभिशप्त नाम. भूख और कुपोषण की बलि चढ़ रहे बच्चों, युवाओं और वृद्धों की त्रसदी की दास्तान यहां सुनिए.
उड़ीसा के कालाहांडी, काशीपुर और रायगढ़ा जिले, बिहार (अब झारखंड) का पलामू जिला और राजस्थान, मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश आदि राज्यों के अनेक जिले और देश के समृद्ध राज्यों में गिने जाने वाले महाराष्ट्र का यह मेलघाट, सभी स्वतंत्र भारत के इतिहास के काले अध्याय ही बनते जा रहे हैं. पिछले तीन-चार दशकों से देश में गरीब और गरीबी राजनीति की बिसात पर बिछे खेल के वैसे मोहरे हैं, जिस खेल के अंत की कहीं कोई गुंजाइश नजर नहीं आती. सरकारें बदलती हैं, आशाएँ बंधती हैं, लेकिन स्थितियों में विशेष परिवर्तन परिलक्षित नहीं होता. कालाहांडी, पलामू आदि जब तीन दशक पूर्व भुखमरी के पर्याय बन चुके थे, मेलघाट तब भी चर्चा में था. राष्ट्रीय स्तर पर पलामू और कालाहांडी के लिए जब संवेदनाओं की लहर चल रही थी, तब भी देश के अनेक हिस्सों में गरीबी के कारण भुखमरी और कुपोषण का तांडव चल रहा था. किंतु सत्ता प्रतिष्ठान का ध्यान वहीं जाता है, जहाँ शोर रोका नहीं जा सकता.
मेलघाट के आदिवासियों के कुपोषण की त्रसदी नई बात नहीं है. लेकिन यहां पहले स्थितियां नौकरशाही के भूलभुलैये से निकल नहीं पा रही थीं. पिछले ढाई दशकों से हर वर्ष सैकड़ों की संख्या में आदिवासी बच्चों की हो रही मौत के पीछे अलग-अलग कारण बता कर नौकरशाही उठ रहे शोर को दबाने में सफल होती रही. आज स्थितियाँ बदली हैं. राज्य का सत्ता प्रतिष्ठान भी देर से ही सही कुछ जागरूक होता नजर आया है. विदर्भ के इस सर्वाधिक उपेक्षित आदिवासी क्षेत्र के लिए उठी संवेदनाओं की लहर से केंद्र स्तर पर भी हलचलें आरंभ हुई हैं. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी का ध्यान इस ओर जाना इस आशा को जगाता है कि सत्ता प्रतिष्ठान नौकरशाही द्वारा की जा रही लीपापोती से अलिप्त रह कर मेलघाट की जमीनी सच्चइयों को समझने का प्रयास करेगा.
सन् 1985 में उड़ीसा के कालाहांडी में भूख से उत्पन्न स्थितियों से रूबरू होने पहली बार तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने वहां का दौरा किया था और वहाँ के हालात का प्रत्यक्ष जायजा लेने पर वे स्तब्ध रह गये थे. उन्हें तत्काल वहाँ ‘बचाव अभियान’ (ऑपरेशन साल्वेज) चलाने का आदेश देना पड़ा था. राहत केन्द्र खोले गये और आपात मुफ्त भोजन की व्यवस्था भी की गई, परंतु कालाहांडी अभिशप्त ही बना रहा. मौतें बदस्तूर जारी थीं.
लेकिन बलिहारी नौकरशाही की कि वह इन मौतों का कारण अब भूख से नहीं होना मान कर संतुष्ट थी. राजीव गांधी के 21 माह पूर्व के ‘ऑपरेशन साल्वेज’ आरंभ करने के किसी आदेश का नौकरशाहों को पता तक नहीं था. यह तथ्य एक अंग्रेजी साप्ताहिक पत्रिका के सर्वेक्षण से उजागर हुआ. कालाहांडी के तत्कालीन कलेक्टर ने इस बात से इंकार किया कि उसे किसी ‘आपरेशन साल्वेज’ की जानकारी भी है. उसने तो कालाहांडी में हो रही मौतों के बारे में उस साप्ताहिक पत्रिका से कहा कि डॉक्टरों की रिपोर्ट है कि ये मौतें भूख से नहीं, बल्कि अन्य रोगों और पेचिश से हो रही है. वह इस बात से संतुष्ट था कि सरकारी राहत केन्द्रों में मुफ्त भोजन दिए जाने के बाद अब कोई भूख से कैसे मर सकता है? जब कि वास्तविकता यह थी कि यह सरकारी मुफ्त आपात भोजन योजना भी गरीब पीड़ित आदिवासियों की भूख मिटाने के बजाय उन्हें कुपोषण के गर्त में धकेल रही थी. राहत केन्द्रों पर दिया जारहा भोजन न तो पर्याप्त था और नहीं पोषक. उन्हें पेट भरने के लिए उन्हीं जंगली कंद-मूलों और मशरूमों पर निर्भर रहना पड़ रहा था, जो मानव शरीर के लिए विषाक्त थे. उनका सेवन उन्हें मौत की ओर खींच रहा था. समस्या मौत की थी, लोगों के जीवन की रक्षा उद्देश्य था, लेकिन नौकरशाही का रवैया कुछ और ही बयान कर रहा था.
मेलघाट की कहानी भी बहुत अलग नहीं है. यहाँ भी नौकरशाही का खेल वैसा ही है. सरकार यहाँ भी राज्य में बदली. शिवसेना-भाजपा शासन के समय भी यह समस्या कम गंभीर नहीं थी, लेकिन उसके रवैये से नौकरशाही को और शह मिली.
मेलघाट की समस्या ‘मेलघाट व्याघ्र परियोजना’ के बाद और अधिक गंभीर हुई है. यहां के आदिवासियों का नाता जंगल से तोड़ कर रख दिया गया. सदियों से जंगल ही जिनकी जीविका और सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन का आधार बना हुआ था, एकबारगी उससे अलग कर दिया जाना उनके लिए घातक सिद्ध हुआ. आजीविका का अब एकमात्र विकल्प उनके सामने मजदूरी ही बचा रहा, जिसके लिए वे मूल रूप से सरकारी विकास योजनाओं के कार्यो पर निर्भर हो गए. आदिवासियों एवं अन्य ग्रामीणों को रोजगार उपलब्ध कराने के लिए सरकार की रोजगार गारंटी योजना (रोगायो) और ग्रामीण रोजगार योजना के अंतर्गत इन्हें रोजगार उपलब्ध कराना था. महिलाओं के लिए मातृत्व योजना है. किंतु ये योजनाएं यहां के आदिवासियों के लिए महज दिखावा ही बनी हुई हैं. क्षेत्र के लगभग 80-90 हजार मजदूरों को काम की जरूरत थी. लेकिन साल भर में मात्र छह-सात महीनों के लिए हजार-दो हजार मजदूरों से अधिक को कभी काम नहीं मिल पाया. बेकारी के आलम में उन्हें हक तो दर-दर भटकने पर मजबूर होना पड़ा है, दूसरे उनकी महिलाओं और बच्चों को उसी भूख और कुपोषण का शिकार बनना पड़ा है. इसमें ‘काम के बदले अनाज’ योजनाओं में तो उनके साथ क्रूर मजाक भी चलता रहा है. जनवरी में कराए गए काम की मजदूरी का भुगतान अप्रैल या मई महीने में की गई है. इसकी खबरें अखबारों की हमेशा सुर्खियां बनती रही हैं. मेलघाट क्षेत्र में स्वास्थ्य सेवाओं का भी बुरा हाल रहा है. शासकीय स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए किए गए प्रावधानों का लाभ गरीब आदिवासियों तक पहुंच पाना कठिन ही रहा है. स्वास्थ्य केन्द्रों की दशा और उनकी करगुजारियां भी अखबारों के माध्यम से सामने आती रहती हैं. कहीं डॉक्टरों का अभाव, तो कहीं उनका गायब रहना, दवाइयों का अभाव, चिकित्सकीय कर्मियों की कमी और उनकी गैरजिम्मेदाराना हरकतें, गरीब रोगियों और उनके परिजनों के साथ र्दुव्‍यवहार आदि की खबरें भी अखबारों में आती रही हैं. लेकिन स्थिति में सुधार नहीं हो पाना यही साबित करता है कि अधिकारी मेलघाट की दशा सुधारने प्रति गंभीर नहीं हो पाए हैं.  अब आज 11 अगस्त (2004) को धारणी तहसील के दुनी गांव का सोनिया गांधी दौरा करेंगी. आदिवासी समाज की गरीबी, मजबूरी, समस्या और कुपोषण से खतरे में आए कोरकू आदिम जाति की सही स्थिति उनसे छिपाने की सक्रियता ही नजर आ रही है. यह 11 अगस्त संभवत: मेलघाट के आदिवासियों के लिए सौभाग्य का दिन हो सकता है.

- कल्याण कुमार सिन्हा.

11 अगस्त 2004 को लोकमत में प्रकाशित

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