Saturday 23 June 2012

धर्म का बढ़ता व्यापार

धर्म का व्यापार अथवा धर्म के नाम पर व्यापार कोई नई बात नहीं है. संचार माध्यमों और मीडिया प्रसारण के इस युग में धर्म को माध्यम बना कर ऐसे पाखंड प्रचारित किए जा रहे हैं कि भविष्य के प्रति आशंकित लोगों को अपने भविष्य सुधारने के लिए इन जालों में फंसते देर नहीं लगती.
धर्म का गुण है अनेक को अपनी छत्रछाया में लेना और सबको विकास की राह दिखाना. लेकिन धर्म के नाम पर आज हमें जो प्रयास नजर आते हैं, उनमें विभिन्न समुदाय-वर्गो को सामाजिक सरोकारों से जुड़ने की प्रेरणा देने के बजाय अपने व्यावसायिक हितों को साधने का साधन बनाने की कोशिशें ही कोशिशें दीख पड़ती हैं. ऐसे लोगों ने धर्म को व्यापार बना दिया है, वे भगवान को अपनी जेब में रखना चाहते हैं और अवसर मिलते ही उसे भुनाना भी चाहते हैं.
ऐसी चाहत आज बढ़ती ही जा रही है. यह धन कमाने का सर्वाधिक सरल और सुगम मार्ग बन गया है. इस सरलता और सुगमता का माध्यम लोगों की अंधी आस्था और आसानी से जीवन में सबकुछ हासिल कर लेने की लालच है.
टीवी चैनलों पर ऐसे दैवीय यंत्रों की भरमार दिखाई पड़ती है जो यह दावा करते हैं कि उनके उपयोग से जिंदगी में खुशहाली आ जाएगी. इनकी श्रेष्ठता और सत्यता साबित करने के लिए फिल्म और टेलीविजन के सितारों की भी मदद ली जाने लगी है. पिछले कुछ सालों में, कुछ हिंदी टेलीविजन चैनलों ने कुछ पाखंडी धर्म गुरुओं के गोरखधंधों का पर्दाफाश करने का दावा किया है, जबकि उनका यह प्रयास संदेह के घेरे से बाहर नहीं है.
अधिकांश मामलों में इन धर्म गुरुओं के बारे में यह आरोप लगाए गए हैं कि इन लोगों ने व्यक्तिगत लाभ और पैसा कमाने के लिए लोगों की धार्मिक भावनाओं से खिलवाड़ किया है. आर्थिक दोहन, यौन शोषण, संकुचित सोच और अंधविश्वास ने हर तरह के अपराधों को बढ़ावा दिया है फिर वह व्यक्तिगत हिंसाचार हो या फिर सामूहिक हत्या या आतंकवाद. इनकी पुनरावृत्ति पूरे देश में और हर धर्म में होती दिखाई पड़ती है. नि:संदेह, धर्म के मामले में यह पूरी तस्वीर नहीं है, लेकिन फिर भी हमारा ध्यान आकर्षित करने के लिए इसमें पर्याप्त महत्वपूर्ण पहलू तो हैं ही.
पूरे विश्व में, व्यक्तियों में धर्म की श्रेष्ठता के प्रति आस्था और उसका व्यक्तिगत जीवन पर असर बढ़ने के बजाय धार्मिक प्रथा-परंपराओं के स्वरूप में बदलाव आता जा रहा है. भारत में, आर्थिक सुधारों और उससे उत्पन्न हुई संपन्नता ने धार्मिक भावनाओं को कमजोर करने के बजाय और प्रबल किया है. उसके प्रमाण हमारे चारों ओर पसरे हुए हैं.
विभिन्न टेलीविजन चैनल गुरुओं को ब्रांडबनाने में लगे हुए हैं. धार्मिक उत्सवों को प्रमुखता से दिखाया जा रहा है. हमारे रोजमर्रा के जीवन में भी धार्मिक अनुष्ठानों का बड़ा महत्व नजर आने लगा है. मंदिरों में खूब भीड़भाड़ नजर आती है, खासतौर पर परीक्षा के दिनों में.
बात केवल ईश्वर से अपने सुख और कल्याण के लिए व्यक्तिगत प्रार्थना तक सीमित नहीं रह गई, बल्कि अब तो ऐसी कई कहानियां सुनने को मिल जाती हैं, जिनमें ईश्वर के प्रकोप से बचने और वरदान पाने के लिए कुछ भक्त विचित्र प्रायश्चित करते हैं. इनकी वजह से मनुष्य मात्र का नुकसान भी होता है.
प्रार्थना एक ऐसा अस्त्र माना जाता है जो असंभव को संभव कर सकता है. मानव मात्र अपने साथ घटने वाली अनपेक्षित, बुरी घटनाओं से इसी प्रार्थना के सहारे बचना चाहता है. प्रार्थना में ईश्वर से फरियाद के साथ-साथ बाध्यकारी मांग भी शामिल होती है. इसमें दासता का भाव भी निहित होता है और भावनाओं का अतिरेक भी.
परंपरागत तौर पर प्रार्थना या ईश्वर की आराधना में अपेक्षा की जाती है कि बिना किसी उम्मीद, सवाल-जवाब ऊपर वाले के समक्ष समर्पण. लेकिन अब लगातार इस बात को अनुभव किया जा रहा है कि भक्तों की मांगों ने आत्मसमर्पण को पिछवाड़े छोड़ दिया है. प्रार्थना, परिणाम पर निर्भर हो गई है.
तथाकथित धार्मिकता और असल धार्मिकता के बीच खाई बढ़ रही है. परिणामस्वरूप धर्म की सामाजिक उपयोगिता का ह्रास हो रहा है. धर्म, व्यक्तिगत विकास का माध्यम बनने के बजाय एक रिमोट कंट्रोल बन रहा है जिसे जो, जब, जहां चाहे अपने स्वार्थ के लिए घुमा लेता है.
जहां सच्ची धार्मिकता आत्मसुधार और बिना शर्त समर्पण के भाव पैदा करता है, वहीं आज धर्म से लोगों का रिश्ता अधिकाधिक मांगों भरा हो गया है, जिसमें स्वार्थ ही स्वार्थ है, समर्पण अथवा अर्पण का कहीं नामो निशान भी नजर नहीं आता.

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