Saturday 2 June 2012

jharkhand aur cnt kee samasaya

 "कल्याणम"
सी एन टी एक्ट झारखंड के आदिअवासियों के शोसन  का माध्यम बना
झारखंड में सी एन  टी एक्ट की समस्या 
हाल ही में राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष श्री रामेश्वर उरांव का साक्षात्कार रांची के एक हिंदी दैनिक  में  पढ़ कर यही लगा कि आज भी झारखंड के आदिवासियों के साथ उनकी अपनी भूमि के क्रय-विक्रय अधिकार को लेकर कोई भी इमानदार नहीं है. यहां तक कि स्वयं रामेश्वर उरांव भी नहीं. आश्चर्य का विषय यह है कि अब तक किसी ने आदिवासियों की भूमि की खरीद की जांच की मांग किसी ने भी करने की जरूरत महसूस नहीं की है. छोटानागपुर टेनेंसी (सीएनटी) एक्ट, जो कभी आदिवासियों के हितों की रक्षा के लिए बना था, उसका यदि सबसे अधिक गलत फायदा कोई वर्ग उठा चुका है, अथवा उठा रहा है तो वह वर्ग है रामेश्वर उरांव जैसे उन आदिवासी अधिकारियों और उन आदिवासी नेताओं का, जो आरक्षण का लाभ लेकर उच्च पदों तक पहुंचे और अन्य गैरआदिवासी अधिकारियों की तरह भ्रष्टाचार का सहारा लेकर जनता को एवं सरकारी खजाने को लूटा और फिर अपनी इस भ्रष्ट कमाई का बड़ा हिस्सा झारखंड के शहरों, रांची और इसके आस-पास अपने ही आदिवासी भाइयों की जमीन औने-पौने दामों में खरीद ली है.
सीएनटी एक्ट के प्रावधानों के अनुसार आदिवासियों की जमीन कोई आदिवासी ही खरीद सकता है और खरीदने वाला आदिवासी भी अपनी जमीन बेचने वाले आदिवासी के गांव अथवा पंचायत क्षेत्र का ही होना चाहिए. जमीन बेचने के इस बंधन के कारण आदिवासियों को अपनी बेसकीमती जमीन वैसे व्यक्ति को ही बेचना पड़ता है, जो उसके गांव का है अथवा उसके पंचायत क्षेत्र का और जिसके पास खरीदने की क्षमता हो. रामेश्वर उरांव जैसे हजारों आदिवासी अधिकारी ऐसे मौके की तलाश में रहते हैं और जिस किसी भी आदिवासी ने मजबूरीवश अपनी जमीन बेचनी चाही तो बस उनकी मजबूरी का फायदा उठा कर उनसे औने-पौने दाम देकर ये लोग उनकी जमीन खरीदते रहे हैं.
ऐसे अनेक उदाहरण हैं. बड़े आदिवासी अधिकारी और आदिवासी नेता झारखंड में शुरू से यही सब करते आए हैं. आदिवासियों में ही ये दोनों वर्ग आज भी गरीब भोले-भाले आदिवासियों को लूटने वाले सबसे बड़े लुटेरे बने हुए हैं.
इन बड़े आदिवासी अधिकारी और आदिवासी नेताओं ने पिछले तीस-चालीस वर्षो में रांची और झारखंड के शहरों के आस-पास जिन-जिन आदिवासियों से जमीनें खरीदी हैं, उनकी कोई जांच कराने की मांग तो उठा कर देखे. कम से कम आज भी कोई आदिवासी नेता तो इस मांग को लेकर कभी भी सामने कत्तई नहीं आएगा.
जब कभी झारखंड में कोई विकास योजना की शुरुआत हुई, उसके पीछे लंबा आंदोलन चला. इस बीच आदिवासी नेताओं और अधिकारियों ने संबंधित क्षेत्र के आदिवासियों को सरकार द्वारा जमीन छीने जाने का डर दिखा कर उनकी जमीनें औने-पौने दामों में स्वयं खरीद लीं. बाद में सरकार के साथ सौदेबाजी कर और अधिग्रहण होने वाली जमीन की मुआवजा राशि बढ़वा कर, उन अधिगृहीत भूमि की बढ़ी हुई कीमत सरकार से बटोर कर मालामाल हो गए. मामला चाहे स्वर्णरेखा बहुद्देशीय योजना की रही हो या पारस जलाशय योजना की, अथवा झारखंड (पूर्व उत्तरी और दक्षिणी छोटानागपुर) के किसी भी जिले की, सभी परियोजनाओं के विरोध के बाद संबंधित आदिवासी नेता यही खेल खेलते रहे हैं और इसमें भ्रष्ट आदिवासी अफसर भी बहती गंगा में अपने हाथ धोते रहे हैं.
आज अनेक ऐसे उच्च शिक्षा प्राप्त आदिवासी युवक हैं, जो नौकरी न कर, व्यावसाय या उद्योग के क्षेत्र में कदम रखना चाहते हैं. उनके पास उनकी बेसकीमती जमीन भी है, जिसे बैंकों में गिरवी रखकर वे बैंक लोन लेना चाहते हैं. अथवा रांची जैसे शहर में अपने पुराने मकान के नवीकरण के लिए लोन लेना चाहते हैं, लेकिन सीएनटी एक्ट के प्रावधानों के कारण उन्हें कोई बैंक कर्ज नहीं दे सकता. ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएंगे, जिससे यह साफ हो जाएगा कि जिला उद्योग केंद्रों के माध्यम से अनेक आदिवासी युवक अपनी लघु इकाई के लिए बैंक लोन लेने में विफल रहे.
रांची शहर के अल्बर्ट एक्का चौक पर फिरायालाल की बिल्डिंग है. उसके पीछे और आस-पास का इलाका चरडी गांव हुआ करता था. लाइन टैंक तालाब आदिवासियों की है. चरडी गांव के आदिवासी आज भी वहीं रहते हैं. वहां की जमीनें उनकी हैं, जिनकी कीमत आज के बाजार दर के हिसाब से कम से कम 50 हजार रुपए प्रति वर्गफुट तो होनी ही चाहिए. ऐसी कीमती जमीन के मालिक वहां के आदिवासी आज कैसी जिंदगी जी रहे हैं, यह भी केस स्टडी’ का विषय है.
झारखंड में कोई निजी क्षेत्र का अथवा सार्वजनिक क्षेत्र का भी कोई बड़ा उद्योग आजादी के बाद नहीं आ पाया, क्योंकि निजी क्षेत्र के सामने भूमि अधिग्रहण बड़ी समस्या थी. इसमें कोई शक नहीं कि पूर्व में सार्वजनिक क्षेत्र के लिए भूमि अधिग्रहण के कारण हजारों आदिवासी भूमिहीन बन कर रह गए. भारी इंजीनियरी निगम बना तो उस क्षेत्र के हजारों आदिवासियों को जो मुआवजा मिला, उसका उचित प्रबंध कर पाने की समझ नहीं होने के कारण हमने हजारों आदिवासियों को जमींदार से भूमिहीन और रिक्शा चालक बनते देखा है. महिलाएं दूसरे के घरों में नौकरानी बन चौका-बरतन कर जीवन यापन करने को मजबूर हो गईं. आज उनके लिए कोई नहीं सोचता. भारी इंजीनियरी निगम डूब रहा है. कोई यह मांग नहीं उठाता कि आदिवासियों की वहां की अधिगृहीत बेकार पड़ी जमीन उन्हें वापस लौटा दी जाए.
बोकारो स्टील प्लांट के लिए भूमि अधिग्रहण के मामले में भी यही सब हुआ और शिबू सोरेन तो स्वयं इसके गवाह हैं. आदिवासियों के नाम पर मुआवजे के लिए लड़ने वाले उनके अपने साथियों ने भी क्या-क्या गुल वहां खिलाए थे और आदिवासियों को मिली मुआवजे की बड़ी राशि के साथ क्या हुआ, इसके तो वे स्वयं गवाह रहे हैं.
ऐसे एक नहीं, झारखंड में ऐसे हजारों प्रसंग हैं. कोई आदिवासी नेता इस बारे में नहीं सोचता. रामेश्वर उरांव भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी रहे हैं. उन्होंने भी स्वीकार किया है कि रांची में ससुराल होने का फायदा उठा कर उन्होंने भी बरियातु इलाके में आदिवासियों की जमीन हड़पी है.
ऐसे ही आदिवासी नेता हुआ करते थे थियोडोर बोदरा, उन्होंने भी बरियातु क्षेत्र में स्कूल खोलने के नाम पर आदिवासियों से मिट्टी के मोल उनकी जमीन हथिया रखी थी. कुछ वर्षो बाद वही जमीन जब अपनी बेटियों में बांटने के लिए उपायुक्त, रांची से उन्होंने अनुमति मांगी थी. जिन आदिवासियों को ठग कर उन्होंने वह जमीन हथियाई थी, उन्हें जब पता चला और उन्होंने जब लिखित रूप से उपायुक्त, रांची के सामने बातें रखीं तब यह पोल खुली. धनबाद के दैनिक आवाज’ में यह समाचार छपा और बोदरा साहब के खिलाफ आवाजें उठनीं शुरू हुईं, तब पता चला कि ऐसी अनेक भूमि में ही नहीं, आदिवासियों के अनेक मामलों में वे लिप्त रहे हैं. उस वक्त वे पटना हाईकोर्ट के रांची बेंच में वे स्टैंडिंग काउंसिल के सदस्य हुआ करते थे. जब बात आगे बढ़ने लगी तो हृद्याघात के कारण वे स्वर्ग सिधार गए. ऐसे अनेक उदाहरण हैं. जिनसे यह साबित हो जाएगा कि यह सीएनटी एक्ट आज खुद आदिवासियों के लिए घातक बना हुआ है और उनके विकास के सबसे बड़े प्रतिरोधों में से एक है.
इस सीएनटी एक्ट का फायदा उठाने में गैर आदिवासी भी पीछे नहीं रहे हैं. ऐसे हजारों गैरआदिवासी मिल जाएंगे, जिन्होंने आदिवासियों की जमीनें हड़पने के लिए आदिवासियों युवतियों से फर्जी विवाह रचाया अथवा उन्हें रखैल (रखनी) बना लिया और उनके नाम पर आदिवासी जमीन मिट्टी के मोल खरीदते रहे. बाद में उनसे पैदा उनके बेटे-बेटियों को अलग रख उन्हें पालते रहे और उनके नाम पर भी जमीन का धंधा करते रहे हैं.
आज ये डर दिखाते हैं कि सीएनटी एक्ट में संशोधन कर गैरआदिवासियों को भी आदिवासियों की जमीन खरीदने की छूट दे दी जाएगी तो आदिवासियों का अस्तित्व ही संकट में पड़ जाएगा. यह हौवा खड़ा कर न केवल आदिवासियों को बेवकूफ बनाया जा रहा है, बल्कि उनकी लाचारी का फायदा भी उठाया जा रहा है.
लगातार सुनने में आता रहा है कि सीएनटी एक्ट को लेकर और आदिवासियों की जमीन की रक्षा के नाम पर आंदोलन किया जा रहा है. लेकिन आदिवासियों को यह समझ में नहीं आ रहा कि उनके ये आदिवासी नेता इसकी आड़ा में अपनी ही रोटियां सेंकने में लगे हैं.
झारखंड पृथक राज्य का आंदोलन जब 1980 के दशक में जोर पकड़ा तो उसके पीछे गैरआदिवासियों का समर्थन इस आधार पर आंदोलन को मिला था कि झारखंड राज्य में गैरआदिवासियों को भूमि संबंधी अधिकार में सीएनटी एक्ट को आड़े नहीं आने दिया जाएगा. तत्कालीन आदिवासी नेताओं में एन.ई. होरो, कार्तिक उरांव, बागुन सोम्बरुई आदि ने अनेक बार इस बात पर जोर दिया था कि गैरआदिवासियों को भूमि खरीद में सीएनटी एक्ट आड़े नहीं आने दिया जाएगा. दैनिक आज’ के रांची संस्करण में छपे अपने एक साक्षात्कार में बागुन सोम्बरुई ने साफ कहा था कि झारखंड राज्य बना तो सीएनटी एक्ट बदल दिया जाएगा.
आज महाराष्ट्र में आदिवासियों की जमीन संबंधी महाराष्ट्र भूमि राजस्व अधिनियम 1966 की धारा 36(अ) को शिथिल कर दी गई है. इसमें आदिवासियों की जमीन खरीदने से पहले उनके लिए पर्यायी व्यवस्था करने का प्रावधान कर दिया गया है. यह सब आदिवासी हितों की रक्षा के उद्देश्य से किया गया है. अब महाराष्ट्र के आदिवासी अपनी जमीन बाजार मूल्य पर बेच कर अतिरिक्त सुरक्षा पाने के अधिकारी बन गए हैं.
लेकिन झारखंडी आदिवासी नेता और आदिवासी अधिकारी केवल अपने हितों की रक्षा अर्थात आदिवासियों को आदिवासी के नाम पर लूटने के अपने हितों की रक्षा के लिए परेशान हैं.
-कल्याण कुमार सिन्हा,
नागपुर, महाराष्ट्र.
मो. नं.- 09822689134.

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