Saturday 2 June 2012

भारतीय भाषाओं में समन्वय की आवश्यकता
भाषाएं जनसंवाद की प्रमुख माध्यम हैं और सामाजिक-आर्थिक विकास की संवाहक भी हैं. इनकी शक्ति को विकास के अन्य घटकों अथवा कारकों से कम नहीं आंका जा सकता. किंतु भाषा की इस ताकत की उपेक्षा लगातार हमारे देश में ही हुआ है.
आजादी के 56 वर्षो बाद भी हमारे राष्ट्र की सामाजिक-आर्थिक विकास की उपलब्धियाँ सामान्य जन तक पहुँचाने का दायित्व अंग्रेजी के कंधों पर डाला जाता रहा है. किंतु अंग्रेजी का दुर्भाग्य यह है कि उसके समर्थकों की ताकतवर लॉबी होने और पिछले सवा सौ वर्षो से सत्ता का समर्थन प्राप्त होने के बावजूद वह इस देश में सर्वव्यापीहोने का अनिवार्य गुणधर्म हासिल नहीं कर पाई. इस कारण एक ओर वह विकास की उपलब्धियाँ देश के सामान्य जन और निचले वर्ग तक पहुँचा पाने में विफल रही है, दूसरी ओर अंग्रेजी के कारण युवकों का एक बहुत बड़े वर्ग को देश के नव निर्माण में कोई प्रभावी भूमिका निभा पाने से वंचित कर दिया गया है. सर्वव्यापकनहीं बन पाई है, लेकिन एक सच्चाई यह भी है हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी अथवा अन्य दूसरी भारतीय भाषा में भी सर्वव्यापकता एवं सर्वग्राह्यता का अभाव है. भाषाएँ जितनी समृद्ध होती हैं, उनका समाज उतना ही सुसंस्कृत, गतिमान और सशक्त होता है. भाषा की समृद्धि उसकी ग्रहणशीलता पर निर्भर होती है. एक भाषा जब अन्य भाषाओं के शब्द और गुणधर्म ग्रहण करती है, तभी वह सर्वसामान्य के लिए स्वीकार्य बनती हैं. साथ ही उसमें सर्वव्यापकता के गुण भी आते हैं. ऐसी सर्वव्यापक भाषाएं ही समाज या राष्ट्र के प्रत्येक वर्ग के साथ सफल संवाद स्थापित कराती हैं और समाज या राष्ट्र के सामाजिक-आर्थिक विकास के लाभ तीव्र गति से सामान्य जन तक भी पहुंचाती हैं.भाषा समन्वयएक सशक्त मार्ग है. भाषा समन्वय की यह अवधारणा देश की संस्कृति को गतिमान बनाने तथा राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता को सुदृढ़ बनाने के साथ-साथ आर्थिक-सामाजिक विकास को भी तीव्रतर करने में सहायक होगी. आधारशिलातैयार करने की जरूरत है. क्या यह संभव नहीं है?विचार मंथनआरंभ करना जरूरी हो गया है. इस दिशा में सोचने की प्रक्रिया आरंभ होते ही जल्द ही कोई सुगम मार्ग भी निकल सकता है. भाषाओं के समन्वय का यह कार्य निम्नलिखित उद्देश्यों की पूर्ति कर सकेगा-राष्ट्रीय भाषा समन्वय आयोग का गठन करें, जो राष्ट्रीय स्तर पर समस्त भारतीय भाषाओं के सामान्य व्यवहार के शब्दों का मानकीकरण कर दे और इन शब्दों को सभी भारतीय भाषाओं में प्रयुक्त करने को बढ़ावा दे. दूरदर्शन एवं अन्य जनसंचार माध्यम इसमें सहायक बन सकते हैं.राज्य भाषा समन्वय आयोगका गठन कर भाषायी समन्वयके कार्य को गति प्रदान करें. राज्य सरकारें अपने पड़ोसी राज्यों की भाषाओं के साथ तालमेल बिठाने की प्रक्रिया को तीव्र बना सकती हैं.भारतीय भाषाओं के समन्वयकी अवधारणा को शामिल करें.
यह तथ्य है कि अंग्रेजी आज तक हमारे देश में
भाषा की सर्वव्यापकता, उसकी ग्रहणशीलता के मामले में अंग्रेजी को इसका उदाहरण माना जा सकता है. समस्त यूरोपीय और एशियाई भाषाओं की शक्ति ग्रहण कर उसने अपने को इतना समृद्ध बनाया है कि आज वह पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति का वाहन बन विश्व भर में छा गई है और हमारे देश की अस्मिता पर कुंडली जमा कर बैठ गई है. इस कारण हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी समेत भारत की सभी पंद्रह राजभाषाएं पंगु ही बनी हुई है. यही कारण है कि देश की तीन-चौथाई जनता देश के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र में निर्णायक भूमिका निभा पाने से अभी तक वंचित है. भाषाओं को समृद्ध, सर्वग्राह्य और सर्वव्यापक बनाने के लिए
भारत में हिन्दी समेत पंद्रह राजभाषाएँ हैं, जिनका अपना समृद्ध साहित्य भंडार है. इन भाषाओं को बोलने वालों की संख्या भी करोड़ों में हैं. भौगोलिक, सामाजिक और धार्मिक जैसी अनेक परिस्थितियाँ हैं, जिनके कारण ये सभी भाषाएँ एक दूसरे के काफी करीब भी हैं. यदि इन सभी भाषाओं को एक दूसरे की शक्ति हासिल हो जाए तो ये अपने आप समृद्ध हो ही जाएँ और सर्वव्यापकता का गुणधर्म में भी इनमें समा सकती है. इसके साथ ही अंग्रेजी का सशक्त विकल्प भी ये बन सकती हैं. लेकिन इसके लिए समन्वय की एक
हमारा विश्वास है कि यह संभव है और ऐसा हो सकता है. जरूरत होगी- एक साधारण सी ईमानदार कोशिश की. आखिर स्वयं हिन्दी भी और उर्दू भी- ऐसे ही समन्वय की ही तो उपज हैं. हिन्दी समेत सभी भारतीय भाषाएं इसी समन्वय की प्रक्रिया का हिस्सा बना दी जाएँ, अर्थात इनकी शक्ति के समन्वय का सुनियोजित प्रयास शुरू किया जाए तो ये सभी भाषाएं न केवल सर्वव्यापी और सर्वग्राह्य बन जाएंगी, बल्कि इस सद्प्रयास के कुछ अन्य ऐसे परिणाम भी सामने आएंगे, जो हमारे देश की एकता और अखंडता को और अधिक मजबूत बनाएंगे, क्षेत्रीय असमानता दूर करने में सहायक होंगे और सभी प्रांतों के अलग अलग भाषा-भाषियों के बीच बेहतर संवाद भी स्थापित करेंगे. यह स्थितियाँ सामाजिक और सांस्कृतिक समन्वय को भी पुष्ट करेंगी. साथ ही व्यापार एवं व्यवसाय के विकास को भी तीव्र और स्वस्थ बनाएंगी.
अब प्रश्न यह उठता है कि भारतीय भाषाओं के समन्वय की प्रक्रिया और दिशा क्या हो, इसका मार्ग क्या हो? देश के बुद्धिजीवियों के लिए भाषायी समन्वय की प्रक्रिया, दिशा और मार्ग ढूंढ़ना और निर्धारित करना एक चुनौती है. इसके लिए
1. सभी भारतीय भाषाएं और अधिक समृद्ध होंगी, क्योंकि एक दूसरे का गुणधर्म और शब्दों को अपनाएंगी. इससे यह सभी सर्वव्यापक और सर्वग्राह्य बन सकें गी,
2. देश के अलग-अलग प्रांतों के भाषा-भाषी मौजूदा संवादहीनता की स्थिति से उबर सकेंगे और भाषायी विद्वेष की भावना समाप्त होगी,
3. देश में एकात्मता की भावना सुदृढ़ होगी, सामाजिक सौहार्द बढ़ेगा और संस्कृति एवं परपंराओं का भी बेहतर समन्वय हो सकेगा,
4. क्षेत्रीय आर्थिक असमानता दूर करने में मदद मिलेगी और आर्थिक-सामाजिक व्यवहार में पैदा हो रही अड़चनें समाप्त होंगी. इससे देश का आर्थिक विकास तीव्र होगा एवं
5. भाषायी अवरोध के कारण आर्थिक उपलब्धियों के न्यायपूर्ण बंटवारे में जो व्यवधान होता है, वह समाप्त होगा. ये उपलब्धियाँ सभी समाज के निचले स्तर तक पहुंचेगी और व्यवसाय एवं व्यापार का दायरा बढ़ेगा.
अब भाषा समन्वय की दिशा, प्रक्रिया और मार्ग की पड़ताल भी हम करें. एक विचारणीय प्रारूप यह भी है-
1. राष्ट्रीय स्तर पर केंद्र सरकार
2. सभी राज्य सरकारें, राज्य भर भी
3. देश के सभी राजनीतिक दल राष्ट्रीय एकता के लिए भाषाओं के समन्वय के महत्व को ध्यान में रख कर अपनी भाषा नीति में
4. सभी भारतीय भाषाओं के साहित्यकार, पत्रकार एवं अन्य क्षेत्र के बुद्धिजीवी अपनी भाषा समृद्ध बनाने और दूसरी भाषाओं से आत्मिक संबंध बढ़ाने के उद्देश्य से अपनी-अपनी रचनाओं में अन्य भारतीय भाषाओं के शब्दों, मुहावरों, कहावतों आदि को उदारता से स्थाना देना आरंत करें एवं
5. सभी भारतीय भाषाओं के साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं अन्य संगठन भी भारतीय भाषाओं के समन्वय की दृष्टि से अपनी भाषा में अन्य भारतीय भाषाओं के शब्दों के प्रयोग को उदारतापूर्वक बढ़ावा दें.
सांस्कृतिक एकता, भाषाओं की रचनाशीलता और उनके बीच सहस्नब्दियों से प्रवाहित अंतर्धारा को सुखाने का जो विश्वासघात हुआ है, उसका संताप आजादी के बाद की चार पीढ़ियां भोग चुकी हैं. इन सभी अवरोधों के बावजूद इन्हीं वर्षो में हिन्दी सहित हमारी सभी प्रादेशिक भाषाओं में विपुल मात्र में साहित्य रचा गया है. उनमें से कुछ लेखन विश्वस्तरीय भी साबित हुआ है. लेखकों, चिंतकों और कलाकारों ने अपनी मौलिक रचनाओं, अनुवादों, फिल्मों तथा रंगमंचों से पूरे परिवेश को समृद्ध किया है. लेकिन यह सारी उपलब्धियाँ अंग्रेजी के मुकाबले हिन्दी सहित अन्य सभी भारतीय भाषाओं को कोई विशेष स्थान नहीं दिला पाया है.
साहित्य, कला और संस्कृति के विकास तथा समन्वय के लिए गठित सरकारी तथा गैर-सरकारी अकादमियों, संस्थानों, पुरस्कारों का योगदान कम नहीं है. इससे जनसंख्या और शिक्षा के विस्तार के साथ हिन्दी तथा दूसरी प्रादेशिक भाषाओं के पाठकों की संख्या और स्वीकार्यता भी बढ़ी है, लेकिन अंग्रेजी का प्रभावी विकल्प बन पाने में अन्य भारतीय भाषाओं की बात तो दूर हिन्दी भी सक्षम नहीं हो पाई है. उल्टे हिन्दी को साम्राज्यवाद का प्रतीक करार देकर अंग्रेजी टिकाए रखने के हर संभव उपाय किए जा रहे हैं. स्थितियाँ ऐसी पैदा कर दी गईं हैं कि हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं के बोलने और पढ़ने वालों में हीनता का बोध लगातार बढ़ रहा है.
यह अत्यंत दुख की बात है कि भाषायी आधार पर आज भी हमारा देश बिखरा सा है और भाषाओं के आधार पर बंटे राज्यों में भी हिन्दी के लिए तो वर्ष में पखवारा और सप्ताह मना कर कर्तव्य की इतिश्री कर ली जाती है. अन्य भारतीय भाषाओं के विकास अथवा समन्वय के संदर्भ में न केवल शासकीय स्तर पर बल्कि जनसामान्य के स्तर पर भी संवादहीनता जैसी स्थिति है. यह स्थिति हमारी राष्ट्रीय एकता के लिए घातक तो है ही, हमारे सामाजिक-आर्थिक विकास का भी अवरोधक है. भाषा समन्वय की अवधारणा सभी भारतीय भाषाओं को समृद्ध, सर्वग्राह्य और सर्वव्यापक बना कर देश की एकता एवं अखंडता को सुदृढ़ बनाने के साथ-साथ आर्थिक-सामाजिक विकास को भी तीव्रतर करेगी. साथ ही अंग्रेजी का बेहतर विकल्प भी बन सकेंगी.

- कल्याण कुमार सिन्हा
नागपुर (महाराष्ट्र).

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