Monday 4 June 2012

शासन और भ्रष्ट तंत्र का पोषण
भ्रष्टाचार और कुशासन सहोदरा हैं. भ्रष्टाचार को यदि प्रश्रय मिला तो शासक चाहे जितना भी योग्य क्यों न हो, देश और जनता को सुशासन नहीं दे सकता. उसके कुशल एवं योग्य शासक माने जाने पर हमेशा प्रश्न चिह्न् खड़ा हो ही जाता है. शासक की योग्यता और कुशलता का पैमाना यही है कि वह जनता को गतिमान एवं भ्रष्टाचार मुक्त शासन और प्रशासन उपलब्ध कराने में कितना सक्षम है. शासक अथवा सरकार की लोकप्रियता इसी मानदंड पर निर्भर है. अन्यथा वह शासक भ्रष्ट तंत्र का पोषक बन कर रह जाता है.
संप्रग-2 के शासनकाल का वर्तमान दौर में देश की जनता के समक्ष हर दिन एक न एक विवाद और भ्रष्टाचार में शासकवर्ग की संलिप्तता के किस्से सामने आते चले जा रहे हैं. यह स्थिति देश के लिए अत्यंत चिंता का विषय है. सत्तारूढ़ संप्रग की मुख्य घटक कांग्रेस पार्टी की भूमिका भी विचित्र ही है. वह हर भ्रष्टाचार के सभी सामने आने वाले मामलों की लीपा-पोती ही करती नजर आ रही है. अन्य घटक या तो तमाशबीन बने नजर आते हैं, अथवा वे भी सत्ता में बैठे अपने लोगों को भ्रष्टाचार के आरोपों से बचाने के लिए सरकार पर दवाब बनाते नजर आ रहे हैं. सरकार के मुखिया प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की योग्यता और ईमानदारी तार-तार हुई जा रही है. कल तक जिस प्रधानमंत्री पर देश की जनता नाज कर रही थी, आज वह हतप्रभ है और उनके खिलाफ उठ रही उंगलियों को देख-देख अब उससे सहमत भी होने को विवश हो रही है.
नई दिल्ली में संपन्न राष्ट्रमंडल खेलों में हुए घोटालों से शुरू हुए भ्रष्टाचार के यह वारदात कहीं ठहरने का नाम ही नहीं ले रहे. 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला से लेकर अब कोयला खदान ब्लाक आवंटन घोटालों से संबद्ध भ्रष्टाचार के सारे तार प्रधानमंत्री कार्यालय से जुड़े होने के प्रमाण स्वयं कैग (भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक) जैसी शीर्ष सरकारी जांच संस्था के माध्यम से ही उजागर हो रहे हैं. इसके बावजूद शीर्ष स्तर से इन सभी मामलों की लीपा-पोती की कोशिशें ही चल रही है. उनकी इन कोशिशों के कारण देश की आम जनता में असंतोष के बीज पड़ने शुरू हो चुके हैं.
भ्रष्टाचार से त्रस्त देश का जागृत वर्ग समाज सेवी अन्ना हजारे और उनकी सिविल सोसायटी की ‘‘राज्यों में लोकायुक्त और केंद्र में लोकपाल बहाल करने के लिए जन लोकपाल प्रस्ताव के आधार पर प्रभावी कानून बनाने की मांग’’ तथा योगगुरु बाबा रामदेव के ‘‘काले धन को विदेशों से वापस देश में लाने, काले धन के जनकों के नाम उजागर करने एवं इस काले धन को राष्ट्रीय संपत्ति घोषित करने’’ को लेकर किए जाने वाले आंदोलनों से जुड़ते चले जा रहे हैं अथवा इन आंदोलनों के प्रति (सत्तारूढ़ दल और सरकारी तंत्र के दुष्प्रचार के बावजूद) लोगों का समर्थन बढ़ता जा रहा है.विधि का शासन’ (रूल ऑफ लॉ) देश में स्थापित नहीं हो सका है. लोकतंत्र के नाम पर सत्तारूढ़ दल और विपक्षी पार्टियां भी देश में विधि का शासन चले, इसके लिए गंभीर नहीं हैं. तमाम संवैधानिक व्यवस्थाओं को अपने हित साधने के लिए तोड़ने-मरोड़ने से कोई बाज नहीं आता. देश का नौकरशाही भी अपने राजनीतिक आकाओं को खुश रखने में तमाम कानूनों और वैधानिकता की ऐसी की तैसी करने में जुटा हुआ है और उनके साथ मलाई खाने में ही लगा हुआ है. जनसेवा, देश सेवा, समाज सेवा के नाम पर ये सारे के सारे, अपना हित साधने और अपनी संपत्ति बनाने में लगे हुए हैं. देश का शासन कुशासन में बदलता जा रहा है.
देश के लिए दुर्भाग्य का विषय यह भी है कि आजादी के 64 वर्षो के बाद भी संविधान सम्मत
इसके साथ ही साथ सरकार की नीतियां जनविरोधी होती चली जा रही हैं. महंगाई बढ़ती जा रही है. भ्रष्ट नेता और अफसर एवं भ्रष्ट सरकारी कर्मचारियों के पौ तो बारह हैं, लेकिन देश के आम लोगों की हालत बिगड़ती जा रही है. गरीबी और अमीरी की खाई बढ़ती जा रही है.
आर्थिक नीतियां ऐसी भ्रष्ट और नीहित स्वार्थ से ओत-प्रोत हैं कि उसका लाभ सिर्फ भ्रष्ट लोगों को ही मिल रहा है. इसका मात्र छोटा सा उदाहरण है- बैंक लोन की व्यवस्था. कार लोन और बाइक लोन की ब्याज दरें देखिए और आम आदमी अपनी आजीविका के लिए, शिक्षा के लिए अथवा आवास के लिए यदि बैंक से लोन ले रहा हो तो उसकी ब्याज दरों पर नजर डालिए.
इसके अलावा देश में पेट्रोलियम पदार्थो की खपत की ओर देखिए. देश में इसकी बढ़ती मांग पूरी करने के लिए कच्च तेल, पेट्रोल और डीजल आयात करना पड़ रहा है. कहने को इस पर भारी सब्सिडी देकर इसे सस्ता बनाए रखने का ढोंग किया जाता है. दूसरी ओर कूकिंग गैस, पेट्रोल और डीजल पर करों का बोझ बढ़ाया जा रहा है. इससे इससे न केवल आवश्यक उपभोक्ता सामग्री महंगी होती जा रही है, बल्कि जन जीवन भी प्रभावित हो रहा है. सरकार के लिए जैसे शराब राजस्व उगाही का अच्छा साधन है और जैसे वह शराब बंदी का ढोंग करते हुए शराब की खपत बढ़ाने में लगी रहती है, उसी तरह इन पेट्रोलियम उत्पादों का खपत बढ़ाने का उपाय करती रहती है. कारों और बाइकों की जरूरत पब्लिक ट्रांसपोर्ट के बजाय आज दिखावा और लग्जरी के लिए अधिक हो गया है. कार बनाने वाली विदेशी कंपनियों को सस्ते दर पर भूमि एवं अन्य साधन सुविधा उपलब्ध कराने और उनकी उत्पादित कारों को बेचवाने के लिए हर तरह की सुविधा उपलब्ध कराई जा रही है. क्या देश को इन कारों की आज इतनी जरूरत है? इसके बदले पब्लिक ट्रांसपोर्ट सिस्टम को बढ़ाने के उपाय क्या नहीं होने चाहिए? देश में अधिकाधिक बसें, मिनी बसें, आवश्यक उपभोक्ता सामग्री को देश के एक कोने से दूसरे कोने तक आसानी से समय पर उपलब्ध कराने के लिए ट्रकों के उत्पादन को अधिकाधिक बढ़ावा देने की जरूरत नहीं हैं? कारें आम आदमी के उपभोग की वस्तु नहीं हैं. इन की खरीद के लिए कम ब्याज दरें क्यों?
आज देश में जो भी ट्रकें बन रहे हैं, उनकी भार वाहक क्षमता पहले से कहीं अधिक है. लेकिन उन्हें अपनी क्षमता के अनुरूप माल ढुलाई करने की छूट देश में नहीं है. उस पर रोक है. यदि ये ट्रकें अपनी क्षमता के अनुसार माल ढुलाई करने लग जाएं तो उपभोक्ता सामग्रियां, जो ये एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचाती हैं, वह सस्ती हो सकती है. क्योंकि कम माल लेकर चलने से उस माल की कीमत में ट्रक भाड़ा जितना जुटता है, वह कम हो सकता है.
यह सब छोटे उदाहरण हैं, जिससे समझा जा सकता है कि हमारी सरकार की नीतियां किस कदर जन विरोधी हैं. ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जिससे यह पता चलता है कि सरकार केवल भ्रष्ट तंत्र की पोषक बनी हुई है.
-कल्याण कुमार सिन्हा
 
 
 
शासन और कुशासन
इतिहास इस बात का गवाह है कि दुनिया के बड़े और अत्यंत शक्तिशाली साम्राज्य केवल इसलिए ढह गए, क्योंकि शासक ने यह समझने की जुर्रत नहीं की कि उसकी जनता में उपजा असंतोष का कारण भ्रष्टाचार में आकंठ डूबा उसका शासन कुशासन में तब्दील हो चुका है.
यूरोप की आज की प्रगति और पश्चिमी देशों की समृद्धि के पीछे केवल वह सुसाशन ही है, जिसने न केवल समाज में नैतिक मूल्यों को प्रतिष्ठा दिलाई, बल्कि आम जनता में सहअस्तित्व की भावना को इस कदर बलवति कर दिया कि आज वहां का समाज तमाम मानवाधिकार ही नहीं, मानवेत्तर प्राणियों और पर्यावरण के प्रति अत्यधिक संवेदनशील बन गया है. इसी के पीछे-पीछे उन देशों के समाज में सुख-समृद्धि और ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र का उल्लेखनीय विन्यास भी हुआ है.
ऐसा नहीं है कि पश्चिमी देशों का समाज भ्रष्टाचार से मुक्त हो गया है, अथवा वहां पूर्व में भ्रष्टाचार जैसी बुराई थी ही नहीं. इतिहास पलटें तो पाएंगे कि पश्चिमी समाज कहीं अधिक भ्रष्ट और दुराचारी शासकों का समाज था. यहां अनेक शक्तिशाली साम्राज्यों का उदय हुआ, लेकिन भ्रष्टाचार और कुशासन जैसी सहोदरा बहनों के तांडव ने उन्हें लील लिया. भ्रष्ट और दुराचारी शासकों से पीड़ित जनता ने भी सबक सीखा और अपने समाज एवं देश को इन बुराइयों से मुक्त करने की दिशा में कदम भी उठाए, उनमें निरंतर सुधार भी किया. परिणाम स्वरूप आज उनका देश और समाज न केवल विकसित राष्ट्रों की श्रेणी में है, बल्कि हमसे कहीं बढ़ कर सुसंस्कृत भी हैं.
-कल्याण कुमार सिन्हा
 

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